श्री चैतन्य चरित्रामृतम

Tuesday 30 April 2019

Shri chetanya charitra amritam katha karmank 16 श्री चैतन्य चरित्रमृतम कथा क्रमांक 16

🙏🏼🌹 हरे कृष्ण 🌹🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(16)
🌸 🌸 चांचल्य 🌸🌸
क्रमशः से आगे .....



जब ये अपने छोटे-छोटे हाथों को ऊपर उठाकर सूर्य की ओर टकटकी लगाकर उपस्थान का ढंग दिखाते तब स्त्रियाँ हँसते-हँसते लोट-पोट हो जातीं। इसी प्रकार ये जिस काम को देखते उसी की नकल करते। इनके चांचल्य से कभी-कभी बड़ी हँसी होती। एक दिन मिश्र जी के साथ ये गंगा-स्नान करने गये। स्नान करने के अनन्तर मिश्र जी प्रायः पास के भगवान  के मन्दिर में दर्शन करने जाया करते थे। ये भी शाम के समय कभी-कभी बालकों के साथ उसमें आरती देखने और प्रसाद लेने चले जाते थे। आज दोपहर को भी ये मिश्र जी के साथ मन्दिर में चले गये। मिश्रजी ने जिस प्रकार साष्टांग प्रणाम किया उसी प्रकार इन्होंने भी किया। उन्होंने प्रदक्षिणा की तब ये भी प्रदक्षिणा करने लगे। पिता जी को हाथ बाँधे देखकर इन्होंने भी हाथ जोड़ लिये और इधर-उधर देखते-भालते हाथ जोड़े जगमोहन में बैठ गये। पुजारी जी ने मिश्रजी को चम्मच में थोड़ा केसर-कपूर-मिश्रित प्रसादी चन्दन दिया। इनका ध्यान तो उस तरफ था ही नहीं, ये तो न जाने किस चीज को देख रहे थे। पुजारीजी ने थोड़ा-सा चन्दन इन्हें भी दिया। इन्होंने पंचामृत की तरह दोनों हाथ फैलाकर चन्दन को ग्रहण किया और चट से उसे खा गये। पुजारी जी तथा मिश्र जी यह देखकर हँसने लगे। कडुवा लगने से वे वहीं थू-थू करने लगे और गुस्सा दिखाते हुए बोले- ‘यह कड़वा-कड़वा प्रसाद पुजारी जी ने न जाने आज कहाँ से दे दिया?’

मिश्र जी ने हँसते हुए कहा- ‘बेटा, यह प्रसादी चन्दन है! इसे खाते नहीं हैं मस्तक पर लगाते हैं।’ आपने मुँह बनाकर कहा- ’तब आपने मुझे पहले से यह बात क्यों नहीं बतायी थी?’ पुजारी जी ने जल्दी से इन्हें एक पेड़ा दिया उसे पाकर ये खुश हो गये। घर आकर माता जी से इन्होंने सभी बातें कह दीं। अब तो ये अकेले गंगा जी  पर चले जाते और वहाँ घण्टों खेला करते। दो-दो, तीन-तीन बार स्नान करते। बालू के लड्डू बना-बनाकर अपने साथ के लड़कों को मारते, गंगा जी में से पत्र-पुष्प निकाल-निकालकर उनसे बालू में बाग बनाते और नाना प्रकार की बाल-लीलाएँ करते। मिश्र जी इन्हें बहुत समझाते कि बेटा! कुछ पढ़ना भी चाहिये, किन्तु ये उनकी बातों पर ध्यान ही न देते और दिनभर बालकों के साथ खेला ही करते। एक दिन मिश्रजी को इन पर बड़ा गुस्सा आया, ये इन्हें पीटने के लिये गंगा-किनारे गये। शचीदेवी भी मिश्रजी को क्रोध में जाते देखकर गंगा-किनारे के लिये उनके पीछे-पीछे चल दीं। वहाँ पर ये बच्चों के साथ खूब उपद्रव कर रहे थे।

मिश्र जी तो गुस्से में भरे ही हुए थे, इन्हें उपद्रव करते देखकर वे आपे से बाहर हो गये और इन्हें पकड़ने के लिये दौडे़। ये भी बड़े चालाक थे, पिता को गुस्से में अपनी ओर आते देखकर ये खूब जोर से घर की तरफ भागे। रास्ते में माता मिल गयीं। झट से ये उनसे जाकर लिपट गये। माता ने इन्हें गोद में उठा लिया, ये उनके अंचल से मुँह छिपाकर लम्बी-लम्बी साँसे लेने लगे। माता कहती थी- 'तू बहुत उपद्रव करता है, किसी की बात मानता ही नहीं, आज तेरे पिता तुझे खूब पीटेंगे।’ इतने में ही मिश्र जी भी आ गये, वे बाँह पकड़कर इन्हें शचीदेवी की गोद में से खींचने लगे। माता चुपचाप खड़ी थीं। इसी बीच और भी 10-5 आदमी इधर-उधर से आ गये। सभी मिश्रजी को समझाने लगे- 'अभी बच्चा है, समझता नहीं। धीरे-धीरे पढ़ने लगेगा। आपको पण्डित होकर बच्चे पर इतना गुस्सा न करना चाहिये।’

सब लोगों के समझाने पर मिश्र जी का गुस्सा शान्त हुआ। पीछे उन्हें अपने इस कृत्य पर पश्चात्ताप भी हुआ। कहते हैं, एक दिन रात्रि के समय स्वप्न में किसी महापुरुष ने इनसे कहा- 'पण्डित जी! आप अपने पुत्र को साधारण पुरुष ही न समझें। ये अलौकिक महापुरुषहैं। इनकी इस प्रकार भर्त्सना करना ठीक नहीं।’ स्वप्न में ही मिश्र जी ने उत्तर दिया- 'ये चाहे महापुरुष हों या साधारण पुरुष, जब ये हमारे यहाँ पुत्ररूप में प्रकट हुए हैं, तो हमें इनकी भर्त्सना करनी ही पड़ेगी। पिता का धर्म है कि पुत्र को शिक्षा दे। इसीलिये शिक्षा देने के निमित्त हम ऐसा करते हैं।’ दिव्य पुरुष ने फिर कहा- 'जब ये स्वयं सब कुछ सीखे हुए हैं और इन्हें अब किसी भी शास्त्र के सीखने की आवश्यकता नहीं, तब आप इन्हें व्यर्थ क्यों तंग करते हैं?’

इस पर इन्होंने कहा- ‘पिता का तो यही धर्म है, कि वह पुत्र को सदा शिक्षा ही देता रहे। फिर चाहे पुत्र कितना भी गुणी तथा शास्त्रज्ञ क्यों न हो। मैं अपने धर्म का पालन अवश्य करूँगा और आवश्यकता होने पर इनको दण्ड भी दूँगा।’ महापुरुष इनसे प्रसन्न होकर अन्तर्धान हो गये। प्रातःकाल ये इस बात पर सोचते रहे। कालान्तर में वे इस बात को भूल गये। इनकी अवस्था ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी त्यों-ही-त्यों इनकी कान्ति और भी दिव्य प्रतीत होने लगी। ये शरीर से खूब हृष्ट-पुष्ट थे। शरीर के सभी अंग सुगठित और मनोहर थे। शरीर में इतना बल था कि 4-4, 5-5 लड़के मिलकर भी इनको पराजित नहीं कर सकते थे। इनके चेहरे से चंचलता सदा छिटकती रहती। जो भी इन्हें देखता खुश हो जाता और साथ ही सचेष्ट भी हो जाता कि कहीं हमसे भी कोई चंचलता न कर बैठें। रास्ते में ये सदा कूदकर चलते

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🙏🏼🌹 हरे कृष्ण 🌹🙏🏼

|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||

🌸 🌸 चांचल्य 🌸🌸

क्रमशः से आगे .....

सीढि़यों से गंगा जी में उतरना हो तो सदा एक-दो सीढ़ी छोड़कर ही कूदते-कूदते उतरें। रास्ते में दो-चार लड़कों को खेलते देखकर ये किसी दूसरे को उनके ऊपर ढकेल देते और फिर बड़े जोरों से हँस पड़ते। गंगा-किनारे पर छोटी-छोटी कन्याएँ पूजा की सामग्री लेकर देवी तथा गंगा जी की पूजा करने जातीं। आप उनके पास पहुँच जाते और कहते- 'सब नैवेद्य हमें चढ़ाओ, हम तुम्हें मनोवान्छित वर देंगे।’ छोटी-छोटी कन्याएँ इनके अपूर्व रूप-लावण्य को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो जातीं और इन्हें बहुत-सी मिठाई खाने को देतीं। ये उन्हें वरदान देते। किसी से कहते- 'तुम्हें खूब रूपवान सुन्दर पति मिलेगा।’ किसी से कहते ’तुम्हारा विवाह  बड़े भारी धनिक के यहाँ होगा।’ किसी से कहते 'तुम्हारे पाँच बच्चे होंगे।’ किसी को सात, किसी को ग्यारह बच्चे का वरदान देते।

कन्याएँ सुनकर झूठा रोष दिखाते हुए कहतीं- 'निमाई! तू हमसे ऐसी बातें किया करेगा तो फिर हम तुझे मिठाई न देंगी।’ बहुत-सी कन्याएँ अपना नैवेद्य छिपाकर भाग जातीं तब ये उनसे हँसते-हँसते कहते- ’भले ही भाग जाओ मुझे क्या, तुम्हें काना पति मिलेगा। धनिक भी होगा तो महा कंजूस होगा। 5-5 सौत घर में होंगी, लड़की-ही-लड़की पैदा होंगी। यह सुनकर सभी लड़कियाँ हँसने लगतीं और इन्हें लौटकर मिठाई दे जातीं। किसी से कहते- हमारी पूजा करो, हम ही सबके प्रत्यक्ष देवता हैं। कभी-कभी मालाएँ उठा-उठाकर गले में डाल लेते। स्त्रियों के पास चले जाते और उन्हें पूजन करते देख कहते- 'हरि को भजे तो लड़का होय। जाति पाँति पूछै ना कोय।’ यह सुनकर स्त्रियाँ हँसने लगतीं। जो इनकी गाँव-नाते से भाभी या चाची होतीं वे इन्हें खूब तंग करतीं और खाने को मिठाई देतीं। इन्हीं लड़कियों में लक्ष्मी देवी भी पूजा करने आया करती थी। वह बड़ी ही भोली-भाली लड़की थी। निमाई के प्रति उसका स्वाभाविक ही स्नेह था। पूर्व-जन्मों के संस्कार के कारण वह निमाई को देखते ही लज्जित हो जाती और उसके हृदय में एक अपार आनन्द-स्त्रोत उमड़ने लगता। ये सब लड़कियों के साथ उसे भी देखते, किन्तु इससे कुछ भी नहीं कहते थे, न कभी इससे मिठाई ही माँगी। इसलिये लक्ष्मीदेवी की हार्दिक इच्छा थी कि कभी ये मेरा भी नैवेद्य स्वीकार करें। किन्तु बिना माँगे देने में न जाने क्यों उसे लज्जा लगती थी। एक दिन लक्ष्मीदेवी को पूजा के लिये जाती देखकर आपने उससे कहा- 'तू हमारी ही पूजा कर।’ यह सुनकर भोली-भाली कन्या बड़ी ही श्रद्धा के साथ इनकी पूजा करने लगी। छोटी-छोटी, पतली-पतली उँगलियों से काँपते हुए उसने निमाई के मस्तक पर चन्दन चढ़ाया, अक्षत लगाये, माला पहनायी, नैवेद्य समर्पण किया और हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

निमाई ने आशीर्वाद दिया- 'तुम्हें देवतुल्य रूपवान तथा गुणवान पति प्राप्त हो।’ यह सुनकर बेचारी कन्या लज्जा के मारे जमीन में गड़-सी गयी और जल्दी वहाँ से भाग आयी। कालान्तर में इन्हीं लक्ष्मीदेवी को निमाई की प्रथम धर्मपत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ये अपने साथ के सभी लड़कों में सरदार समझे जाते थे। चंचलता तो मानो इनकी नस-नस में भरी हुई थी। नटखटप ने में इनसे बढ़कर दूसरा बालक नहीं था। सभी लड़के इनसे अत्यधिक स्नेह करते, मानो ये बाल सेना के सर्वप्रधान सेनापति थे। लड़के इनका इशारा पाते ही कर्तव्य-अकर्तव्य सभी प्रकार के काम कर डालते। बालकपन से ही इनमें यह मोहिनी विद्या थी कि जो एक बार इनके साथ रह गया, वह सदा के लिये इनका गुलाम बन जाता था। इसलिये ये अपने सभी साथियेां को लेकर गंगा-किनारे भाँति-भाँति की बाल क्रीड़ाएँ करते। इन्हें स्त्री-पुरुषों को तंग करने में बड़ा मजा आता था। कभी-कभी ये बहुत से बालू के छोटे-छोटे लड्डू बनवाते। सभी की झोलियों में दस-दस, बीस-बीस लड्डू भर देते और एक ओर खडे़ हो जाते।

गंगा-स्नान करके जो भी निकलता सभी एक साथ तड़ातड़ बालू के लड्डू उनके ऊपर फेंकते और जल्दी से फेंककर भाग जाते। कभी-कभी किसी की सूखी धोती लेकर गंगा जी में डुबो देते। कभी ऐसा करते कि जहाँ दस-पाँच आदमी बैठे हुए बातें करते होते तो ये उनके पास जा बैठते और धीरे से एक के वस्त्र से दूसरे के वस्त्र को बाँध देते। जब वे स्नान करने को उठते तो एक-दूसरे को अपनी ओर खींचता। कभी-कभी वस्त्र भी फट जाता। ये अपने साथियों के साथ अलग खडे़ हुए ताली बजा-बजाकर खूब जोरों से हँसते, सभी लोग हँसने लगते, बेचारे वे लज्जित हो जाते।

कभी लड़कों के साथ घण्टों स्नान करते रहते। एक-दूसरे के ऊपर घण्टों पानी उलीचते रहते। किसी को कच्छप बनाकर आप उसके ऊपर चढ़ जाते। कभी धोती में हवा भरकर उसके साथ गंगा जी के प्रवाह की ओर बहते और कभी उस धोती के फूले हुए गुब्बारे में से हवा के बुलबुले निकालते। स्त्रियों के घाटों पर चले जाते, वहाँ पानी में बुड़की लगाकर कछुए का रूप बना लेते और स्नान करने वाली स्त्रियों के पैर डुबकी माकर पकड़ लेते। स्त्रियाँ चीत्कार मारकर बाहर निकलतीं तब ये हँसते-हँसते जल के ऊपर आते और सबसे कहते- ’देखो हम कैसे कछुए बने।’ स्त्रियाँ मधुर-मधुर भर्त्सना करतीं और कहतीं- 'जू आज घर चल, मैं तेरी माँजी से सब शिकायत करूँगी। मिश्र जी तुझे मारते-मारते ठीक कर देंगे।’ कोई कहतीं। 'इतना दंगली लड़का तो हमने कोई नहीं देखा। यह तो हद कर देता है।

क्रमशः .............



🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼

🙏🏼🌹 हरे कृष्ण 🌹🙏🏼


|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||




🌸 🌸 चांचल्य 🌸🌸
क्रमशः से आगे .....

हमारे लड़के भी तो इसने बिगाड़ दिये। वे हमारी बातें मानते ही नहीं।’ कोई कहती न जाने वीर! इस छोकरे में क्या जादू है, इतना उपद्रव करता है, फिर भी यह मुझे बहुत प्यारा लगता है’ इस बात का सभी समर्थन करतीं। स्त्रियों की ही भाँति पुरुष भी इनके भाँति-भाँति के उपद्रवों से तंग आ गये। बहुतों ने जाकर इनके पिता से शिकायत की। स्त्रियाँ भी शचीमाता के पास जा-जाकर मीठा उलाहना देने लगीं। शचीदेवी सभी की खुशामद करतीं और विनय के साथ कहतीं- 'अब मैं क्या करूँ, तुम्हारा भी तो वह लड़का है। बहुत मना करती हूँ, शैतानी नहीं छोड़ता, तुम उसे खूब पीटा करो।’ स्त्रियाँ सुनकर हँस पड़तीं और मन-ही-मन खुश होकर लौट जातीं।

एक दिन कई पण्डितों ने जाकर निमाई की मिश्र जी से शिकायत की और कहा 'अभी जाकर देख आओ तब तुम्हें पता चलेगा कि वह कितना उपद्रव करता है।’ यह सुनकर मिश्र जी गुस्से में भरकर गंगा-किनारे चले। किसी ने यह संवाद जाकर निमाई से कह दिया। निमाई जल्दी से दूसरे रास्ते होकर घर पहुँचे और अपने शरीर पर खड़ी आदि लगाकर माता से बोले- 'अम्मा! मुझे तैल दे दे मैं गंगा-स्नान कर आऊँ।’ माता ने कहा- ‘अभी तक तैंने स्नान नहीं किया क्या?’ आपने कहा ’अभी स्नान कहाँ किया। तू जल्दी से मुझे तैल और धोती दे दे।’ यह कहकर आप तैल हाथ में लेकर और धोती बगल में दबाकर गंगा जी की ओर चले। उधर मिश्र जी ने गंगा जी के किनारे जाकर बच्चों से पूछा ’यहाँ निमाई आया था क्या?’ बच्चे तो पहले से ही सिखाये-पढ़ाये हुए थे। उन्होंने कहा ’आज तो निमाई इधर आया ही नहीं।’

यह सुनकर मिश्र जी घर की ओर लौटने लगे। घर से निकलते हुए बगल में धोती दबाये निमाई मिले। मिश्र जी ने कहा- ’तू इतना दंगल क्यों किया करता है?’ आपने जोर से कहा ’न जाने क्यों लोग हमारे पीछे पड़ गये हैं? यही बात अम्मा कहती थीं कि स्त्रियाँ तेरी बहुत शिकायत करती थीं। मैं तो अभी पढ़कर आ रहा हूँ। अब तक गंगा जी की ओर गया ही नहीं। यदि ये हमारी झूठी शिकायतें आ-आकर करते हैं तो अब हम सत्य ही किया करेंगे।’ मिश्र जी चुप हो गये और ये हँसते-हँसते गंगा जी की और स्नान करने चले गये। लड़कों में जाकर अपनी चालाकी का सभी वृत्तान्त सुनाया। लड़के सुनकर खूब जोर से हँसने लगे।

इस प्रकार इनकी अवस्था 5 वर्ष की हो गयी। माता-पिता  को इनकी इस चांचल्य-वृत्ति से बहुत ही आनन्द प्राप्त होता। विश्वरूप इनसे 11-12 वर्ष बड़े थे, किन्तु वे जन्म से ही बहुत अधिक गम्भीर थे, इसलिये पिता भी उनका बहुत आदर करते थे। अब तो उनकी अवस्था 16 वर्ष की हो चली थी, इसलिये 'प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्’ अर्थात पुत्र जब 16 वर्ष का हो जाय तो उससे मित्र की भाँति व्यवहार करना चाहिये, इस सिद्धान्तानुसार मिश्र जी उनके प्रति पण्डित का-सा व्यवहार करते।

एक दिन माता ने भोजन बनाकर तैयार कर लिया, किन्तु विश्वरूप अभी तक पाठशाला से नहीं आये। वे श्री अद्वैताचार्य की पाठशाला में पढ़ते थे। आचार्य की पाठशाला मिश्र जी के घर से थोड़ी दूर गंगा जी की ओर थी। माता ने निमाई से कहा- ’बेटा निमाई! देख तेरा दादा अभी तक भोजन करने नहीं आया। जाकर उसे पाठशाला में से बुला तो ला।’ बस, इतना सुनना था कि ये नंगेवदन ही वहाँ से पाठशाला की ओर चल पड़े। शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति सूर्य के प्रकाश के साथ मिलकर झलमल-झलमल कर रही थी। गौरवर्ण शरीर पर स्वच्छ साफ धोती बड़ी ही भली मालूम पड़ती थी। निमाई  आधी धोती ओढ़े हुए थे। उनके बडे़-बड़े विकसित कमल के समान सुन्दर और स्वच्छ नेत्र मुखचन्द्र की शोभा को द्विगुणित कर रहे थे।

आचार्य के सामने हँसते-हँसते इन्होंने भाई से कहा 'दद्दा! चलो भात तैयार है, अम्मा तुम्हें बुला रही हैं।’ विश्वरूप ने निमाई को गोद में बिठा लिया और स्नेह से बोले- ’निमाई! आचार्य देव को प्रणाम करो’ यह सुनकर निमाई कुछ लजाते हुए मुसकराने लगे। वे लज्जा के कारण भाई विश्वरूप की गोद में छिपे-से जाते थे। आचार्य से आज्ञा लेकर विश्वरूप घर चलने को तैयार हुए। निमाई विश्वरूप का वस्त्र पकड़े उनके पीछे खड़े हुए थे। आचार्य ने निमाई को खूब ध्यान से देखा। आज पहले-ही-पहले उन्होंने निमाई को भलीभाँति देखा था। देखते ही उनके सम्पूर्ण शरीर में बिजली-सी दौड़ने लगी। उन्हें प्रतीत होने लगा कि मैं इतने दिन से जिन भवभयहारी जनार्दन की उपासना कर रहा हूँ, वे ही जनार्दन साकार बनकर बालक-रूप में मुझे अभय प्रदान करने आये हैं। उन्होंने मन-ही-मन निमाई के पादपद्मों में प्रणाम किया और अपने भाव को दबाते हुए बोले- 'विश्वरूप! यह तुम्हारे भाई हैं न?’

विश्वरूप ने नम्रता पूर्वक कहा- 'हाँ, आचार्य देव! यह मेरा छोटा अनुज है। बड़ा चंचल है, आपके सामने यह ऐसे चुपचाप भोले बालक की भाँति खड़ा है, आप इसे गंगा-किनारे या घर पर देखें तब पता चले कि यह कितना कौतुकी है। संसार को उलट-पलट कर डालता है। माता तो इससे तंग हो जाती हैं।’ आचार्य यह सुनकर हँसने लगे। निमाई विश्वरूप की आड़ में से छिपकर आचार्य की ओर देखने लगे। विश्वरूप का वस्त्र पकड़कर जाते-जाते दो-तीन बार निमाई ने फिर-फिर आचार्य की ओर देखा। आचार्य चेतना-शून्य-से हो गये। वे ठीक-ठीक न समझ सके कि हमारे चित्त को यह बालक हठात अपनी ओर क्यों आकर्षित कर रहा है। अन्त में ये ही आचार्य गौरांगदेव के मुख्य पार्षद हुए, जिनके द्वारा गौरांग अवतारी माने जाने लगे। इसलिये अब यह जान लेना जरूरी है कि ये अद्वैताचार्य कौन थे और इनकी पाठशाला कैसी थी?

क्रमशः .............




🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼