🙏🏼🌸 *|| हरिः शरणम् ||*🌸🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
( 17)
🌸 🌸 अद्वैताचार्य और उनकी पाठशाला 🌸🌸
क्रमशः से आगे .....
गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुस्तथा।
पापं तापं च दैन्यं च घ्नन्ति सन्तो महाशयाः।।[1]
जो आचार्य अद्वैत गौर-धर्म के प्रधान स्तम्भ हैं, गौर-लीलाओं के जो प्रथम प्रवर्तक, प्रबन्धक और संयोजक समझे जाते हैं, जिन्होंने वयोवृद्ध, विद्यावृद्ध और बुद्धिवृद्ध होने पर भी बालक गौरांग की पद-रज को अपने मस्तक का सर्वोत्तम लेपन बनाया, जिन्होंने गौरांग से पहले अवतीर्ण होकर गौर-लीला के अनुकूल वायुमण्डल बनाया, उत्तम-से-उत्तम रंगमंच तैयार किया, उस पर गौरांग को प्रधान अभिनय-कर्ता बनाकर भक्तों के साथ भाँति-भाँति की लीलाएँ करायीं और गौरांग के तिरोभाव के अनन्तर अपनी सम्पूर्ण लीलाओं का संवरण करके आप भी तिरोहित हो गये। उन अद्वैताचार्य के पूर्वज श्रीहट्ट (सिलहट) जिले में लाउड़ परगने के अन्तर्गत नवग्राम नाम के एक छोटे-से ग्राम में रहते थे। हम पहले ही बता चुके हैं कि उस समय भारत में बहुत-से छोटे-छोटे राज्य थे, जिनमें प्रायः स्वतन्त्र ही नरपति शासन करते थे। लाउड़ भी एक छोटी-सी रियासत थी। उन दिनों उस रियासत के शासनकर्ता महाराज दिव्य सिंह जी थे। महाराज परम धार्मिक तथा गुणग्राही थे। उनकी सभा में पण्डितों का बहुत सम्मान होता था। आचार्य के पूज्य पिता पण्डित कुबेर तर्कपंचानन महाराज की सभा के राज-पण्डित थे।
तर्कपंचानन महाशय न्याय के अद्वितीय विद्वान थे। उनकी विद्वत्ता की चारों ओर ख्याति थी। विद्वान होने के साथ-ही-साथ वे धनवान भी थे, किन्तु एक ही दुःख था कि उनके कोई सन्तान नहीं थी। इसी कारण वे तथा उनकी धर्मपत्नी लाभादेवी सदा चिन्तित बनी रहती थीं। लाभादेवी के गर्भ से बहुत से बच्चे हुए और वे असमय में ही इस असार संसार को त्यागकर परलोकगामी हुए। इसी कारण तर्कपंचानन महाशय अपने पुराने गाँव को छोड़कर नवद्वीप के इस पार शान्तिपुर में आकर रहने लगे। यहीं पर लाभादेवी के गर्भ रहा और यथा समय पर पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र का नाम रखा गया कमलाक्ष। ये ही कमलाक्ष आगे चलकर महाप्रभु अद्वैस के नाम से प्रसिद्ध हुए।
बालक कमलाक्ष आरम्भ से ही विनयी, चतुर, मेधावी तथा भगवत-परायण थे। उन दिनों बंगाल में शाक्त-धर्म और वाम-मार्ग का बोलबाला थ। धर्म के नाम पर लाखों मूक प्राणियों का वध किया जाता था और उसे बड़े-बड़े भट्टाचार्य और विद्यावागीशपरम धर्म मानते और बताते थे। कमलाक्ष इन कृत्यों को देखते और मन-ही-मन दुःखी होते कि भगवान कब इन लोगों को सुबुद्धि देंगे, कब इन लोगों का अज्ञान दूर होगा, जिससे कि धर्म के नाम से ये प्राणियों की हिंसा करना बंद कर दें। निर्भीक ये बालकपन से ही थे, जिस बात को सत्य समझ लेते उसे किसी के भी सामने कहने में नहीं चूकते फिर चाहे वह कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो।
एक बार की बात है कि राज्य की ओर से काली देवी की विशेष पूजा के उपलक्ष्य में एक बड़ा भारी उत्सव मनाया गया। इस समारोह में बालक कमलाक्ष भी गये। उन्होंने देखा काली माई की भेंट के लिये सैकड़ों बकरे तथा भैंसों का बलिदान किया गया है। दूर-दूर से काली माई के कीर्तन के लिये सुप्रसिद्ध कीर्तनकार बुलाये गये हैं। कमलाक्ष भी काली-मण्डप में बिना कालीमाई को प्रणाम किये जा बैठे। उनके इस व्यवहार से महाराज दिव्यसिंह को बड़ा आश्चर्य हुआ। अपनी राजसभा के एक सुप्रतिष्ठित पण्डित के पुत्र के इस अधार्मिक व्यवहार से वे क्षुब्ध-से हो गये और कहने लगे- 'कमलाक्ष! तुम देवी को बिना ही प्रणाम किये कैसे बैठ गये?’ इस पर बालक कमलाक्ष ने कुछ रोष के साथ कड़ककर कहा- 'देवी तो जगज्जननी है। सभी प्राणी उसकी सन्तान हैं। जो माता अपने पुत्रों को खाती है, वह माता नहीं राक्षसी है। पुत्र चाहे कैसा भी कुपुत्र हो किन्तु माता कुमाता कभी नहीं होती 'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।’ एक सच्चिदानन्दभगवान ही पूजनीय और वन्दनीय हैं। उनके प्रणाम करने से ही सबको प्रणाम हो जाता हे। आप लोग देवी-देवताओं के नाम से अपनी वासनाओं को पूर्ण करते हैं।’
बालक के मुख से ऐसी बात सुनकर राजा दिव्य सिंह अवाक् रहे गये। कमलाक्ष के पिता कुबेर तर्कपंचानन भी वहाँ बैठे थे, उन्होंने महाराज का पक्ष लेकर कहा- ’देवी-देवता सभी उस नारायण के ही रूप हैं।
इसलिये देवी की प्रतिमा के सम्मुख प्रणाम न करना महापाप है। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये।’ पिता की बात सुनकर कमलाक्ष निर्भीक होकर कहने लगे- 'एक जनार्दन भगवान ही की पूजा से सबकी पूजा हो सकती है, जहाँ प्राणियों की हिंसा होती हो, वह न तो देवस्थान है और न वह देवपूजा ही है।’ छोटे बालक के मुख से ऐसी बातें सुनकर सभी दर्शक आश्चर्य चकित हो गये। महाराज ने इनकी बुद्धि की बड़ी प्रशंसा की। इस प्रकार अल्पावस्था में ही इन्होंने अपनी निर्भीकता, दयालुता और वैष्णव-परायणता का परिचय दिया। धीरे-धीरे इनकी अवस्था 12-13 वर्ष की हुई। पिता के समीप पढ़ने से इनकी तृप्ति नहीं हुई। उन दिनों इनके पिता लाउड़ में ही रहते थे, ये विद्याध्ययन के निमित्त शान्तिपुर चले गये, समाचार मिलने पर इनके माता-पिता भी इनके समीप शान्तिपुर ही आ गये। यहाँ पर रहकर इन्होंने वेद-वेदांग तथा नव्य-न्याय की विशेष शिक्षा प्राप्त की। थोड़े ही दिनों में ये एक नामी पण्डित गिने जाने लगे। कालान्तर में इनके माता-पिता परलोकवासी हुए। मरते समय इनके पिता आदेश दे गये थे कि- ’हमारा गया जी में जाकर श्राद्ध अवश्य करना।’
क्रमशः ..................
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(17 )
🌸 अद्वैताचार्य और उनकी पाठशाला 🌸
क्रमशः से आगे .....
पिता की अन्तिम आज्ञा को पालन करने के निमित्त और उनकी परलोकगत आत्मा की शान्ति के निमित्त इन्होंने श्रीगया धाम की यात्रा की और वहाँ पर श्रीगदाधर भगवान के चरण चिह्नों का दर्शन करके शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पितृ श्राद्ध आदि सभी कृत्य बड़ी श्रद्धा के साथ कराये। अद्वैताचार्य अब युवा हो गये थे, भक्ति का अंकुर उनके हृदय में जन्म से ही था। विद्या ने उनके भक्तिभाव तथा प्रेम को और भी अधिक विकसित कर दिया। वे सदा जीवों के कल्याण की ही बात सोचा करते थे। संसार से उन्हें कुछ उपरामता-सी हो गयी। चित्त में वैराग्य तो पहले ही से था। अब माता-पिता के परलोक-गमन से ये निश्चिन्त हो गये। इसलिये इन्होंने भारत के प्रायः सभी मुख्य-मुख्य पुण्य-तीर्थों की यात्रा की। सेतुबन्ध रामेश्वर, शिवकांची, मदुरा आदि तीर्थों में भ्रमण करते हुए ये भगवान मध्वाचार्य के आश्रम पर पहुँचे। वहीं पर श्रीमाधवेन्द्रपुरी महाराज भी उपस्थित थे।
इन श्रीमाधवेन्द्रपुरी ने ही पहले-पहल संन्यासियों में भक्तिभाव तथा मधुर उपासना का प्रसार किया। इनके प्रसिद्ध शिष्यों में श्रीईश्वरपुरी, श्रीपरमानन्दपुरी, श्रीब्रह्मानन्दपुरी, श्रीरंगपुरी, श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि तथा श्रीरघुपति उपाध्याय विशेष उल्लेखनीय हैं। श्रीईश्वरपुरी इनके अन्तरंग तथा प्रधान शिष्य थे। इन्हें ही श्रीगौरांग के दीक्षागुरु होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रीमाधवेन्द्रपुरी अद्वैताचार्य को देखकर बड़े ही प्रसन्न हुए। उनकी शीलता, नम्रता, विद्या, भक्ति और देश के उद्धार की सच्ची लगन को देखकर पुरी महाशय गद्गद हो उठे। उन्होंने अद्वैत को छाती से लगाया और श्रीकृष्ण-मन्त्र की दीक्षा देकर इनमें नवशक्ति का संचार किया। अपने गुरुदेव के सामने भी इन्होंने अपनी मनोव्यथा कही। तब पुरी महाशय ने इन्हें आश्वासन देते हुए कहा- 'संसार की रचना उन्होंने ही की है। इस बढ़ते हुए कदाचार को वे ही भक्तभयहारी भगवान मेट सकेंगे, तुम घबड़ाओ मत।
भगवान शीघ्र ही अपने किसी विशेष रूप से अवतीर्ण होकर भक्ति का उद्धार करेंगे।’ गुरुदेव के आश्वासन से इन्हें विश्वास हो गया कि भगवान भक्तों के भय को भंजन करने के निमित्त अवश्य ही इस धराधाम पर अवतीर्ण होंगे। इसलिये ये अपने गुरुदेव की चरणरज मस्तक पर चढ़ार व्रज की यात्रा करते हुए शान्तिपुर लौट आये। श्रीअद्वैत की कुशाग्र बुद्धि और भगवत-भक्ति का श्रीमाधवेन्द्रपुरी पर प्रभाव पड़ा। जब उन्होंने गौड़देश की यत्रा की तो वे शान्तिपुर भी पधारे और कुछ काल अद्वैताचार्य के ही घर में रहे। अद्वैताचार्य नामी पण्डित होने के साथ ही धनवान भी थे। शान्तिपुर के वैष्णवों के वे ही एकमात्र आधार थे। उन दिनों शास्त्रार्थ करना ही पाण्डित्य का प्रधान गुण समझा जाता था।
वाद-विवाद में विपक्षी को पराजित करके अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करना ही उन दिनों भारी पण्डित होने का प्रमाण पत्र था। इसलिये बहुत से पण्डित अपने को दिग्विजयी बताते थे और जिसके भी पाण्डित्य की प्रशंसा सुनते उसी से शास्त्रार्थ करने को उद्यत हो जाते थे। आचार्य की ख्याति सुनकर भी एक दिग्विजयी तर्कपंचानन महाशय इनसे शास्त्रार्थ करने आये और अन्त में इनसे परास्त होकर वे इनके शिष्य बन गये। इसलिये इनकी ख्याति अब पहले से और भी अधिक हो गयी। इनके पिता के आश्रयदाता महाराज दिव्यसिंह जी भी इनकी प्रशंसा सुनकर इनके दर्शनों के लिये आये। उन्होंने इनका भक्तिभावपूर्ण पाण्डित्य देखकर अपने सफेद बालों वाला सिर इनके चरणों पर रख दिया और गद्गद कण्ठ से कहा- 'आपने अपने सम्पूर्ण कुल का उद्धार कर दिया। कृपा करके मुझे भी अपने चरणों की शरण दीजिये।’ बूढे़ राजा शाक्त होने पर भी इनके शिष्य बन गये। वे इनमें बड़ी श्रद्धा रखते थे। अन्त में उन्होंने राज-काज छोड़कर एकान्त में अपना निवास स्थान बना लिया और कृष्ण-कीर्तन करते-करते ही शेष आयु का अन्त किया। अद्वैत की बाल-लीलाओं का वे सदा गुणगान करते रहते थे। उन्होंने संस्कृत में अद्वैत की बाल लीलाओं को लिखा भी था।
श्रीमाधवेन्द्रपुरी ने इन्हें गृहस्थी बनने की आज्ञा दी। गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य करके इन्होंने नारायणपुर निवासी पण्डित नृसिंह भादुड़ी की सीता और ठकुरानी नाम की दो पुत्रियों के साथ विवाह किया और उनके साथ सुखपूर्वक समय बिताने लगे। ये बड़े ही उदार, कोमलहृदय तथा कृष्ण-कथा-प्रिय थे। भेदभाव या संकीर्णता को ये कृष्ण-भक्ति में बाधक समझते थे। उन्हीं दिनों परम भक्त हरिदास भी इनके पास आये। ये यवन-बालक थे, किन्तु थे बड़े होनहार तथा कृष्ण-भक्त, इसलिये आचार्य ने इन्हें अपने पास ही रखकर व्याकरण, गीता, भागवत आदि को पढ़ाया। ये बड़े ही समझदार थे, आचार्य के चरणों में इनकी परम श्रद्धा थी, आचार्य भी इन्हें पुत्र की तरह मानते तथा प्यार करते थे।
हरिदास आचार्य के घर में ही भोजन आदि करते थे। एक नामी पण्डित होकर अद्वैताचार्य मुसलमान-बालक को अपने घर में रखते हैं, इस बात से सभी पण्डित तथा ब्राह्मण इनका करने लगे, किन्तु इन्होंने उनकी कुछ भी परवा न की। एक दिन किसी ब्राह्मण के यहाँ श्राद्ध के समय सबसे प्रथम आचार्य ने श्राद्धान्न हरिदास के ही हाथों में दे दिया। इससे कुपित होकर पण्डितों ने इनसे कुछ बुरा-भला कहा। इन्होंने निर्भय होकर कह दिया- ’हरिदास को भोजन कराने से मैं करोड़ों ब्राह्मणों के भोजनों का माहात्म्य समझता हूँ।’ इनकी इस बात से सभी भौचक्के-से रह गये। ये कोरे पण्डित ही न थे, किन्तु क्रियावान भक्त और विचारवान भी
क्रमशः ..................87
🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼
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( 17)
🌸 🌸 अद्वैताचार्य और उनकी पाठशाला 🌸🌸
क्रमशः से आगे .....
गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुस्तथा।
पापं तापं च दैन्यं च घ्नन्ति सन्तो महाशयाः।।[1]
जो आचार्य अद्वैत गौर-धर्म के प्रधान स्तम्भ हैं, गौर-लीलाओं के जो प्रथम प्रवर्तक, प्रबन्धक और संयोजक समझे जाते हैं, जिन्होंने वयोवृद्ध, विद्यावृद्ध और बुद्धिवृद्ध होने पर भी बालक गौरांग की पद-रज को अपने मस्तक का सर्वोत्तम लेपन बनाया, जिन्होंने गौरांग से पहले अवतीर्ण होकर गौर-लीला के अनुकूल वायुमण्डल बनाया, उत्तम-से-उत्तम रंगमंच तैयार किया, उस पर गौरांग को प्रधान अभिनय-कर्ता बनाकर भक्तों के साथ भाँति-भाँति की लीलाएँ करायीं और गौरांग के तिरोभाव के अनन्तर अपनी सम्पूर्ण लीलाओं का संवरण करके आप भी तिरोहित हो गये। उन अद्वैताचार्य के पूर्वज श्रीहट्ट (सिलहट) जिले में लाउड़ परगने के अन्तर्गत नवग्राम नाम के एक छोटे-से ग्राम में रहते थे। हम पहले ही बता चुके हैं कि उस समय भारत में बहुत-से छोटे-छोटे राज्य थे, जिनमें प्रायः स्वतन्त्र ही नरपति शासन करते थे। लाउड़ भी एक छोटी-सी रियासत थी। उन दिनों उस रियासत के शासनकर्ता महाराज दिव्य सिंह जी थे। महाराज परम धार्मिक तथा गुणग्राही थे। उनकी सभा में पण्डितों का बहुत सम्मान होता था। आचार्य के पूज्य पिता पण्डित कुबेर तर्कपंचानन महाराज की सभा के राज-पण्डित थे।
तर्कपंचानन महाशय न्याय के अद्वितीय विद्वान थे। उनकी विद्वत्ता की चारों ओर ख्याति थी। विद्वान होने के साथ-ही-साथ वे धनवान भी थे, किन्तु एक ही दुःख था कि उनके कोई सन्तान नहीं थी। इसी कारण वे तथा उनकी धर्मपत्नी लाभादेवी सदा चिन्तित बनी रहती थीं। लाभादेवी के गर्भ से बहुत से बच्चे हुए और वे असमय में ही इस असार संसार को त्यागकर परलोकगामी हुए। इसी कारण तर्कपंचानन महाशय अपने पुराने गाँव को छोड़कर नवद्वीप के इस पार शान्तिपुर में आकर रहने लगे। यहीं पर लाभादेवी के गर्भ रहा और यथा समय पर पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र का नाम रखा गया कमलाक्ष। ये ही कमलाक्ष आगे चलकर महाप्रभु अद्वैस के नाम से प्रसिद्ध हुए।
बालक कमलाक्ष आरम्भ से ही विनयी, चतुर, मेधावी तथा भगवत-परायण थे। उन दिनों बंगाल में शाक्त-धर्म और वाम-मार्ग का बोलबाला थ। धर्म के नाम पर लाखों मूक प्राणियों का वध किया जाता था और उसे बड़े-बड़े भट्टाचार्य और विद्यावागीशपरम धर्म मानते और बताते थे। कमलाक्ष इन कृत्यों को देखते और मन-ही-मन दुःखी होते कि भगवान कब इन लोगों को सुबुद्धि देंगे, कब इन लोगों का अज्ञान दूर होगा, जिससे कि धर्म के नाम से ये प्राणियों की हिंसा करना बंद कर दें। निर्भीक ये बालकपन से ही थे, जिस बात को सत्य समझ लेते उसे किसी के भी सामने कहने में नहीं चूकते फिर चाहे वह कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो।
एक बार की बात है कि राज्य की ओर से काली देवी की विशेष पूजा के उपलक्ष्य में एक बड़ा भारी उत्सव मनाया गया। इस समारोह में बालक कमलाक्ष भी गये। उन्होंने देखा काली माई की भेंट के लिये सैकड़ों बकरे तथा भैंसों का बलिदान किया गया है। दूर-दूर से काली माई के कीर्तन के लिये सुप्रसिद्ध कीर्तनकार बुलाये गये हैं। कमलाक्ष भी काली-मण्डप में बिना कालीमाई को प्रणाम किये जा बैठे। उनके इस व्यवहार से महाराज दिव्यसिंह को बड़ा आश्चर्य हुआ। अपनी राजसभा के एक सुप्रतिष्ठित पण्डित के पुत्र के इस अधार्मिक व्यवहार से वे क्षुब्ध-से हो गये और कहने लगे- 'कमलाक्ष! तुम देवी को बिना ही प्रणाम किये कैसे बैठ गये?’ इस पर बालक कमलाक्ष ने कुछ रोष के साथ कड़ककर कहा- 'देवी तो जगज्जननी है। सभी प्राणी उसकी सन्तान हैं। जो माता अपने पुत्रों को खाती है, वह माता नहीं राक्षसी है। पुत्र चाहे कैसा भी कुपुत्र हो किन्तु माता कुमाता कभी नहीं होती 'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।’ एक सच्चिदानन्दभगवान ही पूजनीय और वन्दनीय हैं। उनके प्रणाम करने से ही सबको प्रणाम हो जाता हे। आप लोग देवी-देवताओं के नाम से अपनी वासनाओं को पूर्ण करते हैं।’
बालक के मुख से ऐसी बात सुनकर राजा दिव्य सिंह अवाक् रहे गये। कमलाक्ष के पिता कुबेर तर्कपंचानन भी वहाँ बैठे थे, उन्होंने महाराज का पक्ष लेकर कहा- ’देवी-देवता सभी उस नारायण के ही रूप हैं।
इसलिये देवी की प्रतिमा के सम्मुख प्रणाम न करना महापाप है। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये।’ पिता की बात सुनकर कमलाक्ष निर्भीक होकर कहने लगे- 'एक जनार्दन भगवान ही की पूजा से सबकी पूजा हो सकती है, जहाँ प्राणियों की हिंसा होती हो, वह न तो देवस्थान है और न वह देवपूजा ही है।’ छोटे बालक के मुख से ऐसी बातें सुनकर सभी दर्शक आश्चर्य चकित हो गये। महाराज ने इनकी बुद्धि की बड़ी प्रशंसा की। इस प्रकार अल्पावस्था में ही इन्होंने अपनी निर्भीकता, दयालुता और वैष्णव-परायणता का परिचय दिया। धीरे-धीरे इनकी अवस्था 12-13 वर्ष की हुई। पिता के समीप पढ़ने से इनकी तृप्ति नहीं हुई। उन दिनों इनके पिता लाउड़ में ही रहते थे, ये विद्याध्ययन के निमित्त शान्तिपुर चले गये, समाचार मिलने पर इनके माता-पिता भी इनके समीप शान्तिपुर ही आ गये। यहाँ पर रहकर इन्होंने वेद-वेदांग तथा नव्य-न्याय की विशेष शिक्षा प्राप्त की। थोड़े ही दिनों में ये एक नामी पण्डित गिने जाने लगे। कालान्तर में इनके माता-पिता परलोकवासी हुए। मरते समय इनके पिता आदेश दे गये थे कि- ’हमारा गया जी में जाकर श्राद्ध अवश्य करना।’
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🌸 अद्वैताचार्य और उनकी पाठशाला 🌸
क्रमशः से आगे .....
पिता की अन्तिम आज्ञा को पालन करने के निमित्त और उनकी परलोकगत आत्मा की शान्ति के निमित्त इन्होंने श्रीगया धाम की यात्रा की और वहाँ पर श्रीगदाधर भगवान के चरण चिह्नों का दर्शन करके शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पितृ श्राद्ध आदि सभी कृत्य बड़ी श्रद्धा के साथ कराये। अद्वैताचार्य अब युवा हो गये थे, भक्ति का अंकुर उनके हृदय में जन्म से ही था। विद्या ने उनके भक्तिभाव तथा प्रेम को और भी अधिक विकसित कर दिया। वे सदा जीवों के कल्याण की ही बात सोचा करते थे। संसार से उन्हें कुछ उपरामता-सी हो गयी। चित्त में वैराग्य तो पहले ही से था। अब माता-पिता के परलोक-गमन से ये निश्चिन्त हो गये। इसलिये इन्होंने भारत के प्रायः सभी मुख्य-मुख्य पुण्य-तीर्थों की यात्रा की। सेतुबन्ध रामेश्वर, शिवकांची, मदुरा आदि तीर्थों में भ्रमण करते हुए ये भगवान मध्वाचार्य के आश्रम पर पहुँचे। वहीं पर श्रीमाधवेन्द्रपुरी महाराज भी उपस्थित थे।
इन श्रीमाधवेन्द्रपुरी ने ही पहले-पहल संन्यासियों में भक्तिभाव तथा मधुर उपासना का प्रसार किया। इनके प्रसिद्ध शिष्यों में श्रीईश्वरपुरी, श्रीपरमानन्दपुरी, श्रीब्रह्मानन्दपुरी, श्रीरंगपुरी, श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि तथा श्रीरघुपति उपाध्याय विशेष उल्लेखनीय हैं। श्रीईश्वरपुरी इनके अन्तरंग तथा प्रधान शिष्य थे। इन्हें ही श्रीगौरांग के दीक्षागुरु होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रीमाधवेन्द्रपुरी अद्वैताचार्य को देखकर बड़े ही प्रसन्न हुए। उनकी शीलता, नम्रता, विद्या, भक्ति और देश के उद्धार की सच्ची लगन को देखकर पुरी महाशय गद्गद हो उठे। उन्होंने अद्वैत को छाती से लगाया और श्रीकृष्ण-मन्त्र की दीक्षा देकर इनमें नवशक्ति का संचार किया। अपने गुरुदेव के सामने भी इन्होंने अपनी मनोव्यथा कही। तब पुरी महाशय ने इन्हें आश्वासन देते हुए कहा- 'संसार की रचना उन्होंने ही की है। इस बढ़ते हुए कदाचार को वे ही भक्तभयहारी भगवान मेट सकेंगे, तुम घबड़ाओ मत।
भगवान शीघ्र ही अपने किसी विशेष रूप से अवतीर्ण होकर भक्ति का उद्धार करेंगे।’ गुरुदेव के आश्वासन से इन्हें विश्वास हो गया कि भगवान भक्तों के भय को भंजन करने के निमित्त अवश्य ही इस धराधाम पर अवतीर्ण होंगे। इसलिये ये अपने गुरुदेव की चरणरज मस्तक पर चढ़ार व्रज की यात्रा करते हुए शान्तिपुर लौट आये। श्रीअद्वैत की कुशाग्र बुद्धि और भगवत-भक्ति का श्रीमाधवेन्द्रपुरी पर प्रभाव पड़ा। जब उन्होंने गौड़देश की यत्रा की तो वे शान्तिपुर भी पधारे और कुछ काल अद्वैताचार्य के ही घर में रहे। अद्वैताचार्य नामी पण्डित होने के साथ ही धनवान भी थे। शान्तिपुर के वैष्णवों के वे ही एकमात्र आधार थे। उन दिनों शास्त्रार्थ करना ही पाण्डित्य का प्रधान गुण समझा जाता था।
वाद-विवाद में विपक्षी को पराजित करके अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करना ही उन दिनों भारी पण्डित होने का प्रमाण पत्र था। इसलिये बहुत से पण्डित अपने को दिग्विजयी बताते थे और जिसके भी पाण्डित्य की प्रशंसा सुनते उसी से शास्त्रार्थ करने को उद्यत हो जाते थे। आचार्य की ख्याति सुनकर भी एक दिग्विजयी तर्कपंचानन महाशय इनसे शास्त्रार्थ करने आये और अन्त में इनसे परास्त होकर वे इनके शिष्य बन गये। इसलिये इनकी ख्याति अब पहले से और भी अधिक हो गयी। इनके पिता के आश्रयदाता महाराज दिव्यसिंह जी भी इनकी प्रशंसा सुनकर इनके दर्शनों के लिये आये। उन्होंने इनका भक्तिभावपूर्ण पाण्डित्य देखकर अपने सफेद बालों वाला सिर इनके चरणों पर रख दिया और गद्गद कण्ठ से कहा- 'आपने अपने सम्पूर्ण कुल का उद्धार कर दिया। कृपा करके मुझे भी अपने चरणों की शरण दीजिये।’ बूढे़ राजा शाक्त होने पर भी इनके शिष्य बन गये। वे इनमें बड़ी श्रद्धा रखते थे। अन्त में उन्होंने राज-काज छोड़कर एकान्त में अपना निवास स्थान बना लिया और कृष्ण-कीर्तन करते-करते ही शेष आयु का अन्त किया। अद्वैत की बाल-लीलाओं का वे सदा गुणगान करते रहते थे। उन्होंने संस्कृत में अद्वैत की बाल लीलाओं को लिखा भी था।
श्रीमाधवेन्द्रपुरी ने इन्हें गृहस्थी बनने की आज्ञा दी। गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य करके इन्होंने नारायणपुर निवासी पण्डित नृसिंह भादुड़ी की सीता और ठकुरानी नाम की दो पुत्रियों के साथ विवाह किया और उनके साथ सुखपूर्वक समय बिताने लगे। ये बड़े ही उदार, कोमलहृदय तथा कृष्ण-कथा-प्रिय थे। भेदभाव या संकीर्णता को ये कृष्ण-भक्ति में बाधक समझते थे। उन्हीं दिनों परम भक्त हरिदास भी इनके पास आये। ये यवन-बालक थे, किन्तु थे बड़े होनहार तथा कृष्ण-भक्त, इसलिये आचार्य ने इन्हें अपने पास ही रखकर व्याकरण, गीता, भागवत आदि को पढ़ाया। ये बड़े ही समझदार थे, आचार्य के चरणों में इनकी परम श्रद्धा थी, आचार्य भी इन्हें पुत्र की तरह मानते तथा प्यार करते थे।
हरिदास आचार्य के घर में ही भोजन आदि करते थे। एक नामी पण्डित होकर अद्वैताचार्य मुसलमान-बालक को अपने घर में रखते हैं, इस बात से सभी पण्डित तथा ब्राह्मण इनका करने लगे, किन्तु इन्होंने उनकी कुछ भी परवा न की। एक दिन किसी ब्राह्मण के यहाँ श्राद्ध के समय सबसे प्रथम आचार्य ने श्राद्धान्न हरिदास के ही हाथों में दे दिया। इससे कुपित होकर पण्डितों ने इनसे कुछ बुरा-भला कहा। इन्होंने निर्भय होकर कह दिया- ’हरिदास को भोजन कराने से मैं करोड़ों ब्राह्मणों के भोजनों का माहात्म्य समझता हूँ।’ इनकी इस बात से सभी भौचक्के-से रह गये। ये कोरे पण्डित ही न थे, किन्तु क्रियावान भक्त और विचारवान भी
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