🙏🏼🌹 *हरे कृष्ण*🌹🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(9)
प्रेम-प्रवाह...
क्रमशः से आगे .....
अद्वैतं सुखदुःखयोरनुगतं सर्वास्ववस्थासु यद्
विश्रामो हृदयस्य यत्र जरसा यस्मिन्नहार्यो रसः।
कालेनावरणात्ययात्परिणते यत्स्नेहसारे स्थितं।
भद्रं तस्य सुमानुषस्य कथमप्येकं हि तत् प्राप्यते।।[1]
ओत-प्रोतरूप से परिप्लावित इस प्रेमपयोधिरूपी जगत में जीव अपनी क्षुद्रता के कारण ऐसे संकीर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, कि उस प्रेमपीयूष का सम्पूर्ण स्वारस्य एकदम नष्ट हो जाता है। अहा! जब सुख-दुख में समान भाव हो जाय, किसी भी अवस्था में चित्त की वृत्ति सजातीय-विजातीय का अनुभव न करने लगे, उस समय के सुख का भला क्या कहना है? ऐसा प्रेम किसी विरले ही महापुरुष के शरीर में प्रकट होता है और उनकी प्रीति के पात्र कोई बड़भागी ही सुजन होते हैं। महापुरुषों में जन्म से ही यह विश्व-विमोहन प्रेम होता है। सभी महापुरुषों के सम्बन्ध में हम चिरकाल से सुनते आ रहे हैं, कि वे जन्म से ही सभी प्राणियों में समान भाव रखते थे। महात्मा नानक जी जब बाल्यावस्था में भैंस चराने जाते तो एकान्त में बैठकर ध्यान करने लगते। बहुत-से लोगों ने प्रत्यक्ष देखा कि एक बड़ा भारी सर्प अपने फण से उनके ऊपर छाया किये रहता और जब वे ध्यान से उठते तब चला जाता। सिंहों को कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते अभी तक तपस्वियों के आश्रम में देखा गया है।
महापुरुषों के अंग में वह प्रेम की आकर्षक बिजली जन्म से ही होती है, कि पापी-से-पापी पुरुष की तो बात ही क्या है, पशु-पक्षी, कीट-पतंग तक उनके आकर्षण से खिंचकर उनके चेरे हो जाते हैं। शची देवी के छोटे से आँगन में जो दिन-रात्रि ‘हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।’ की ध्वनि गूँजती रहती है, इसका कारण निमाई की अपूर्व रूपमाधुरी ही नहीं है, किन्तु उनकी विश्वमोहिनी मन्द-मुसकान ने ही पास-पड़ोसियों की स्त्रियों को चेरी बना लिया है, उन्हें निमाई की मन्द-मुसकान के देखे बिना कल ही नहीं पड़ती। माताओं का यह सनातन स्वभाव है कि उनकी सन्तान पर जो कोई प्रेम करता है तो उनके हृदय में एक प्रकार की मीठी-मीठी गुदगुदी होती है, उनका जी चाहता है इस प्यार करने वाले पुरुष को मैं क्या दे दूँ? स्त्रियाँ निमाई को जितना ही प्यार करतीं, शची माता निमाई को उतना ही और अधिक सजातीं। मातृ-हृदय को भी ब्रह्मा जी ने एक अपूर्व पहेली बनाया है। निमाई अभी छोटा है, बहुत-से स्थानों से बालक के लिये छोटे-छोटे सिले वस्त्र और गहने आये हैं। माता ने अब निमाई को उन्हें पहनाना आरम्भ कर दिया है। एक दिन माता ने निमाई को उबटन लगाकर खूब नहवाया। तेल डालकर छोटे-छोटे घुँघराले बालों को कंघी से साफ किया। एक पीला-सा कुर्ता शरीर में पहनाया।
हाथ के कडूलों को मिट्टी से घिसकर चमकीला किया। कमर में करधनी पहनायी, उसे एक काले डोरे से बाँध भी दिया। पैरों में छोटे-छोटे कडूले पहनाये। कण्ठ में कठुला पहनाया। कई एक काले गंडे-ताबीज बच्चे की मंगल-कामना के निमित्त पहले से ही पड़े थे। बड़ी-बड़ी कमल-सी आँखों में काजल लगाया। बायीं ओर मस्तक पर एक काला-सा टिप्पा भी लगा दिया, जिससे बच्चे को नजर न लग जाय। खूब श्रृंगार करके माता बच्चे के मुख की ओर निहारने लगी। माता उस अपूर्व सौन्दर्य-माधुरी का पान करते-करते अपने आपे को भूल गयी। इतने में ही विश्वरूप ने आकर कहा- ‘अम्मा! अभी भात नहीं बनाया?’
कुछ झूठी व्यग्रता और रोब दिखाते हुए माता ने जल्दी से कहा- ‘तेरे इस छोटे भाई से मुझे फुरसत मिले तब भात भी बनाऊँ। यह तो ऐसा नटखट है कि तनिक आँख बचते ही घर से बाहर हो जाता है, फिर इसका पता लगाना ही कठिन हो जाता है।’ विश्वरूप ने कहा- ‘अच्छा ला, इसे मैं खेलाता हूँ। तू तब तक जल्दी से रन्धन कर।’ यह कह विश्वरूप ने बालक निमाई को अपनी गोद में ले लिया। माता तो दाल-चावल बनाने में व्यस्त हो गयी और विश्वरूप धूप में बैठ गये। भला विश्वरूप-जैसे विद्याव्यासंगी बालक ख़ाली कैसे बैठे रह सकते हैं? वे निमाई को पास बिठाकर पुस्तक पढ़ने लगे। पुस्तक पढ़ते-पढ़ते वे उसमें तन्मय हो गये। अब निमाई को किसका भय? धीरे से रेंग-रेंगकर आप आँगन के दूसरी ओर एकान्त में जा पहुँचे? वहाँ पर एक कोई बड़भागी सर्प देवता बैठे हुए थे। बस, निमाई को एक नूतन खिलौना मिल गया। वे उनके साथ खेलने लगे।
माता शरीर से तो दाल-भात बनाती जाती थीं, किन्तु उनका मन निमाई की ही ओर लगा हुआ था। थोड़ी देर में जब उसने दोनों भाइयों में कुछ भी बातें-चीतें न सुनीं तो विश्वरूप को सावधान करने के निमित्त उन्होंने वहीं से पूछा- ‘विश्वरूप! निमाई सो गया क्या? मानो कोई घोर निद्रा से जागकर अपने चारों ओर जगाने वाले को भौंचक्के की भाँति देखता है, उसी प्रकार पुस्तक से नजर उठाकर विश्वरूप ने कहा- ‘क्या अम्मा! क्या कहा? निमाई? निमाई तो यहाँ नहीं है।’ मानो माता के कलेजे में किसी ने गरम ठेस लगा दी हो, उनका मातृहृदय उसी समय किसी अशुभ आशंका के भय से पिघलने लगा। वे दाल-भात को वैसे ही छोड़कर जल्दी से बाहर आयीं।
क्रमशः .............
🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(9)
प्रेम-प्रवाह...
क्रमशः से आगे .....
अद्वैतं सुखदुःखयोरनुगतं सर्वास्ववस्थासु यद्
विश्रामो हृदयस्य यत्र जरसा यस्मिन्नहार्यो रसः।
कालेनावरणात्ययात्परिणते यत्स्नेहसारे स्थितं।
भद्रं तस्य सुमानुषस्य कथमप्येकं हि तत् प्राप्यते।।[1]
ओत-प्रोतरूप से परिप्लावित इस प्रेमपयोधिरूपी जगत में जीव अपनी क्षुद्रता के कारण ऐसे संकीर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, कि उस प्रेमपीयूष का सम्पूर्ण स्वारस्य एकदम नष्ट हो जाता है। अहा! जब सुख-दुख में समान भाव हो जाय, किसी भी अवस्था में चित्त की वृत्ति सजातीय-विजातीय का अनुभव न करने लगे, उस समय के सुख का भला क्या कहना है? ऐसा प्रेम किसी विरले ही महापुरुष के शरीर में प्रकट होता है और उनकी प्रीति के पात्र कोई बड़भागी ही सुजन होते हैं। महापुरुषों में जन्म से ही यह विश्व-विमोहन प्रेम होता है। सभी महापुरुषों के सम्बन्ध में हम चिरकाल से सुनते आ रहे हैं, कि वे जन्म से ही सभी प्राणियों में समान भाव रखते थे। महात्मा नानक जी जब बाल्यावस्था में भैंस चराने जाते तो एकान्त में बैठकर ध्यान करने लगते। बहुत-से लोगों ने प्रत्यक्ष देखा कि एक बड़ा भारी सर्प अपने फण से उनके ऊपर छाया किये रहता और जब वे ध्यान से उठते तब चला जाता। सिंहों को कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते अभी तक तपस्वियों के आश्रम में देखा गया है।
महापुरुषों के अंग में वह प्रेम की आकर्षक बिजली जन्म से ही होती है, कि पापी-से-पापी पुरुष की तो बात ही क्या है, पशु-पक्षी, कीट-पतंग तक उनके आकर्षण से खिंचकर उनके चेरे हो जाते हैं। शची देवी के छोटे से आँगन में जो दिन-रात्रि ‘हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।’ की ध्वनि गूँजती रहती है, इसका कारण निमाई की अपूर्व रूपमाधुरी ही नहीं है, किन्तु उनकी विश्वमोहिनी मन्द-मुसकान ने ही पास-पड़ोसियों की स्त्रियों को चेरी बना लिया है, उन्हें निमाई की मन्द-मुसकान के देखे बिना कल ही नहीं पड़ती। माताओं का यह सनातन स्वभाव है कि उनकी सन्तान पर जो कोई प्रेम करता है तो उनके हृदय में एक प्रकार की मीठी-मीठी गुदगुदी होती है, उनका जी चाहता है इस प्यार करने वाले पुरुष को मैं क्या दे दूँ? स्त्रियाँ निमाई को जितना ही प्यार करतीं, शची माता निमाई को उतना ही और अधिक सजातीं। मातृ-हृदय को भी ब्रह्मा जी ने एक अपूर्व पहेली बनाया है। निमाई अभी छोटा है, बहुत-से स्थानों से बालक के लिये छोटे-छोटे सिले वस्त्र और गहने आये हैं। माता ने अब निमाई को उन्हें पहनाना आरम्भ कर दिया है। एक दिन माता ने निमाई को उबटन लगाकर खूब नहवाया। तेल डालकर छोटे-छोटे घुँघराले बालों को कंघी से साफ किया। एक पीला-सा कुर्ता शरीर में पहनाया।
हाथ के कडूलों को मिट्टी से घिसकर चमकीला किया। कमर में करधनी पहनायी, उसे एक काले डोरे से बाँध भी दिया। पैरों में छोटे-छोटे कडूले पहनाये। कण्ठ में कठुला पहनाया। कई एक काले गंडे-ताबीज बच्चे की मंगल-कामना के निमित्त पहले से ही पड़े थे। बड़ी-बड़ी कमल-सी आँखों में काजल लगाया। बायीं ओर मस्तक पर एक काला-सा टिप्पा भी लगा दिया, जिससे बच्चे को नजर न लग जाय। खूब श्रृंगार करके माता बच्चे के मुख की ओर निहारने लगी। माता उस अपूर्व सौन्दर्य-माधुरी का पान करते-करते अपने आपे को भूल गयी। इतने में ही विश्वरूप ने आकर कहा- ‘अम्मा! अभी भात नहीं बनाया?’
कुछ झूठी व्यग्रता और रोब दिखाते हुए माता ने जल्दी से कहा- ‘तेरे इस छोटे भाई से मुझे फुरसत मिले तब भात भी बनाऊँ। यह तो ऐसा नटखट है कि तनिक आँख बचते ही घर से बाहर हो जाता है, फिर इसका पता लगाना ही कठिन हो जाता है।’ विश्वरूप ने कहा- ‘अच्छा ला, इसे मैं खेलाता हूँ। तू तब तक जल्दी से रन्धन कर।’ यह कह विश्वरूप ने बालक निमाई को अपनी गोद में ले लिया। माता तो दाल-चावल बनाने में व्यस्त हो गयी और विश्वरूप धूप में बैठ गये। भला विश्वरूप-जैसे विद्याव्यासंगी बालक ख़ाली कैसे बैठे रह सकते हैं? वे निमाई को पास बिठाकर पुस्तक पढ़ने लगे। पुस्तक पढ़ते-पढ़ते वे उसमें तन्मय हो गये। अब निमाई को किसका भय? धीरे से रेंग-रेंगकर आप आँगन के दूसरी ओर एकान्त में जा पहुँचे? वहाँ पर एक कोई बड़भागी सर्प देवता बैठे हुए थे। बस, निमाई को एक नूतन खिलौना मिल गया। वे उनके साथ खेलने लगे।
माता शरीर से तो दाल-भात बनाती जाती थीं, किन्तु उनका मन निमाई की ही ओर लगा हुआ था। थोड़ी देर में जब उसने दोनों भाइयों में कुछ भी बातें-चीतें न सुनीं तो विश्वरूप को सावधान करने के निमित्त उन्होंने वहीं से पूछा- ‘विश्वरूप! निमाई सो गया क्या? मानो कोई घोर निद्रा से जागकर अपने चारों ओर जगाने वाले को भौंचक्के की भाँति देखता है, उसी प्रकार पुस्तक से नजर उठाकर विश्वरूप ने कहा- ‘क्या अम्मा! क्या कहा? निमाई? निमाई तो यहाँ नहीं है।’ मानो माता के कलेजे में किसी ने गरम ठेस लगा दी हो, उनका मातृहृदय उसी समय किसी अशुभ आशंका के भय से पिघलने लगा। वे दाल-भात को वैसे ही छोड़कर जल्दी से बाहर आयीं।
क्रमशः .............
🙏🏼🌹 *हरे कृष्ण*🌹🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(9)
प्रेम-प्रवाह...
क्रमशः से आगे .....
अद्वैतं सुखदुःखयोरनुगतं सर्वास्ववस्थासु यद्
विश्रामो हृदयस्य यत्र जरसा यस्मिन्नहार्यो रसः।
कालेनावरणात्ययात्परिणते यत्स्नेहसारे स्थितं।
भद्रं तस्य सुमानुषस्य कथमप्येकं हि तत् प्राप्यते।।[1]
ओत-प्रोतरूप से परिप्लावित इस प्रेमपयोधिरूपी जगत में जीव अपनी क्षुद्रता के कारण ऐसे संकीर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, कि उस प्रेमपीयूष का सम्पूर्ण स्वारस्य एकदम नष्ट हो जाता है। अहा! जब सुख-दुख में समान भाव हो जाय, किसी भी अवस्था में चित्त की वृत्ति सजातीय-विजातीय का अनुभव न करने लगे, उस समय के सुख का भला क्या कहना है? ऐसा प्रेम किसी विरले ही महापुरुष के शरीर में प्रकट होता है और उनकी प्रीति के पात्र कोई बड़भागी ही सुजन होते हैं। महापुरुषों में जन्म से ही यह विश्व-विमोहन प्रेम होता है। सभी महापुरुषों के सम्बन्ध में हम चिरकाल से सुनते आ रहे हैं, कि वे जन्म से ही सभी प्राणियों में समान भाव रखते थे। महात्मा नानक जी जब बाल्यावस्था में भैंस चराने जाते तो एकान्त में बैठकर ध्यान करने लगते। बहुत-से लोगों ने प्रत्यक्ष देखा कि एक बड़ा भारी सर्प अपने फण से उनके ऊपर छाया किये रहता और जब वे ध्यान से उठते तब चला जाता। सिंहों को कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते अभी तक तपस्वियों के आश्रम में देखा गया है।
महापुरुषों के अंग में वह प्रेम की आकर्षक बिजली जन्म से ही होती है, कि पापी-से-पापी पुरुष की तो बात ही क्या है, पशु-पक्षी, कीट-पतंग तक उनके आकर्षण से खिंचकर उनके चेरे हो जाते हैं। शची देवी के छोटे से आँगन में जो दिन-रात्रि ‘हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।’ की ध्वनि गूँजती रहती है, इसका कारण निमाई की अपूर्व रूपमाधुरी ही नहीं है, किन्तु उनकी विश्वमोहिनी मन्द-मुसकान ने ही पास-पड़ोसियों की स्त्रियों को चेरी बना लिया है, उन्हें निमाई की मन्द-मुसकान के देखे बिना कल ही नहीं पड़ती। माताओं का यह सनातन स्वभाव है कि उनकी सन्तान पर जो कोई प्रेम करता है तो उनके हृदय में एक प्रकार की मीठी-मीठी गुदगुदी होती है, उनका जी चाहता है इस प्यार करने वाले पुरुष को मैं क्या दे दूँ? स्त्रियाँ निमाई को जितना ही प्यार करतीं, शची माता निमाई को उतना ही और अधिक सजातीं। मातृ-हृदय को भी ब्रह्मा जी ने एक अपूर्व पहेली बनाया है। निमाई अभी छोटा है, बहुत-से स्थानों से बालक के लिये छोटे-छोटे सिले वस्त्र और गहने आये हैं। माता ने अब निमाई को उन्हें पहनाना आरम्भ कर दिया है। एक दिन माता ने निमाई को उबटन लगाकर खूब नहवाया। तेल डालकर छोटे-छोटे घुँघराले बालों को कंघी से साफ किया। एक पीला-सा कुर्ता शरीर में पहनाया।
हाथ के कडूलों को मिट्टी से घिसकर चमकीला किया। कमर में करधनी पहनायी, उसे एक काले डोरे से बाँध भी दिया। पैरों में छोटे-छोटे कडूले पहनाये। कण्ठ में कठुला पहनाया। कई एक काले गंडे-ताबीज बच्चे की मंगल-कामना के निमित्त पहले से ही पड़े थे। बड़ी-बड़ी कमल-सी आँखों में काजल लगाया। बायीं ओर मस्तक पर एक काला-सा टिप्पा भी लगा दिया, जिससे बच्चे को नजर न लग जाय। खूब श्रृंगार करके माता बच्चे के मुख की ओर निहारने लगी। माता उस अपूर्व सौन्दर्य-माधुरी का पान करते-करते अपने आपे को भूल गयी। इतने में ही विश्वरूप ने आकर कहा- ‘अम्मा! अभी भात नहीं बनाया?’
कुछ झूठी व्यग्रता और रोब दिखाते हुए माता ने जल्दी से कहा- ‘तेरे इस छोटे भाई से मुझे फुरसत मिले तब भात भी बनाऊँ। यह तो ऐसा नटखट है कि तनिक आँख बचते ही घर से बाहर हो जाता है, फिर इसका पता लगाना ही कठिन हो जाता है।’ विश्वरूप ने कहा- ‘अच्छा ला, इसे मैं खेलाता हूँ। तू तब तक जल्दी से रन्धन कर।’ यह कह विश्वरूप ने बालक निमाई को अपनी गोद में ले लिया। माता तो दाल-चावल बनाने में व्यस्त हो गयी और विश्वरूप धूप में बैठ गये। भला विश्वरूप-जैसे विद्याव्यासंगी बालक ख़ाली कैसे बैठे रह सकते हैं? वे निमाई को पास बिठाकर पुस्तक पढ़ने लगे। पुस्तक पढ़ते-पढ़ते वे उसमें तन्मय हो गये। अब निमाई को किसका भय? धीरे से रेंग-रेंगकर आप आँगन के दूसरी ओर एकान्त में जा पहुँचे? वहाँ पर एक कोई बड़भागी सर्प देवता बैठे हुए थे। बस, निमाई को एक नूतन खिलौना मिल गया। वे उनके साथ खेलने लगे।
माता शरीर से तो दाल-भात बनाती जाती थीं, किन्तु उनका मन निमाई की ही ओर लगा हुआ था। थोड़ी देर में जब उसने दोनों भाइयों में कुछ भी बातें-चीतें न सुनीं तो विश्वरूप को सावधान करने के निमित्त उन्होंने वहीं से पूछा- ‘विश्वरूप! निमाई सो गया क्या? मानो कोई घोर निद्रा से जागकर अपने चारों ओर जगाने वाले को भौंचक्के की भाँति देखता है, उसी प्रकार पुस्तक से नजर उठाकर विश्वरूप ने कहा- ‘क्या अम्मा! क्या कहा? निमाई? निमाई तो यहाँ नहीं है।’ मानो माता के कलेजे में किसी ने गरम ठेस लगा दी हो, उनका मातृहृदय उसी समय किसी अशुभ आशंका के भय से पिघलने लगा। वे दाल-भात को वैसे ही छोड़कर जल्दी से बाहर आयीं।
क्रमशः .............
🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼
🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼