🙏🏼🌹 हरे कृष्ण 🌹🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(15)
🌸 🌸 बाल-लीला 🌸🌸
क्रमशः से आगे .....
भगवान ने हँसते हुए कहा ‘तुम मुझे बुलाते थे, मैं बालकरूप में तुम्हारे पास आता था, तुमने मुझे पहचाना नहीं। मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे अपना अभीष्ट वर माँगो।’ गद्गद कण्ठ से हाथ जोड़ते हुए ब्राह्मण ने धीरे-धीरे कहा- ‘हे पुरुषोत्तम! आपकी माया अनन्त है, भला मैं क्षुद्र प्राणी उसे कैसे समझ सकता हूँ? हे निरंजन! मुझ अज्ञानी के ऊपर आपने इतनी कृपा की, मैं तो अपने को इसके सर्वथा अयोग्य समझता हूँ।
भगवन! मैंने न कोई तप किया, न कभी ध्यान किया, जप, दान, धर्म, पूजा, पाठ मैंने आपकी प्रसन्नता के निमित्त कुछ भी तो नहीं किया। फिर भी मुझ दीन-हीन कंगाल पर आपने इतनी कृपा की, इसे मैं आपकी स्वाभाविक करुणा ही समझता हूँ। मेरा कोई ऐसा साधन तो नहीं था, जिससे आपके दर्शन हो सकें। हे नाथ! यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो यही वरदान दीजिये कि आपकी मंजुल मूर्ति मेरे मन-मन्दिर में सदा बनी रहे।’ ‘एवमस्तु’ कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये। ब्राह्मण ने बड़े ही आनन्द और उल्लास के साथ भोजन किया। इतने में ही माता आदि की आँखें खुलीं। निमाई को पास ही सोता देखकर उन्हें प्रसन्नता हुई। जब देखा कि ब्राह्मण भी बड़े प्रेम से प्रसाद पाकर निवृत्त हो गये हैं तब तो उन्हें परम सन्तोष हुआ।
प्रातःकाल ब्राह्मण देवता निमाई को मन-ही-मन प्रणाम करके चले गये और जब तक वे रहे नित्यप्रति किसी-न-किसी समय आकर निमाई के दर्शन कर जाते थे। ऐसे बड़भागी भक्तों के दर्शन सद्गृहस्थियों को ही कभी-कभी होते हैं। निमाई अब थोड़ा-थोड़ा बोलने भी लगे थे। स्त्रियाँ खिलाते-खिलाते कहतीं- ‘निमाई! तू ब्राह्मण का बालक होकर भिखारी ब्राह्मण के हाथ के चावल खा लेता है, अब तेरी जाति कहाँ रही? तेरा विवाह भी न होगा। बहू भी न आवेगी। बेटा! ऐसे किसी के हाथ के चावल नहीं खाये जाते। देख, ब्राह्मण के बालक खूब पवित्रता से रहते हैं। तू अच्छी तरह से रहेगा, उपद्रव न करेगा तो तेरी बटुआ-सी बहू आवेगी, रून-झुन करती हुई घर में घूमेगी। अब तो ऐसी बदमाशी न करेगा?’ निमाई धीरे-धीरे कहने लगते- ‘हमें ब्राह्मणपने से क्या? हम तो ग्वाल-बाल हैं। ग्वालों की ही तरह जहाँ मिल जाता है खा लेते हैं। लाओ तुम्हारे घर का खा लें।’ यह सुनकर सभी हँसने लगती। और निमाई को सन्देश (मिठाई) आदि चीजें खाने को देतीं।
🌸🌸 चांचल्य 🌸🌸
किं मिष्टं सुतवचनं मिष्टतरं किं तदेव सुतवचनम्।
मिष्टान्मिष्टतमं किं श्रुतिपरिपक्वं सदेव सुतवचनम्।।[1]
इतनी चंचलता करने पर भी मिश्र-दम्पति का प्रेम निमाई के प्रति अधिकाधिक बढ़ता ही जाता था। यही नहीं, किन्तु निमाई की चंचलता में माता-पिता को एक अपूर्व आनन्द आता था। मिश्र जी तो मनुष्य स्वभाव के कारण कभी-कभी बहुत चंचलता से ऊब कर नाराज भी हो जाते, किन्तु माता का हृदय तो सदा बच्चे की बातें सुनने के लिये छटपटाता ही रहता। सच है, बच्चे की बोली में मोहिनी विद्या है। संसार में बच्चे की तोतली बोली से बढ़कर बहुमूल्य वस्तु मिल ही नहीं सकती। देखा गया है, प्रायः माता का सबसे छोटी सन्तान पर बहुत अधिक ममत्व होता है। निमाई मिश्र जी की वृद्धावस्था में उत्पन्न हुए थे, इसीलिये उनका भी इनके प्रति आवश्यकता से अधिक स्नेह था। इतनी चंचलता करने पर भी मिश्र जी उन्हें बहुत अधिक डाँटते-फटकारते नहीं थे। इसलिये ये मिश्र जी के सामने भी चंचलता करने में नहीं चूकते थे। सबसे अधिक तो ये माता के सामने उपद्रव करते। माता के सामने इन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता था।
पिता के सामने थोड़ा संकोच करते और भाई विश्वरूप के सामने तो ये कभी भी उपद्रव नहीं करते थे, उनसे तो ये बहुत ही अधिक संकोच करते थे। विश्वरूप भी इनसे अत्यधिक स्नेह करते, किन्तु वह स्नेह अव्यक्त होता था। प्रायः वे अपने प्रेम को लोगों के सामने प्रकट नहीं करते थे। निमाई भी उनका मन-ही-मन बहुत आदर करते थे। उनके आते ही भोले-भाले बालक की तरह चुपचाप बैठ जाते या बाहर उठ जाते। अब ये पिता जी के साथ गंगा-स्नान करने को भी जाने लगे। विश्वरूप सबकी धोती, तैल और भीगे आँवले लेकर आगे-आगे चलते और मिश्र जी उनके पीछे होते। निमाई कभी तो पिता जी की उँगली पकड़कर चलते और कभी भाई का वस्त्र पकड़े हुए चलते। रास्ते में चलते हुए इधर-उधर देखते जाते। पिता जी से भाँति-भाँति के ऊटपटाँग प्रश्न भी करते जाते।
मिश्र जी किसी का तो उत्तर दे देते और किसी को टाल देते। कभी-कभी आप दोनों से अलग होकर चलते। इस पर विश्वरूप इन्हें बुलाकर झट से गोद में ले लेते। गंगा-स्नान करके मिश्र जी तथा विश्वरूप सन्ध्या-वन्दन करते, ये भी बैठकर उनकी नकल करते। जैसे वे लोग जल छिड़कते, ये भी जल छिड़कते, जब वे आचमन करते, ये भी आचमन करते तथा सूर्य को अर्घ देने पर ये भी खड़े होकर सूर्य को अर्घ देते। कभी-कभी तैल लगाकर स्नान करने के अनन्तर फिर आप बालू में लोट जाते। पिता फिर से इन्हें स्नान कराते। घर आकर ये सब बातें अपनी माता से कहते। स्त्रियाँ पूछतीं- 'बेटा! अच्छा तुमने सन्ध्या कैसे की?’ तब आप पद्मासन लगाकर बैठ जाते और आँखे बंद कर धीरे-धीरे ओष्ठ हिलाने लगते। कभी-कभी नाक बंद करके प्राणायाम का अभिनय करते।
क्रमशः .............
🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(15)
🌸 🌸 बाल-लीला 🌸🌸
क्रमशः से आगे .....
भगवान ने हँसते हुए कहा ‘तुम मुझे बुलाते थे, मैं बालकरूप में तुम्हारे पास आता था, तुमने मुझे पहचाना नहीं। मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे अपना अभीष्ट वर माँगो।’ गद्गद कण्ठ से हाथ जोड़ते हुए ब्राह्मण ने धीरे-धीरे कहा- ‘हे पुरुषोत्तम! आपकी माया अनन्त है, भला मैं क्षुद्र प्राणी उसे कैसे समझ सकता हूँ? हे निरंजन! मुझ अज्ञानी के ऊपर आपने इतनी कृपा की, मैं तो अपने को इसके सर्वथा अयोग्य समझता हूँ।
भगवन! मैंने न कोई तप किया, न कभी ध्यान किया, जप, दान, धर्म, पूजा, पाठ मैंने आपकी प्रसन्नता के निमित्त कुछ भी तो नहीं किया। फिर भी मुझ दीन-हीन कंगाल पर आपने इतनी कृपा की, इसे मैं आपकी स्वाभाविक करुणा ही समझता हूँ। मेरा कोई ऐसा साधन तो नहीं था, जिससे आपके दर्शन हो सकें। हे नाथ! यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो यही वरदान दीजिये कि आपकी मंजुल मूर्ति मेरे मन-मन्दिर में सदा बनी रहे।’ ‘एवमस्तु’ कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये। ब्राह्मण ने बड़े ही आनन्द और उल्लास के साथ भोजन किया। इतने में ही माता आदि की आँखें खुलीं। निमाई को पास ही सोता देखकर उन्हें प्रसन्नता हुई। जब देखा कि ब्राह्मण भी बड़े प्रेम से प्रसाद पाकर निवृत्त हो गये हैं तब तो उन्हें परम सन्तोष हुआ।
प्रातःकाल ब्राह्मण देवता निमाई को मन-ही-मन प्रणाम करके चले गये और जब तक वे रहे नित्यप्रति किसी-न-किसी समय आकर निमाई के दर्शन कर जाते थे। ऐसे बड़भागी भक्तों के दर्शन सद्गृहस्थियों को ही कभी-कभी होते हैं। निमाई अब थोड़ा-थोड़ा बोलने भी लगे थे। स्त्रियाँ खिलाते-खिलाते कहतीं- ‘निमाई! तू ब्राह्मण का बालक होकर भिखारी ब्राह्मण के हाथ के चावल खा लेता है, अब तेरी जाति कहाँ रही? तेरा विवाह भी न होगा। बहू भी न आवेगी। बेटा! ऐसे किसी के हाथ के चावल नहीं खाये जाते। देख, ब्राह्मण के बालक खूब पवित्रता से रहते हैं। तू अच्छी तरह से रहेगा, उपद्रव न करेगा तो तेरी बटुआ-सी बहू आवेगी, रून-झुन करती हुई घर में घूमेगी। अब तो ऐसी बदमाशी न करेगा?’ निमाई धीरे-धीरे कहने लगते- ‘हमें ब्राह्मणपने से क्या? हम तो ग्वाल-बाल हैं। ग्वालों की ही तरह जहाँ मिल जाता है खा लेते हैं। लाओ तुम्हारे घर का खा लें।’ यह सुनकर सभी हँसने लगती। और निमाई को सन्देश (मिठाई) आदि चीजें खाने को देतीं।
🌸🌸 चांचल्य 🌸🌸
किं मिष्टं सुतवचनं मिष्टतरं किं तदेव सुतवचनम्।
मिष्टान्मिष्टतमं किं श्रुतिपरिपक्वं सदेव सुतवचनम्।।[1]
इतनी चंचलता करने पर भी मिश्र-दम्पति का प्रेम निमाई के प्रति अधिकाधिक बढ़ता ही जाता था। यही नहीं, किन्तु निमाई की चंचलता में माता-पिता को एक अपूर्व आनन्द आता था। मिश्र जी तो मनुष्य स्वभाव के कारण कभी-कभी बहुत चंचलता से ऊब कर नाराज भी हो जाते, किन्तु माता का हृदय तो सदा बच्चे की बातें सुनने के लिये छटपटाता ही रहता। सच है, बच्चे की बोली में मोहिनी विद्या है। संसार में बच्चे की तोतली बोली से बढ़कर बहुमूल्य वस्तु मिल ही नहीं सकती। देखा गया है, प्रायः माता का सबसे छोटी सन्तान पर बहुत अधिक ममत्व होता है। निमाई मिश्र जी की वृद्धावस्था में उत्पन्न हुए थे, इसीलिये उनका भी इनके प्रति आवश्यकता से अधिक स्नेह था। इतनी चंचलता करने पर भी मिश्र जी उन्हें बहुत अधिक डाँटते-फटकारते नहीं थे। इसलिये ये मिश्र जी के सामने भी चंचलता करने में नहीं चूकते थे। सबसे अधिक तो ये माता के सामने उपद्रव करते। माता के सामने इन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता था।
पिता के सामने थोड़ा संकोच करते और भाई विश्वरूप के सामने तो ये कभी भी उपद्रव नहीं करते थे, उनसे तो ये बहुत ही अधिक संकोच करते थे। विश्वरूप भी इनसे अत्यधिक स्नेह करते, किन्तु वह स्नेह अव्यक्त होता था। प्रायः वे अपने प्रेम को लोगों के सामने प्रकट नहीं करते थे। निमाई भी उनका मन-ही-मन बहुत आदर करते थे। उनके आते ही भोले-भाले बालक की तरह चुपचाप बैठ जाते या बाहर उठ जाते। अब ये पिता जी के साथ गंगा-स्नान करने को भी जाने लगे। विश्वरूप सबकी धोती, तैल और भीगे आँवले लेकर आगे-आगे चलते और मिश्र जी उनके पीछे होते। निमाई कभी तो पिता जी की उँगली पकड़कर चलते और कभी भाई का वस्त्र पकड़े हुए चलते। रास्ते में चलते हुए इधर-उधर देखते जाते। पिता जी से भाँति-भाँति के ऊटपटाँग प्रश्न भी करते जाते।
मिश्र जी किसी का तो उत्तर दे देते और किसी को टाल देते। कभी-कभी आप दोनों से अलग होकर चलते। इस पर विश्वरूप इन्हें बुलाकर झट से गोद में ले लेते। गंगा-स्नान करके मिश्र जी तथा विश्वरूप सन्ध्या-वन्दन करते, ये भी बैठकर उनकी नकल करते। जैसे वे लोग जल छिड़कते, ये भी जल छिड़कते, जब वे आचमन करते, ये भी आचमन करते तथा सूर्य को अर्घ देने पर ये भी खड़े होकर सूर्य को अर्घ देते। कभी-कभी तैल लगाकर स्नान करने के अनन्तर फिर आप बालू में लोट जाते। पिता फिर से इन्हें स्नान कराते। घर आकर ये सब बातें अपनी माता से कहते। स्त्रियाँ पूछतीं- 'बेटा! अच्छा तुमने सन्ध्या कैसे की?’ तब आप पद्मासन लगाकर बैठ जाते और आँखे बंद कर धीरे-धीरे ओष्ठ हिलाने लगते। कभी-कभी नाक बंद करके प्राणायाम का अभिनय करते।
क्रमशः .............
🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼