श्री चैतन्य चरित्रामृतम

Saturday 27 April 2019

श्री चैतन्य चरित्रमृतम कथा क्रमांक 14 shri chetanya charitra amritam katha karmank 14

🙏🏼🌹 हरे कृष्ण 🌹🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(14)



🌸 🌸 बाल-लीला 🌸🌸
क्रमशः से आगे .....

ब्राह्मण एकदम चौंक उठा और जोर से कहने लगा- ‘अरे, यह क्या हो गया?’ इतना सुनते ही निमाई भयभीत की भाँति वहाँ से भागने लगे। हाय-हाय करके मिश्र जी दौड़े। कोलाहल सुनकर शचीदेवी भी वहाँ आ गयीं। मिश्र जी बालक निमाई को मारने के लिये दौडे़। निमाई जल्दी से जाकर माता के पैरों में लिपट गये। इतने में ही ब्राह्मण दौडे़ आये। उन्होंने आकर मिश्र जी को पकड़ लिया और बड़े प्रेम से कहने लगे- ‘आप तो पण्डित हैं, सब जानते हैं। भला बच्चे को चौके-चूल्हे का क्या ज्ञान? इसके ऊपर आप गुस्सा न करें। भोजन की क्या बात है? थोड़ा चना-चर्वण खाकर जल पी लूँगा।’ सभी को बड़ा दुःख हुआ।

आस-पास के दो-चार और भी ब्राह्मण वहाँ आ गये। सभी ने मिलकर ब्राह्मण से फिर भोजन बनाने की प्रार्थना की। सभी की बात को ब्राह्मण टाल न सके और वे दूसरी बार भोजन बनाने को राजी हो गये। शचीदेवी ने जल्दी से फिर चौका लगाया, ब्राह्मण देवता स्नान करके रसोई बनाने लगे। अब के बनाते-बनाते चार-पाँच बज गये। शची देवी ने निमाई को पलभर के लिये भी इधर-उधर नहीं जाने दिया। संयोग की बात, माता किसी काम से थोड़ी देर के लिये भीतर चली गयी। उसी समय ब्राह्मण ने रसोई तैयार करके भगवान के अर्पण की। वे आँख बंद करके ध्यान कर ही रहे थे कि उन्हें फिर खटपट-सी मालूम हुई। आँख खोलकर देखते हैं, तो निमाई फिर दोनों हाथों से चावल उठा-उठाकर खा रहे हैं और दाल को अपने शरीर से मल रहे हैं। इतने में ही माता  भीतर से आ गयी। निमाई को वहाँ न देखकर वह दौड़कर ब्राह्मण की ओर गयी। वहाँ दाल से सने हुए निमाई को दोनों हाथों से भात खाते हुए देखकर वे हाय-हाय करने लगीं।

मिश्र जी भी पास ही थे। अबके वे अपने गुस्से को न रोक सके। बालक को जाकर पकड़ लिया। वे उसको तमाचा मारने को ही थे कि ब्राह्मण ने जाकर उनका हाथ पकड़ लिया और विनती करके कहने लगे 'आपको मेरी शपथ है जो बच्चे पर हाथ उठावें। भला, अबोध बालक को क्या पता? रहने दीजिये, आज भाग्य में भोजन बदा ही नहीं है।’ निमाई डरे हुए माता की गोदी में चुपचाप चिपटे हुए थे, बीच-बीच में पिता की ओर छिपकर देख भी लेते कि उनका गुस्सा अभी शान्त हुआ या नहीं। माता को उनकी डरी हुई भोली-भाली सूरत पर बड़ी दया आ रही थी। इसलिये वे कुछ भी न कहर चुपचाप उन्हें गोद में लिये खड़ी थीं।

ब्राह्मण के आने के पूर्व ही विश्वरूप भोजन करके पाठशाला में पढ़ने के लिये चले गये थे। उसी समय वे भी लौट आये। आकर उन्होंने अतिथि ब्राह्मण के चरणों को स्पर्श करके प्रणाम किया और चुपचाप एक ओर खड़े हो गये। उनके सौन्दर्य, तेज और ओज को देखकर ब्राह्मण ने मिश्र जी से पूछा- ‘यह देवकुमार के समान तेजस्वी बालक किसका है?’ कुछ लजाते हुए मिश्र जी ने कहा- ’यह आपका ही है।’ ब्राह्मण एकटक विश्वरूप की ओर देखने लगा। विश्वरूप के विश्वविमोहन रूप के देखने से ब्राह्मण की तृप्ति ही नहीं होती थी। धीरे-धीरे विश्वरूप को सभी बातों का पता चल गया। उन्होंने ब्राह्मण देवता के सामने हाथ जोड़कर कहा- ‘महाराज! अबकी बार आप मेरे आग्रह से भोजन और बना लें। अबके मैं अपने ऊपर जिम्मेवारी लेता हूँ। अबकी बार आपको भोजन पाने तक में किसी भी प्रकार का विघ्न न होगा।’

ब्राह्मण ने बड़े ही प्रेम से विश्वरूप को पुचकारते हुए कहा- ‘भैया! तुम मेरी तनिक भी चिन्ता न करो। मेरी कुछ एक ही दिन की बात थोड़े ही है। मैं तो सदा ऐसे ही घूमता रहता हूँ। मुझे रोज-रोज भोजन बनाने का अवसर कहाँ मिलता है? कभी-कभी तो महीनों वन के कन्द-मूल फलों पर ही रहना पड़ता है। बहुत दिन चना-चर्वण पर ही गुजर होती है, कभी-कभी उपवास भी करना पड़ता है। इसलिये मुझे तो इसका अभ्यास है। तुम्हारे यहाँ कुछ मीठा या चना-चर्वण हो तो मुझे दे दो उसे ही पाकर जल पी लूँगा। अब कल देखी जायगी।’

विश्वरूप ने बड़ी नम्रता से दीनता प्रकट करते हुए कहा- ‘महाराज! यह तो हम आपके स्वभाव से ही जानते हैं कि आपको स्वयं किसी बात की इच्छा नहीं। किन्तु आपके भोजन करने से ही हम सबको सन्तोष होगा। मेरे पूज्य पिता जी तथा माता जी बहुत ही दुःखी हैं। इनका साहस ही नहीं हो रहा है कि आपसे पुनः प्रार्थना करें। इन सबको तभी सन्तोष हो सकेगा जब आप स्वयं बनाकर फिर भोजन करें। अपने लिये नहीं किन्तु हमारी प्रसन्नता के निमित्त आप भोजन बनावें।’ विश्वरूप की वाणी में प्रेम था, उनके आग्रह में आकर्षण था ओर उनकी विनय में मोहकता थी। ब्राह्मण फिर कुछ भी न कह सके। उन्होंने पुनः भोजन बनाना आरम्भ कर दिया। अबके निमाई को रस्सी से बाँधकर माता तथा विश्वरूप ने अपने पास ही सुला लिया। ब्राह्मण को भोजन बनाने में बहुत रात्रि हो गयी। दैव की गति उसी समय सबको निद्रा आ गयी।
ब्राह्मण ने भोजन बनाकर ज्यों ही भगवान के अपर्ण किया त्यों ही साक्षात चतुर्भुज भगवान उनके सामने आ उपस्थित हुए। देखते-ही-देखते उनके चार की जगह आठ भुजाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और पद्म विराजमान थे। एक में माखन रखा था। दूसरे से खा रहे थे। शेष दो हाथों से मुरली बजा रहे थे।

क्रमशः .............



🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼