श्री चैतन्य चरित्रामृतम

Friday, 26 April 2019

श्री चैतन्य चरित्रमृतम कथा क्रमांक 11 shri chaitany charitra amritam katha kramank 11

🙏🏼🌹 *हरे कृष्ण*🌹🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(11)
अलौकिक बालक...
क्रमशः से आगे .....

स्वगर्भशुक्तिनिर्भिन्नं सुवृत्तं सुतमौक्तिकम्।
वंशश्रीतिलकीभूतं मन्दभाग्यस्य दुर्लभम्।।[1]

शची-रूपी सीपी के भाग्य की सराहना कौन कर सकता है, जिसमें निमाई के समान संसार को सुख-शान्ति प्रदान करने वाला बहुमूल्य मोती पैदा हुआ? शची की समझ में स्वयं नहीं आता था कि यह बालक कैसा है? इसकी सभी बातें दिव्य हैं, सभी चेष्टाएँ अलौकिक हैं। देखने में तो यह बालक-सा प्रतीत होता है, किन्तु बातें ऐसी करता है कि अच्छे-अच्छे समझदार भी उन्हें सरलतापूर्वक नहीं समझ सकते। कभी तो उसे भ्रम होता और सोचने लगती यह कोई छद्म-वेष बनाये महापुरुष या देवता मेरे यहाँ क्रीड़ा कर रहे हैं और कभी-कभी मातृस्नेह के कारण सब कुछ भूल जातीं।

एक दिन माता ने देखा कि घर में बड़े जोरों का प्रकाश हो रहा है। बहुत-से तेजपूर्ण दिव्य-दिव्य पुरुष निमाई की पूजा  और स्तुति कर रहे हैं। यह देखकर माता को बड़ा भय मालूम हुआ। वे जल्दी से घर के भीतर गयीं। वहाँ जाकर उन्होंने देखा निमाई सुखपूर्वक शयन कर रहे हैं। यह बात शची देवी ने अपने पति पण्डित जगन्नाथ मिश्र से कही। मिश्र जी ने कहा- ‘हम तो पहले से ही जानते थे, यह बालक कोई साधारण पुरुष नहीं है।’ इसी प्रकार एक दिन आँगन में ध्वजा, वज्र, कुश आदि शुभ चिह्नों से चिह्नित छोटे-छोटे पैरों को देखकर शची देवी विस्मित हो गयीं। उन्होंने वे चरणचिह्न मिश्र जी को भी दिखाये। भाग्यवान दम्पती ने उन चरणों की धूलि अपने मस्तक पर चढ़ायी।

मिश्र जी कहने लगे- ‘मालूम पड़ता है, घर के बालगोपाल ठाकुर सशरीर आँगन में घूमते हैं। यह हम लोगों का परम सौभाग्य है।’ इतने में ही उन्होंने निमाई के छोटे-छोटे पैरों में भी वे ही चिह्न देखे। मिश्र जी पण्डित नीलाम्बर चक्रवर्ती को बुलाकर लाये और निमाई के हाथ तथा पैरों की रेखा उन्हें दिखायी। सब देखकर चक्रवर्ती महाशय बोले- ‘हमने उसी दिन जन्मकुण्डली ही देखकर कह दिया था कि यह बालक कोई साधारण बालक नहीं है। भविष्य में इसके द्वारा संसार का बहुत कल्याण होगा।’ एक दिन मिश्र जी ने निमाई से कहा- ‘बेटा! भीतर से पुस्तक तो ले आ।’ निमाई हँसते हुए भीतर चले गये। मिश्र जी को ऐसा प्रतीत हुआ मानो नूपुर की सुमधुर ध्वनि निमाई के पैरों में से होती जा रही है। उन्होंने शची देवी जी से पूछा- ‘निमाई को नूपुर तुमने पहना दिये हैं क्या?’ शची देवी ने उत्तर दिया- ‘नहीं तो, नूपुर तो मैंने नहीं पहनाये। देखते नहीं हो। उसके पैरों में सिवाय कडूलों के और कुछ भी नहीं है।’ मिश्र जी सब समझकर चुप हो गये। निमाई पुस्तक रखकर चले गये।

एक दिन ये अपनी माता से किसी बात पर झगड़ बैठे। चंचल तो ये थे ही, किसी बात पर अड़ गये। माता ने बहुत मनाया, नहीं माने, तब माता रोष में भरकर बाहर जाने लगी। इन्होंने अपने कोमल करों से माता पर थोड़ा प्रहार किया। माता का हृदय भर आया। उन्हें निमाई की अलौकिक लीलाएँ और उनकी लोकोत्तर सभी बातें स्मरण होने लगीं। वे अपने भाग्य की सराहना करने लगीं। इसी बीच में उन्हें अपनी दरिद्रावस्था का भी स्मरण हो आया। दुःख के बीच में माता अधीर हो उठी और वहीं मूर्च्छित अलौकिक बालक होकर गिर पड़ी। पास-पड़ोस की स्त्रियाँ शचीमाता को पंखा आदि से वायु करने लगीं। निमाई घबड़ा गये। माता की ऐसी अवस्था देखकर उनके होश उड़ गये। वे स्त्रियों से पूछने लगे- ‘माता किस प्रकार अच्छी हो सकेंगी? उनमें से किसी स्त्री ने कह दिया- ‘यदि दो ताजी नारिकेल ला सको और उनका जल इन्हें पिलाया जाय तो ये अभी अच्छी हो जायँ।’

यह सुनकर ये दौड़े-दौड़े बाहर गये और थोड़ी ही देर में दो बडे़-बड़े ताजा नारिकेल लेकर घर में वापिस आये। नारिकेल फोड़कर उसका जल शचीमाता के मुँह में डाला गया। धीरे-धीरे वे होश में आने लगीं। जब वे खूब होश में आ गयीं तब ये उनसे लिपटकर खूब रोये और रोते-रोते बोले- ‘माँ! न जाने मुझे क्या हो जाता है जो तुम्हें इतना तंग करता हूँ। मेरी माँ! अब कभी ऐसा काम न करूँगा।’ एक दिन ये वैसे ही रोने लगे और खूब जोर-जोर से रोने लगे।

माता-पिता ने इन्हें बार-बार समझाया, पुचकारा, बहलाया किन्तु ये मानते ही न थे। बराबर रोते ही जाते थे। अन्त में माता ने पूछा- ‘तू चाहता क्या है? क्यों इतना रोता है? मुझे सब बात बता दे। तू जो कहेगा वही चीज तुझे ला दूँ’। आपने रोते-ही-रोते कहा- ‘जगदीश और हिरण्य पण्डित के घर जो आज ठाकुर जी के लिये नैवेद्य बना है उसे ही लेकर हम चुप होंगे।’ यह सुनकर सभी चकित हो गये। किसी का भी साहस नहीं पड़ता था कि उनके घर जाकर बिना पूजा किये नैवेद्य को लाकर बालक को दे दे। सभी चुप होकर एक-दूसरे के मुख की ओर देखने लगे। निमाई फूट-फूटकर रो रहे थे। माता ने बहुत समझाया- ‘बेटा! पूजा माई की चीज है, जब तक भगवान का भोग नहीं लगता तब तक नहीं खाते। पूजा हो जाने दे, मैं जाकर उनके घर से ला दूँगी।

बिना पूजा किये जो बच्चे मिठाई को खा लेते हैं, उनके कान पक जाते हैं। रोवे मत। ये तेरे सब साथी तेरी हँसी करेंगे कि निमाई कैसा रोने वाला है?’ माता की इन बातों का निमाई पर कुछ भी असर नहीं हुआ। वे बराबर रोते ही रहे। किसी ने जाकर उन ब्राह्मणों से ये बातें कह दीं। ये दोनों वैष्णव ब्राह्मण पण्डित जगन्नाथ मिश्र के पड़ोसी थे और मिश्र जी से बड़ा प्रेम मानते थे। निमाई उनके घर बहुत जाया-आया करते थे। इस बात को सुनकर उनके घर के सभी लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि निमाई को यह कैसे पता चला कि हमारे घर आज भगवान के लिये नैवेद्य तैयार हो गया है। कुछ भी हो, वे बड़ी प्रसन्नता से नैवेद्य लेकर निमाई के पास आये। निमाई ने सभी सामग्रियों में से थोड़ा-थोड़ा लेकर खा लिया, तब ये शान्त हुए। माता को इनकी ऐसी बातों पर बड़ा दुःख हुआ। वे सोचने लगीं- इस पर जरूर कोई भूत-पिशाच आता है, इसलिये उन्होंने देवताओं के नाम से द्रव्य उठाकर रख दिया, देवियों की पूजा की और बहुत-सी मनौतियाँ भी मानीं। वे निमाई की ऐसी दशा देखकर मन में किसी अशुभ बात की शंका करके डर जातीं और बच्चे की मंगल-कामना के निमित्त भाँति-भाँति के उपाय सोचतीं।

धीरे-धीरे इनकी अवस्था पाँच साल के लगभग हुई। पिता ने इनका अक्षरारम्भ कराया। लिखने के लिये हाथ में पट्टी और खड़िया दी। भला इन्हें क्या पढ़ना था, ये तो सभी कुछ पढे़-पढ़ाये ही आये थे। पिता को दिखाने के लिये तो कभी ये पट्टी पर कुछ उलटी-सीधे लकीरें करने लगते किन्तु वैसे पढ़ते कुछ भी नहीं थे। खड़िया को लेकर शरीर से मल लेते, लम्बे-लम्बे माथे पर उसके तिलक लगा लेते और माता से कहते- ‘अम्मा! तेरे घर में एक परम वैष्णव आया है, कुछ भिक्षा देगी?’ माता इनके तिलकों को देखती और हँस पड़ती। गोद में बिठाकर मुख चूमती और कहती- ‘बेटा इतना उपद्रव नहीं किया करते हैं। कुछ पढ़ना-लिखना भी चाहिये। अब तो निरा बालक ही नहीं है। तेरी बराबरी के ब्राह्मण के बालक पोथी पढ़ लेते हैं, तू वैसे ही दिनभर इधर-उधर खेला करता है।’ ये माता की बातों को सुन लेते और मुसकरा देते। खा-पीकर जल्दी बालकों में खेलने के लिये भाग जाते। सभी बालकों को लेकर ये उन्हें नाचना सिखाते।

तीन-तीन, चार-चार बालक मिलकर हाथ पकड़-पकड़ नाचते और घूमते-घूमते कभी चक्कर आने से धूलि में गिर भी पड़ते। कभी ऊपर हाथ उठा-उठाकर ‘हरि बोल, हरि बोल’ कहकर खूब नाचते। इनके साथ-साथ और बालक भी ‘हरि बोल, हरि बोल’ की उच्च-ध्वनि करने लगते। रास्ता चलने वाले लोग इनके खेलों को देखकर खडे़ हो जाते और घंटों इनकी लीलाओं को देखा करते। बहुत-से विद्वान पण्डित भी उधर से निकलते, बच्चों के साथ निमाई को नाचते देखकर उन्हें अपनी पुस्तकी-विद्या पर बड़ी लज्जा आती। उनका जी चाहता था कि सब कुछ छोड़-छाड़कर इन बच्चों के ही साथ नृत्य करने लगें, किन्तु लोक-लज्जा उन्हें ऐसा न करने के लिये विवश करती। इस प्रकार ये खेल में भी बालकों को कुछ-न-कुछ शिक्षा देते रहते। पिता  इन्हें जितना ही पढ़ाना चाहते थे ये उतने ही पढ़ने से भागते थे। ज्यों-ज्यों इनकी अवस्था बड़ी होती जाती थी, त्यों-त्यों चंचलता भी पहले से अधिक बढ़ती जाती थी।

क्रमशः .............




🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼