🙏🏼🌹 *हरे कृष्ण*🌹🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(7)
निमाई...
क्रमशः से आगे .....
तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः।
पीताम्बरधरः स्त्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः।।[1]
पं. जगन्नाथ मिश्र और श्रीशची देवी की मानसिक प्रसन्नता का वही अनुभव कर सकता है जिसकी अवस्था महाराज दशरथ और जगन्माता कौसल्या की-सी हो। अथवा कंस का वध करने के अनन्तर देवकी और वसुदेव को जो प्रसन्नता हुई होगी उसी प्रकार की प्रसन्नता मिश्र-दम्पति के हृदय में विद्यमान होगी। शची देवी की क्रमशः आठ कन्याएँ प्रसव होने के कुछ काल के ही पश्चात् परलोकगामिनी बन चुकी थीं। इस वृद्धावस्था में दम्पति सन्तान-सुख से निराश हो चुके थे कि भगवान का अनुग्रह हुआ और विश्वरूप का जन्म हुआ। विश्वरूप यथा नाम तथा गुण ही थे, इनका रूप विश्व को मोहित करने वाला था, किन्तु बालोचित चांचल्य इनमें बिलकुल नहीं था, चेहरे पर परम शान्ति विराजमान थी। माता-पिता इस सर्वगुणसम्पन्न पुत्र के मुख-कमल को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हुआ करते थे।
अब भगवान की कृपा का क्या कहना है! विश्वरूप के बाद दूसरे बालक को देखकर तो मिश्र-दम्पति अपने आपे को ही भूल गये थे। सब बालक 9 महीने या अधिक-से-अधिक 10 महीने गर्भ में रहते हैं, किन्तु गौरांग पूरे 13 महीने गर्भ में रहे थे। सात महीने में भी बहुत-से बच्चे होते हैं और वे प्रायः जीवित भी रहते हैं, किन्तु वे बहुधा क्षीणकाय ही होते हैं। बात यह है कि 6 महीने में गर्भ के बच्चे के सब अवयव बनकर ठीक होते हैं और सातवें महीने में जाकर उसमें जीवन का संचार प्रतीत होता हे। जीवन का संचार होते ही बच्चा गर्भ से बाहर होने का प्रयत्न करता है। जो माताएँ कमज़ोर होती हैं, उनका प्रसव सात ही महीनों में हो जाता है, किन्तु बहुधा सातवें महीने में बच्चे का प्रयत्न निर्बल होने के कारण असफल ही होता है। बाहर निकलने के प्रयत्न में बालक बेहोश हो जाता है और वह बेहोशी दो महीने में जाकर ठीक होती है।
जो बच्चे 8 ही महीनों में हो जाते हैं, वे बचते नहीं हैं, क्योंकि एक तो पहली बेहोशी और दूसरी प्रसव की बेहोशी, इसलिये कमज़ोर बालक उन्हें सह नहीं सकता। 10 महीने का बच्चा खूब तन्दुरूस्त होता है। 13 महीने गर्भ में रहने के कारण गौरांग पैदा होते ही सालभर के-से प्रतीत होते थे। इनका शरीर खूब मजबूत था, अंग के सभी अवयव सुगठित और सुन्दर थे। तपाये हुए सुवर्ण की भाँति इनके शरीर का वर्ण था, छोटी-छोटी दोनों भुजाएँ खूब उतार-चढ़ाव की थीं। हाथ की उँगली कोमल और रक्त-वर्ण की बड़ी ही सुहावनी प्रतीत होती थी। छोटे-छोटे गुदगुदे पैर, मांस से छिपे हुए सुन्दर टखने, सुन्दर गोल-गोल पिंड़रियाँ और मनोहर ऊरूद्वय थे।
छोटे कमल के समान सुन्दर मुख बड़ी-बड़ी आँखें और सुन्दर पैनी नासिका बड़ी ही भली मालूम पड़ती थी। गर्भ के सभी बालकों के इतने मुलायम बाल होते हैं कि वे रेशम के लच्छों को भी मात करते हैं, किन्तु गौरांग के बाल तो अपेक्षाकृत अन्य बालकों के बालों से बहुत बड़े थे। काले-काले सुन्दर घुँघराले बालों से उस सुचारू आनन की शोभा ठीक ऐसी बन गयी थी मानो किसी अधिक रसमय कमल के ऊपर बहुत-से भौंरे आकर स्वेच्छापूर्वक रसपान कर रहे हों। शचीमाता उस रूप-माधुरी को बार-बार निहारती और आश्चर्यसागर में गोते लगाने लगती। वह बच्चे के सौन्दर्य में एक अपूर्व तेज का अनुभव करती। धीरे-धीरे बालक एक मास का हुआ। बंगाल की ओर माता 21 दिन में अथवा महीने भर में प्रसूति-घर से बाहर होती है और तभी षष्ठी-पूजा भी होती है। नामकरण-संस्कार प्रायः चार महीनों में होता था, किन्तु अब तो लोग बहुत पहले भी करने लगते हैं। एक महीने के बाद गौरांग का निष्क्रमण-संस्कार हुआ। सखी-सहेलियों के साथ शचीदेवी बालक को लेकर गंगास्नान करने के निमित्त गयीं। वहाँ जाकर विधिवत गंगा जी का पूजन किया और फिर षष्ठीदेवी के स्थान पर उनके पूजन के निमित्त गयीं।
षष्ठी देवी कौन हैं, इनके सम्बन्ध में पृथक्-पृथक् देशों की पृथक्-पृथक् मान्यता है। यह कोई शास्त्रीय देवी नहीं हैं, एक लौकिक पद्धति है। बहुत जगह तो यह बालकों के अशुभ को मेटने वाली समझी जाती हैं और इसीलिये बालक के कल्याण के निमित्त इनकी पूजा करते हैं। हमारी तरफ बालक के जन्म के छठे दिन षष्ठी (छठी) देवी का पूजन होता है। घर की सबसे मान्य स्त्री पहले-पहल पूजा करती है, फिर सम्पूर्ण कुल-परिवार की स्त्रियाँ आ-आकर पूजा करती हैं अैर भेंट चढ़ाती हैं। मान्य स्त्री उन सबको खाने के लिये सीरा-पूड़ी या कोई अन्य वस्तु देती है। हमारी ओर वैमाता (भावी माता) को ही षष्ठी मानते हैं, ऐसी मान्यता है कि वैमाता उसी दिन रात्रि में आकर बालक की आयुभर का शुभाशुभ भाग्य में लिख जाती है। वैमाता बालक के भाग्य को खूब अच्छा लिख जाय इसीलिये उसकी प्रसन्नता के निमित्त उसका पूजन करते हैं। नीचे के दोहे में यही बात स्पष्ट है-
जो विधना ने लिख दई, छठी रात्रि के अंक।
राई घटै न तिल बढ़ै, रहु रे जीव निसंक।।
कुछ भी हो, लौकिक ही रीति सही, किन्तु इसका प्रचार किसी-न-किसी रूप में सर्वत्र ही है।
षष्ठी देवी के स्थान पर जाकर शचीदेवी ने श्रद्धा भक्ति के साथ देवी का पूजन किया और वे बच्चे की मंगल-कामना के निमित्त देवी के चरणों में प्रार्थना करके सखी-सहेलियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक घर लौट आयीं। बालक ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता था, त्यों-ही-त्यों उसकी चंचलता भी बढ़ती जाती थी। विश्वरूप जितने अधिक शान्त थे, गौरंग उतने ही अधिक चंचल थे। एक महीने के ही थे कि अपने-आप ही आँगन में घुटनों के सहारे रेंगने लगते थे। चलते-चलते जोर से किलकारियाँ मारने लगते, कभी-कभी अपने-आप ही हँसने लगते। माता इन्हें पकड़ती, किन्तु इन्हें पकड़ना सहज काम नहीं था। ये स्तन पीते-ही-पीते कभी इतने जोर से दौड़ते कि फिर इन्हें रोक रखना असम्भव ही हो जाता था। पहले-पहले ये बहुत रोते थे, माता भाँति-भाँति से इन्हें चुप करने की चेष्टा करती किन्तु ये चुप ही नहीं होते थे। एक दिन ये छोटे खटोलने पर पड़े-पड़े बहुत जोरों से रो रहे थे। माता ने बहुत चेष्टा की किन्तु ये चुप नहीं हुए। तब तो माता इन्हें ‘हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द निमाई बोल।।’ यह पद गा-गाकर धीरे-धीरे हिलाने लगीं। बस, इसका श्रवण करना था कि ये चुप हो गये। माता को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्हें चुप करने का एक सहज ही उपाय मिल गया। जब कभी ये रोते तभी माता अपने कोमल कण्ठ से गाने लगती-
हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।
इसे सुनते ही ये झट चुप हो जाते। इनके मुहल्ले की स्त्रियाँ इन्हें बहुत ही अधिक प्यार करती थीं, इसलिये घर के काम से निवृत्त होते ही वे शची देवी के घर आ बैठती। शचीदेवी का स्वभाव बड़ा ही मधुर था। उनके घर जो भी आती उसी का खूब प्रेमपूर्वक सत्कार करतीं और घर का काम-काज छोड़कर उनसे बातें करने लगतीं। इसलिये सभी भली स्त्रियाँ अपना अधिकांश समय शचीदेवी के यहाँ बितातीं। वे सभी मिलकर गौरांग को खिलाती थीं। बच्चे की जिसमें प्रसन्नता हो खिलाने वाले उसी काम को बार-बार करते हैं। गौरांग हरि-नाम संकीर्तन से ही परम प्रसन्न होते थे और सुनते-सुनते किलकारियाँ मारने लगते, इसलिये स्त्रियाँ बार-बार उसी पद को गातीं। कभी-कभी सब मिलकर एक स्वर से कीर्तन के पदों का गान करती रहतीं। इस प्रकार दिनभर शचीदेवी के घर में-
हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।
इसी पद की ध्वनि गूँजती रहती। इस प्रकार धीरे-धीरे बालक की अवस्था चार मास की हुई। मिश्र जी ने शुभ मुहूर्त में बालक के नामकरण-संस्कार की तैयारियाँ कीं। अपने सहपाठी प्रेमी पण्डितों को उन्होंने निमन्त्रित किया। ब्राह्मणों ने विधि-विधान के साथ वेद-पाठ और हवन किया।
क्रमशः .............
🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(7)
निमाई...
क्रमशः से आगे .....
तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः।
पीताम्बरधरः स्त्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः।।[1]
पं. जगन्नाथ मिश्र और श्रीशची देवी की मानसिक प्रसन्नता का वही अनुभव कर सकता है जिसकी अवस्था महाराज दशरथ और जगन्माता कौसल्या की-सी हो। अथवा कंस का वध करने के अनन्तर देवकी और वसुदेव को जो प्रसन्नता हुई होगी उसी प्रकार की प्रसन्नता मिश्र-दम्पति के हृदय में विद्यमान होगी। शची देवी की क्रमशः आठ कन्याएँ प्रसव होने के कुछ काल के ही पश्चात् परलोकगामिनी बन चुकी थीं। इस वृद्धावस्था में दम्पति सन्तान-सुख से निराश हो चुके थे कि भगवान का अनुग्रह हुआ और विश्वरूप का जन्म हुआ। विश्वरूप यथा नाम तथा गुण ही थे, इनका रूप विश्व को मोहित करने वाला था, किन्तु बालोचित चांचल्य इनमें बिलकुल नहीं था, चेहरे पर परम शान्ति विराजमान थी। माता-पिता इस सर्वगुणसम्पन्न पुत्र के मुख-कमल को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हुआ करते थे।
अब भगवान की कृपा का क्या कहना है! विश्वरूप के बाद दूसरे बालक को देखकर तो मिश्र-दम्पति अपने आपे को ही भूल गये थे। सब बालक 9 महीने या अधिक-से-अधिक 10 महीने गर्भ में रहते हैं, किन्तु गौरांग पूरे 13 महीने गर्भ में रहे थे। सात महीने में भी बहुत-से बच्चे होते हैं और वे प्रायः जीवित भी रहते हैं, किन्तु वे बहुधा क्षीणकाय ही होते हैं। बात यह है कि 6 महीने में गर्भ के बच्चे के सब अवयव बनकर ठीक होते हैं और सातवें महीने में जाकर उसमें जीवन का संचार प्रतीत होता हे। जीवन का संचार होते ही बच्चा गर्भ से बाहर होने का प्रयत्न करता है। जो माताएँ कमज़ोर होती हैं, उनका प्रसव सात ही महीनों में हो जाता है, किन्तु बहुधा सातवें महीने में बच्चे का प्रयत्न निर्बल होने के कारण असफल ही होता है। बाहर निकलने के प्रयत्न में बालक बेहोश हो जाता है और वह बेहोशी दो महीने में जाकर ठीक होती है।
जो बच्चे 8 ही महीनों में हो जाते हैं, वे बचते नहीं हैं, क्योंकि एक तो पहली बेहोशी और दूसरी प्रसव की बेहोशी, इसलिये कमज़ोर बालक उन्हें सह नहीं सकता। 10 महीने का बच्चा खूब तन्दुरूस्त होता है। 13 महीने गर्भ में रहने के कारण गौरांग पैदा होते ही सालभर के-से प्रतीत होते थे। इनका शरीर खूब मजबूत था, अंग के सभी अवयव सुगठित और सुन्दर थे। तपाये हुए सुवर्ण की भाँति इनके शरीर का वर्ण था, छोटी-छोटी दोनों भुजाएँ खूब उतार-चढ़ाव की थीं। हाथ की उँगली कोमल और रक्त-वर्ण की बड़ी ही सुहावनी प्रतीत होती थी। छोटे-छोटे गुदगुदे पैर, मांस से छिपे हुए सुन्दर टखने, सुन्दर गोल-गोल पिंड़रियाँ और मनोहर ऊरूद्वय थे।
छोटे कमल के समान सुन्दर मुख बड़ी-बड़ी आँखें और सुन्दर पैनी नासिका बड़ी ही भली मालूम पड़ती थी। गर्भ के सभी बालकों के इतने मुलायम बाल होते हैं कि वे रेशम के लच्छों को भी मात करते हैं, किन्तु गौरांग के बाल तो अपेक्षाकृत अन्य बालकों के बालों से बहुत बड़े थे। काले-काले सुन्दर घुँघराले बालों से उस सुचारू आनन की शोभा ठीक ऐसी बन गयी थी मानो किसी अधिक रसमय कमल के ऊपर बहुत-से भौंरे आकर स्वेच्छापूर्वक रसपान कर रहे हों। शचीमाता उस रूप-माधुरी को बार-बार निहारती और आश्चर्यसागर में गोते लगाने लगती। वह बच्चे के सौन्दर्य में एक अपूर्व तेज का अनुभव करती। धीरे-धीरे बालक एक मास का हुआ। बंगाल की ओर माता 21 दिन में अथवा महीने भर में प्रसूति-घर से बाहर होती है और तभी षष्ठी-पूजा भी होती है। नामकरण-संस्कार प्रायः चार महीनों में होता था, किन्तु अब तो लोग बहुत पहले भी करने लगते हैं। एक महीने के बाद गौरांग का निष्क्रमण-संस्कार हुआ। सखी-सहेलियों के साथ शचीदेवी बालक को लेकर गंगास्नान करने के निमित्त गयीं। वहाँ जाकर विधिवत गंगा जी का पूजन किया और फिर षष्ठीदेवी के स्थान पर उनके पूजन के निमित्त गयीं।
षष्ठी देवी कौन हैं, इनके सम्बन्ध में पृथक्-पृथक् देशों की पृथक्-पृथक् मान्यता है। यह कोई शास्त्रीय देवी नहीं हैं, एक लौकिक पद्धति है। बहुत जगह तो यह बालकों के अशुभ को मेटने वाली समझी जाती हैं और इसीलिये बालक के कल्याण के निमित्त इनकी पूजा करते हैं। हमारी तरफ बालक के जन्म के छठे दिन षष्ठी (छठी) देवी का पूजन होता है। घर की सबसे मान्य स्त्री पहले-पहल पूजा करती है, फिर सम्पूर्ण कुल-परिवार की स्त्रियाँ आ-आकर पूजा करती हैं अैर भेंट चढ़ाती हैं। मान्य स्त्री उन सबको खाने के लिये सीरा-पूड़ी या कोई अन्य वस्तु देती है। हमारी ओर वैमाता (भावी माता) को ही षष्ठी मानते हैं, ऐसी मान्यता है कि वैमाता उसी दिन रात्रि में आकर बालक की आयुभर का शुभाशुभ भाग्य में लिख जाती है। वैमाता बालक के भाग्य को खूब अच्छा लिख जाय इसीलिये उसकी प्रसन्नता के निमित्त उसका पूजन करते हैं। नीचे के दोहे में यही बात स्पष्ट है-
जो विधना ने लिख दई, छठी रात्रि के अंक।
राई घटै न तिल बढ़ै, रहु रे जीव निसंक।।
कुछ भी हो, लौकिक ही रीति सही, किन्तु इसका प्रचार किसी-न-किसी रूप में सर्वत्र ही है।
षष्ठी देवी के स्थान पर जाकर शचीदेवी ने श्रद्धा भक्ति के साथ देवी का पूजन किया और वे बच्चे की मंगल-कामना के निमित्त देवी के चरणों में प्रार्थना करके सखी-सहेलियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक घर लौट आयीं। बालक ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता था, त्यों-ही-त्यों उसकी चंचलता भी बढ़ती जाती थी। विश्वरूप जितने अधिक शान्त थे, गौरंग उतने ही अधिक चंचल थे। एक महीने के ही थे कि अपने-आप ही आँगन में घुटनों के सहारे रेंगने लगते थे। चलते-चलते जोर से किलकारियाँ मारने लगते, कभी-कभी अपने-आप ही हँसने लगते। माता इन्हें पकड़ती, किन्तु इन्हें पकड़ना सहज काम नहीं था। ये स्तन पीते-ही-पीते कभी इतने जोर से दौड़ते कि फिर इन्हें रोक रखना असम्भव ही हो जाता था। पहले-पहले ये बहुत रोते थे, माता भाँति-भाँति से इन्हें चुप करने की चेष्टा करती किन्तु ये चुप ही नहीं होते थे। एक दिन ये छोटे खटोलने पर पड़े-पड़े बहुत जोरों से रो रहे थे। माता ने बहुत चेष्टा की किन्तु ये चुप नहीं हुए। तब तो माता इन्हें ‘हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द निमाई बोल।।’ यह पद गा-गाकर धीरे-धीरे हिलाने लगीं। बस, इसका श्रवण करना था कि ये चुप हो गये। माता को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्हें चुप करने का एक सहज ही उपाय मिल गया। जब कभी ये रोते तभी माता अपने कोमल कण्ठ से गाने लगती-
हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।
इसे सुनते ही ये झट चुप हो जाते। इनके मुहल्ले की स्त्रियाँ इन्हें बहुत ही अधिक प्यार करती थीं, इसलिये घर के काम से निवृत्त होते ही वे शची देवी के घर आ बैठती। शचीदेवी का स्वभाव बड़ा ही मधुर था। उनके घर जो भी आती उसी का खूब प्रेमपूर्वक सत्कार करतीं और घर का काम-काज छोड़कर उनसे बातें करने लगतीं। इसलिये सभी भली स्त्रियाँ अपना अधिकांश समय शचीदेवी के यहाँ बितातीं। वे सभी मिलकर गौरांग को खिलाती थीं। बच्चे की जिसमें प्रसन्नता हो खिलाने वाले उसी काम को बार-बार करते हैं। गौरांग हरि-नाम संकीर्तन से ही परम प्रसन्न होते थे और सुनते-सुनते किलकारियाँ मारने लगते, इसलिये स्त्रियाँ बार-बार उसी पद को गातीं। कभी-कभी सब मिलकर एक स्वर से कीर्तन के पदों का गान करती रहतीं। इस प्रकार दिनभर शचीदेवी के घर में-
हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।
इसी पद की ध्वनि गूँजती रहती। इस प्रकार धीरे-धीरे बालक की अवस्था चार मास की हुई। मिश्र जी ने शुभ मुहूर्त में बालक के नामकरण-संस्कार की तैयारियाँ कीं। अपने सहपाठी प्रेमी पण्डितों को उन्होंने निमन्त्रित किया। ब्राह्मणों ने विधि-विधान के साथ वेद-पाठ और हवन किया।
क्रमशः .............
🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼