🙏🏼🌹 *हरे कृष्ण*🌹🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(2)
वंश परिचय...
क्रमशः से आगे .....
इनके रूप-लावण्य तथा विद्या-बुद्धि से प्रसन्न होकर नवद्वीप के प्रसिद्ध पण्डित श्रीनीलाम्बर चक्रवर्ती ने अपनी ज्येष्ठा कन्या शची देवी का इनके साथ विवाह कर दिया। पण्डित नीलाम्बर चक्रवर्ती भी नवद्वीप निवासी नहीं थे। इनका आदिस्थान फरीदपुर के जिले में मग्डोवा नामक एक छोटे-से ग्राम में था। ये भी विद्याध्ययन के निमित्त नवद्वीप आये थे और पढ़-लिखकर फिर यहीं रह गये। इनका घर ‘बेलपुकुरिया’ में काजीपाड़ा के समीप था। इनके यज्ञेश्वर और हिरण्य दो पुत्र और दो कन्याएँ थीं। छोटी कन्या का विवाह श्री चन्द्रशेखर आचार्यरत्न के साथ हुआ था और बड़ी कन्या जगन्माता शची देवी का पण्डित जगन्नाथ मिश्र के साथ। रूपवती और कुलवती पत्नी को पाकर पुरन्दर महाशय परम सन्तुष्ट हुए और फिर सिलहट न जाकर वहीं मायापुर में घर बनाकर रहने लगे। मायापुर में और भी बहुत-से सिलहटनिवासी ब्राह्मण रहते थे।
पण्डित जगन्नाथ मिश्र भी वहीं रहने लगे। मायापुर नवद्वीप का ही एक मुहल्ला है। आजकल जो नगर नवद्वीप के नाम से प्रसिद्ध है, वह तो उस समय ‘कुलिया’ नामक ग्राम था। पुराना नवद्वीप तो कुलिया के सामने गंगा जी के उस पार पूर्व किनारों पर अवस्थित था, जो आजकल बामनपूकर नाम से पुकारा जाता है। कहा जाता है कि प्राचीन नवद्वीप की परिधि 16 कोस की थी, उसमें अन्तःद्वीप, सीमन्तद्वीप, गोद्रुमद्वीप, मध्यद्वीप, कोलद्वीप, ऋतुद्वीप, जन्हूद्वीप, मोदद्रुमद्वीप और रुद्रद्वीप ये 9 द्वीप थे। इन नवों को मिलाकर ही नवद्वीप कहते थे। मायापुर जहाँ पर पण्डित जगन्नाथ मिश्र रहते थे, वह मध्यद्वीप के अन्तर्गत था, अब उस स्थान का पता भी नहीं है कि कहाँ गया। भगवती भागीरथी के गर्भ में वे सभी प्राचीन स्थान विलीन हो गये, केवल महाप्रभु की कीर्ति के साथ उनके नाममात्र ही शेष रह गये हैं। पण्डित जगन्नाथ मिश्र अपनी सर्वगुणसम्पन्ना पत्नी के साथ सुखपूर्वक नवद्वीप में रहने लगे।
शची देवी के गर्भ से एक-एक करके 8 कन्याओं का जन्म हुआ और वे अकाल में ही कालकवलित बन गयीं। इससे मिश्र-दम्पति का गार्हस्थ्य-जीवन कुछ चिन्तामय और दुःखमय बना हुआ था। गृहस्थी के लिये सन्तानहीन होना जितना कष्टप्रद है, उससे भी अधिक कष्टप्रद सन्तान होकर उसका जीवित न रहना है, किन्तु इस धर्मप्राण-दम्पति का यह दुख और अधिक कालतक न रह सका। थोडे़ ही दिनों के अनन्तर शची देवी के गर्भ से एक पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ, जिसका नाम मिश्र जी ने विश्वरूप रखा। विश्वरूप सचमुच में ही विश्वरूप थे। माता-पिता को इस अद्वितीय रूप-लावण्ययुक्त पुत्र को पाकर परम प्रसन्नता प्राप्त हुई। चन्द्रमा की कलाओं के समान विश्वरूप धीरे-धीरे बड़े होने लगे। इसप्रकार विश्वरूप की अवस्था नव दस वर्ष की हुई होगी कि तभी माघ-मास में शची देवी के फिर गर्भ रहा। बस, इसी गर्भ से महाप्रभु चैतन्यदेव का प्रादुर्भाव हुआ।
क्रमशः .............
🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(2)
वंश परिचय...
क्रमशः से आगे .....
इनके रूप-लावण्य तथा विद्या-बुद्धि से प्रसन्न होकर नवद्वीप के प्रसिद्ध पण्डित श्रीनीलाम्बर चक्रवर्ती ने अपनी ज्येष्ठा कन्या शची देवी का इनके साथ विवाह कर दिया। पण्डित नीलाम्बर चक्रवर्ती भी नवद्वीप निवासी नहीं थे। इनका आदिस्थान फरीदपुर के जिले में मग्डोवा नामक एक छोटे-से ग्राम में था। ये भी विद्याध्ययन के निमित्त नवद्वीप आये थे और पढ़-लिखकर फिर यहीं रह गये। इनका घर ‘बेलपुकुरिया’ में काजीपाड़ा के समीप था। इनके यज्ञेश्वर और हिरण्य दो पुत्र और दो कन्याएँ थीं। छोटी कन्या का विवाह श्री चन्द्रशेखर आचार्यरत्न के साथ हुआ था और बड़ी कन्या जगन्माता शची देवी का पण्डित जगन्नाथ मिश्र के साथ। रूपवती और कुलवती पत्नी को पाकर पुरन्दर महाशय परम सन्तुष्ट हुए और फिर सिलहट न जाकर वहीं मायापुर में घर बनाकर रहने लगे। मायापुर में और भी बहुत-से सिलहटनिवासी ब्राह्मण रहते थे।
पण्डित जगन्नाथ मिश्र भी वहीं रहने लगे। मायापुर नवद्वीप का ही एक मुहल्ला है। आजकल जो नगर नवद्वीप के नाम से प्रसिद्ध है, वह तो उस समय ‘कुलिया’ नामक ग्राम था। पुराना नवद्वीप तो कुलिया के सामने गंगा जी के उस पार पूर्व किनारों पर अवस्थित था, जो आजकल बामनपूकर नाम से पुकारा जाता है। कहा जाता है कि प्राचीन नवद्वीप की परिधि 16 कोस की थी, उसमें अन्तःद्वीप, सीमन्तद्वीप, गोद्रुमद्वीप, मध्यद्वीप, कोलद्वीप, ऋतुद्वीप, जन्हूद्वीप, मोदद्रुमद्वीप और रुद्रद्वीप ये 9 द्वीप थे। इन नवों को मिलाकर ही नवद्वीप कहते थे। मायापुर जहाँ पर पण्डित जगन्नाथ मिश्र रहते थे, वह मध्यद्वीप के अन्तर्गत था, अब उस स्थान का पता भी नहीं है कि कहाँ गया। भगवती भागीरथी के गर्भ में वे सभी प्राचीन स्थान विलीन हो गये, केवल महाप्रभु की कीर्ति के साथ उनके नाममात्र ही शेष रह गये हैं। पण्डित जगन्नाथ मिश्र अपनी सर्वगुणसम्पन्ना पत्नी के साथ सुखपूर्वक नवद्वीप में रहने लगे।
शची देवी के गर्भ से एक-एक करके 8 कन्याओं का जन्म हुआ और वे अकाल में ही कालकवलित बन गयीं। इससे मिश्र-दम्पति का गार्हस्थ्य-जीवन कुछ चिन्तामय और दुःखमय बना हुआ था। गृहस्थी के लिये सन्तानहीन होना जितना कष्टप्रद है, उससे भी अधिक कष्टप्रद सन्तान होकर उसका जीवित न रहना है, किन्तु इस धर्मप्राण-दम्पति का यह दुख और अधिक कालतक न रह सका। थोडे़ ही दिनों के अनन्तर शची देवी के गर्भ से एक पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ, जिसका नाम मिश्र जी ने विश्वरूप रखा। विश्वरूप सचमुच में ही विश्वरूप थे। माता-पिता को इस अद्वितीय रूप-लावण्ययुक्त पुत्र को पाकर परम प्रसन्नता प्राप्त हुई। चन्द्रमा की कलाओं के समान विश्वरूप धीरे-धीरे बड़े होने लगे। इसप्रकार विश्वरूप की अवस्था नव दस वर्ष की हुई होगी कि तभी माघ-मास में शची देवी के फिर गर्भ रहा। बस, इसी गर्भ से महाप्रभु चैतन्यदेव का प्रादुर्भाव हुआ।
क्रमशः .............
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