‘सूर सूर तुलसी शशि’
सूरदासजी को भक्तिमार्ग का सूर्य कहा जाता है । जिस प्रकार सूर्य एक ही है और अपने प्रकाश और उष्मा से संसार को जीवन प्रदान करता है उसी तरह सूरदासजी ने अपनी भक्ति रचनाओं से मनुष्यों में भक्तिभाव का संचार किया । इस ब्लॉग में सूरदासजी की भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाने वाली एक कथा का वर्णन किया गया है ।
सूरदासजी को मन की आंखों से भगवान के श्रृंगार और लीलाओं के दर्शन की थी सिद्धि
वैशाख शुक्ल पंचमी संवत् 1535 को एक दिव्य ज्योति के रूप में भक्त सूरदासजी इस पृथ्वी पर आए तो उनके नेत्र बंद थे । जन्मान्ध बालक के प्रति पिता और घर के लोगों की उपेक्षा से धीरे-धीरे उनके मन में वैराग्य आ गया और उन्होंने घर छोड़ दिया । आगरा के पास रुनकता में रहे और फिर वल्लभाचार्यजी के साथ गोवर्धन चले आए । वहां वे चन्द्रसरोवर के पास पारसोली में रहने लगे । वे मन की आंखों (अंत:चक्षु) से ही अपने आराध्य की सभी लीलाओं और श्रृंगार का दर्शन कर पदों की रचना कर उन्हें सुनाया करते थे ।
भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय भक्तों के साथ करते हैं लीला
एक बार वे अपनी मस्ती में कहीं जा रहे थे । रास्ते में एक सूखा कुंआ था, उसमें वे गिर गए । कुएं में गिरे हुए सात दिन हो गए । वे नंदनन्दन से बड़े ही करुण स्वर में प्रार्थना कर रहे थे । उनकी प्रार्थना से द्रवित होकर भगवान श्रीकृष्ण ने आकर उनको कुएं से बाहर निकाल दिया ।
बाहर आकर वे अपने अंधेपन पर पछताते हुए कहने लगे—‘मैं पास आने पर भी अपने आराध्य के दर्शन नहीं कर सका ।’
एक दिन वे बैठे हुए ऐसे ही विचार कर रहे थे कि उन्हें श्रीराधा और श्रीकृष्ण की बातचीत सुनायी दी ।
श्रीकृष्ण ने श्रीराधा से कहा—‘आगे मत जाना, नहीं तो वह सूरदास टांग पकड़ लेगा ।’
श्रीराधा ने कहा—‘मैं तो जाती हूँ ।’ ऐसा कहकर वे सूरदास के पास आकर पूछने लगीं—‘क्या तुम मेरी टांग पकड़ लोगे ?’ सूरदासजी ने कहा—‘नहीं, मैं तो अंधा हूँ, मैं क्या टांग पकड़ूंगा ।’
तब श्रीराधा सूरदासजी के पास जाकर अपने चरण का स्पर्श कराने लगीं ।
श्रीकृष्ण ने कहा—‘आगे से नहीं, पीछे से टांग पकड़ लेगा ।’
सूरदासजी ने मन में सोचा कि ‘श्रीकृष्ण ने तो आज्ञा दे ही दी है, अब मैं क्यों न श्रीराधा के चरण पकड़ लूँ?’ यह सोचकर वे श्रीराधा के चरण पकड़ने के लिए तैयार होकर बैठ गए । जैसे ही श्रीराधा ने अपना चरणस्पर्श कराया, सूरदासजी ने उन्हें पकड़ लिया । श्रीराधा तो भाग गयीं लेकिन उनकी पायल (पैंजनी) खुलकर सूरदासजी के हाथ में आ गयी ।
श्रीराधाकृष्ण ने दिया सूरदासजी को दृष्टिदान
श्रीराधा ने कहा—‘सूरदास ! तुम मेरी पैंजनी दे दो, मुझे रास करने जाना है ।’
सूरदासजी ने कहा—‘मैं क्या जानूँ, किसकी है । मैं तुमको दे दूँ, फिर कोई दूसरा आकर मुझसे मांगे तो मैं क्या करुंगा ? हां, मैं तुमको देख लूँ तब मैं तुम्हें दे दूंगा ।’
श्रीराधाकृष्ण हंसे और उन्होंने सूरदासजी को दृष्टि प्रदान कर अपने दर्शन दे दिये ।
जिन आँखों में भगवान की छवि बस जाती है, उनमें अन्य वस्तुओं के लिए स्थान ही कहाँ रह जाता है?
जिन नैनन प्रीतम बस्यौ, तहँ किमि और समाय।
भरी सराय ‘रहीम’ लखि, पथिक आपु फिरि जाय।।
अर्थात्—जिन आंखों में भगवान की छवि बस जाती है वहां संसारिक वस्तुओं के लिए कोई जगह नहीं रह जाती । जैसे सराय को भरा देखकर राहगीर वापस लौट जाता है ।
श्रीराधाकृष्ण ने प्रसन्न होकर सूरदासजी से कहा—‘सूरदासजी ! तुम्हारी जो इच्छा हो, मांग लो ।’
सूरदासजी ने कहा—‘आप देंगे नहीं ।’
श्रीकृष्ण ने कहा—‘तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है ।’
सूरदासजी ने कहा—‘वचन देते हैं !’
श्रीकृष्ण ने कहा—‘हां, अवश्य देंगे ।’
सूरदासजी ने कहा—‘जिन आंखों से मैंने आपको देखा, उनसे मैं संसार को नहीं देखना चाहता । मेरी आंखें पुन: फूट जायँ ।’
‘अंधा क्या चाहे, दो आंखें’ । लेकिन आंखें (दृष्टि) मिलने पर पुन: अंधत्व मांग लेना—यह सूरदासजी जैसा अलौकिक व्यक्तित्व का धनी ही कर सकता है । सूरदासजी के मन में श्रीकृष्ण के सिवाय किसी दूसरे के लिए कोई जगह नहीं थी । उनका पद है—
नाहि रहयौ हिय मह ठौर ।
नंदनंदन अछत कैसे आनिय उर और ।।
श्रीराधाकृष्ण की आंखें छलछल करने लगीं और देखते-देखते सूरदास की दृष्टि पूर्ववत् (दृष्टिहीन) हो गयी ।
श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण दुर्वासाजी से कहते है
‘जिसने अपने को मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्मा का पद चाहता है और न देवराज इन्द्र का, उसके मन में न तो सम्राट बनने की इच्छा होती है और न वह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ रसातल का ही स्वामी होना चाहता है । वह योग की बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्ष की भी इच्छा नहीं करता ।’
सूरदासजी प्रतिदिन गोवर्धन में श्रीनाथजी के दर्शन कर उन्हें नये-नये पद सुनाते थे । एक दिन अंतिम समय निकट आने पर उन्होंने श्रीनाथजी की केवल मंगला आरती का दर्शन किया और पारसोली आकर श्रीनाथजी के मन्दिर की ध्वजा को प्रणाम कर चबूतरे पर लेट कर गुंसाईंजी और श्रीनाथजी का ध्यान करने लगे ।
श्रृंगार के दर्शनों में सूरदासजी को न देखकर गुंसाई विट्ठलनाथजी ने अन्य अष्टछाप के कवियों से कहा—‘आज पुष्टिमार्ग का जहाज जाने वाला है जिसको जो कुछ लेना हो, वह ले ले ।’
गुंसाईजी सहित सभी लोग सूरदासजी के पास आ गए । गुंसाईजी के यह पूछने पर कि ‘आपका चित्त कहां है ?’ सूरदासजी ने जबाव दिया—‘मैं राधारानी की वन्दना करता हूँ, जिनसे नंदनंदन प्रेम करते हैं।’
सूरदासजी ने 85 साल की अवस्था में अपने आराध्य से यह प्रार्थना करते हुए गोलोक प्राप्त किया—
तुम तजि और कौन पै जाऊँ ।
काके द्वार जाइ सिर नाऊ,
पर हथ कहां बिकाऊँ ।।
ऐसो को दाता है समरथ,
जाके दिये अघाऊँ ।
अंतकाल तुमरो सुमिरन गति,
अनत कहूँ नहिं पाऊँ ॥
गीता (12।8) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘हे अर्जुन ! तू अपने मन को मुझमें ही स्थिर कर और मुझमें ही अपनी बुद्धि को लगा, इस प्रकार तू निश्चित रूप से मुझमें ही सदैव निवास करेगा, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है।’