(((( हरि का भोग ))))
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श्रीयशोदाजी के मायके से एक ब्राह्मण गोकुल आये।
नंदरायजी के घर बालक का जन्म हुआ है, यह सुनकर आशीर्वाद देने आये थे।
मायके से आये ब्राह्मण को देखकर यशोदाजी को बड़ा अानंद हुआ। पंडितजी के चरण धोकर, आदर सहित उनको घर में बिठाया और उनके भोजन के लिये योग्य स्थान गोबर से लिपवा दिया।
पंडितजी से बोली, देव आपकी जो इच्छा हो भोजन बना लें। यह सुनकर विप्र का मन अत्यन्त हर्षित हुआ।
विप्र ने कहा बहुत अवस्था बीत जाने पर विधाता अनुकूल हुए, यशोदाजी ! तुम धन्य हो जो ऐसा सुन्दर बालक का जन्म तुम्हारे घर हुआ।
यशोदाजी गाय दुहवाकर दूध ले आईं, ब्राह्मण ने बड़ी प्रसन्नता से घी मिश्री मिलाकर खीर बनायी। खीर परोसकर वो भगवान हरी को भोग लगाने के लिये ध्यान करने लगे।
जैसे ही आँखे खोली तो विप्र देव ने देखा कन्हाई खीर का भोग लगा रहे हैं।
वे बोले यशोदाजी ! आकर अपने पुत्र की करतूत तो देखो, इसने सारा भोजन जूठा कर दिया।
ब्रजरानी दोनो हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी, विप्रदेव बालक को क्षमा करें और कृपया फिर से भोजन बना लें।
व्रजरानी दुबारा दूध घी मिश्री तथा चावल ले आयीं और कन्हाई को घर के भीतर ले गयीं ताकि वो कोई गलती न करें।
विप्र अब पुन: खीर बनाकर अपने अराध्य को अर्पित कर ध्यान करने लगे, कन्हाई फिर वहाँ आकर खीर का भोग लगाने लगे।
विप्रदेव परेशान हो गये। मैया मोहन को गुस्से से कहती हैं - कान्हा लड़कपन क्यों करते हो ? तुमने ब्राह्मण को बार-बार खिजाया ( तंग किया ) है।
इस तरह बिप्रदेव जब-जब भोग लगाते हैं, कन्हाई आकर तभी जूठा कर देते हैं।
अब माता परेशान होकर कहने लगी 'कन्हाई मैंने बड़ी उमंग से ब्राह्मणदेव को न्योता दिया था और तू उन्हें चिढ़ाता है ?
जब वो अपने ठाकुरजी को भोग लगाते हैं, तब तू यों ही भागकर चला जाता है और भोग जूठा कर देता है'।
यह सुनकर कन्हाई बोले- मैया तू मुझे क्यों दोष देती है, विप्रदेव स्वयं ही विधि विधान से मेरा ध्यान कर हाथ जोड़कर मुझे भोग लगाने के लिये बुलाते हैं, हरी आओ, भोग स्वीकार करो। मैं कैसे न जाऊँ।
ब्राह्मण की समझ में बात आ गयी। अब वे व्याकुल होकर कहने लगे, प्रभो ! अज्ञानवश मैंने जो अपराध किया है, मुझे क्षमा करें।
यह गोकुल धन्य है, श्रीनन्दजी और यशोदाजी धन्य हैं, जिनके यहाँ साक्षात् श्रीहरि ने अवतार लिया है। मेरे समस्त पुन्यों एवं उत्तम कर्मों का फल आज मुझे मिल गया, जो दीनबन्धु प्रभु ने मुझे साक्षात दर्शन दिया।
सूरदासजी कहते हैं कि विप्रदेव बार बार हे अन्तर्यामी ! हे दयासागर ! मुझ पर कृपा कीजिये, भव से पार कीजिये, और यशोदाजी के आँगन मे लोटने लगे।
((((((( जय जय श्री राधे ))))
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