श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ
श्रीगोपदेवी-लीला
श्रीजी- ‘हे सखि, गुरुणापि प्राणिधानेन न मे स्मरणं भवति’- हे श्यामे, मैं तो चित्त कूँ स्थिर करि कैं बोहौत विचार करूँ हूँ, परंतु मोकूँ नैंक हू स्मरण नहीं होय है। आप ही बताय देऔ, मोसौं ऐसी कहा भारी चूक परि गई है।
श्रीजी- ‘अयि मिथ्यासरले, तिष्ठ तिष्ठ’-
(श्लोक)
वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
पटान्निपक्रान्तोऽभूद् धृतशिखिशिखिण्डो नवयुवा।
भ्रुवं तेनाक्षिप्ता किमपि वसतोन्मादितमतेः
शशीवृत्तो वह्निः परमहह बर्ह्निमय शशी।।
अयि निठुर चित्रै, तैंने ही तो चित्रपट दिखराय कैं मेरी यह गति कर दीनी है।
सखी- क्यौं, प्यारी जू! वा चित्रपट में कहा हौ?
श्रीजी- अरी कपटवादिनी, वह चित्रपट नहीं हौ वा पट में तो एक युवा पुरुष बैठ्यौ हौ। स्याम वा कौ वर्ण हौ। मरकत मणि की सी मनोहर अंग कान्ति ही। मस्तक पै मोरपिच्छ कौ गुच्छ सौभा दै रह्यौ हौ। कंठ सौं पाद पर्यन्त बनमाला लहराय रही ही। वह नवघन-किसोर चित कौ चोर धीरें-धीरें वा पट कूँ तजि निकस्यौ और निकसि कैं मो माऊँ मदमातौ मुस्कावतौ आवन लग्यौ। मैंने लज्जा और भय के मारें नेत्र मूँद लीने; परंतु देखूँ तो वह तो मेरे हृदय में ठाड़ौ-ठाड़ौ मुस्काय रह्यौ है। वह मेरे नयन द्वार सौं मेरे हृदय भवन में घुसि आयौ है और वाने मेरौ मन-मानिक चुराय मोकूँ बावरी कर दियौ है। मोकूँ तब सौं ससि-किरन तौ अग्नि की ज्वाला समान लगै है और अग्नि की ज्वाला ससि-किरन तुल्य लगै है।
(श्लोक)
हे देव! हे दयित! हे भुवनैकबन्धो!
हे कृष्ण! हे चपल! हे करुणैकसिन्धो!
हे नाथ! हे रमण! हे नयनाभिराम!
हा हा कदानुभवितासि पदं दृशोर्मे।।
सखि- हे सखी! अब नँदनँदन कौ बन सौं आयबे कौ समय निकट ही आय गयौ है। सो अब प्यारी जी कूँ सीस-महल के झरोखान में बिराजमान कर देऔ, वहीं सौं ये प्यारे के दरसन करि लेयँगी और या बात की काहूँ कूँ खबर हू न परैगी।
(श्रीकृष्ण-मधुमंगल-आगमन)
समाजी-
पद (राग पूरिया, ताल-चौताल)
हाँकें हटक-हटक गाय ठठक-ठठक रहीं,
गोकुल की गली सब साँकरी।
जारी-अटारी, झरोखन मोखन झाँकत,
दुरि-दुरि ठौर-ठौर ते परत काँकरी।।
कुंद कली चंप-कली बरषत रस-भरी,
तामें पुनि देखियत लिखे हैं आँक री।
नंददास प्रभु जहीं-जहीं द्वारें ठाड़े होत,
तहीं-तहीं माँगत बचन लटकि-लटकि जात,
काहू सौं हाँ करी, काहू सौं ना करी।।
पद (राग-गौरी, तीन ताल)
कमल मुख सोभित सुंदर बेनु।
मोहन ताल बजावत, गावत, आवत चारें धेनु।।
कुंचित केस सुदेस बदन पर, जनु साज्यौ अलि सैनु।
सहि न सकत मुरली मधु पीवत, चाहते अपने ऐनु।।
भृकुटी कुटिल चाप कर लीने, भयौ सहायक मैनु।
सूरदास प्रभु अधर-सुधा लगि उपज्यौ कठिन कुचैनु।।
क्रमशः
श्रीगोपदेवी-लीला
श्रीजी- ‘हे सखि, गुरुणापि प्राणिधानेन न मे स्मरणं भवति’- हे श्यामे, मैं तो चित्त कूँ स्थिर करि कैं बोहौत विचार करूँ हूँ, परंतु मोकूँ नैंक हू स्मरण नहीं होय है। आप ही बताय देऔ, मोसौं ऐसी कहा भारी चूक परि गई है।
श्रीजी- ‘अयि मिथ्यासरले, तिष्ठ तिष्ठ’-
(श्लोक)
वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
पटान्निपक्रान्तोऽभूद् धृतशिखिशिखिण्डो नवयुवा।
भ्रुवं तेनाक्षिप्ता किमपि वसतोन्मादितमतेः
शशीवृत्तो वह्निः परमहह बर्ह्निमय शशी।।
अयि निठुर चित्रै, तैंने ही तो चित्रपट दिखराय कैं मेरी यह गति कर दीनी है।
सखी- क्यौं, प्यारी जू! वा चित्रपट में कहा हौ?
श्रीजी- अरी कपटवादिनी, वह चित्रपट नहीं हौ वा पट में तो एक युवा पुरुष बैठ्यौ हौ। स्याम वा कौ वर्ण हौ। मरकत मणि की सी मनोहर अंग कान्ति ही। मस्तक पै मोरपिच्छ कौ गुच्छ सौभा दै रह्यौ हौ। कंठ सौं पाद पर्यन्त बनमाला लहराय रही ही। वह नवघन-किसोर चित कौ चोर धीरें-धीरें वा पट कूँ तजि निकस्यौ और निकसि कैं मो माऊँ मदमातौ मुस्कावतौ आवन लग्यौ। मैंने लज्जा और भय के मारें नेत्र मूँद लीने; परंतु देखूँ तो वह तो मेरे हृदय में ठाड़ौ-ठाड़ौ मुस्काय रह्यौ है। वह मेरे नयन द्वार सौं मेरे हृदय भवन में घुसि आयौ है और वाने मेरौ मन-मानिक चुराय मोकूँ बावरी कर दियौ है। मोकूँ तब सौं ससि-किरन तौ अग्नि की ज्वाला समान लगै है और अग्नि की ज्वाला ससि-किरन तुल्य लगै है।
(श्लोक)
हे देव! हे दयित! हे भुवनैकबन्धो!
हे कृष्ण! हे चपल! हे करुणैकसिन्धो!
हे नाथ! हे रमण! हे नयनाभिराम!
हा हा कदानुभवितासि पदं दृशोर्मे।।
सखि- हे सखी! अब नँदनँदन कौ बन सौं आयबे कौ समय निकट ही आय गयौ है। सो अब प्यारी जी कूँ सीस-महल के झरोखान में बिराजमान कर देऔ, वहीं सौं ये प्यारे के दरसन करि लेयँगी और या बात की काहूँ कूँ खबर हू न परैगी।
(श्रीकृष्ण-मधुमंगल-आगमन)
समाजी-
पद (राग पूरिया, ताल-चौताल)
हाँकें हटक-हटक गाय ठठक-ठठक रहीं,
गोकुल की गली सब साँकरी।
जारी-अटारी, झरोखन मोखन झाँकत,
दुरि-दुरि ठौर-ठौर ते परत काँकरी।।
कुंद कली चंप-कली बरषत रस-भरी,
तामें पुनि देखियत लिखे हैं आँक री।
नंददास प्रभु जहीं-जहीं द्वारें ठाड़े होत,
तहीं-तहीं माँगत बचन लटकि-लटकि जात,
काहू सौं हाँ करी, काहू सौं ना करी।।
पद (राग-गौरी, तीन ताल)
कमल मुख सोभित सुंदर बेनु।
मोहन ताल बजावत, गावत, आवत चारें धेनु।।
कुंचित केस सुदेस बदन पर, जनु साज्यौ अलि सैनु।
सहि न सकत मुरली मधु पीवत, चाहते अपने ऐनु।।
भृकुटी कुटिल चाप कर लीने, भयौ सहायक मैनु।
सूरदास प्रभु अधर-सुधा लगि उपज्यौ कठिन कुचैनु।।
क्रमशः