भगवान श्रीकृष्ण की मृद्-भक्षण (माटी खाने की) लीला....
एक दिन श्रीकृष्ण बलराम व अन्य गोपों के साथ घरौंदे बनाने का खेल खेल रहे थे।
जो अपनी इच्छा से कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड बनाया-बिगाड़ा करते हैं, उसका घरौंदा अन्य बालकों से अच्छा नहीं बन पा रहा था।
बहुत समय बीत गया पर श्रीकृष्ण का घरौंदा अच्छा नहीं बना।
भोजन का समय हो गया और सभी बालक भोजन के लिए घर जाना चाहते थे, पर श्रीकृष्ण अच्छा घरौंदा बनाने की जिद करने लगे और खीझते हुए कहने लगे:- ’मैं यहीं माटी खाऊंगा और घरौंदा बनाऊंगा, जब तक अच्छा नहीं बनेगा, उठूँगा नहीं।’
हठ में आकर उन्होंने सचमुच माटी खाली।
जब हठ में आकर उन्होंने सचमुच माटी खाली तो गोप बालकों ने जाकर यशोदामाता से शिकायत कर दी:- ’मां, कन्हैया ने माटी खायी है।’
सुन जशोदा माई, तेरे लाला ने माटी खाई...
अद्भुत खेल सखन संग खैल्यौ, इतनौ सौ माटी को डेल्यौ,
तुरत श्याम ने मुख से मेल्यौ, जानै गटक-गटक गटकाई॥
सुन जशोदा माई, तेरे लाला ने माटी खाई...
उन भोले-भाले ग्वालबालों को यह नहीं मालूम था कि पृथ्वी ने जब गाय का रूप धारणकर भगवान को पुकारा तब भगवान पृथ्वी के घर आये हैं।
पृथ्वी माटी, मिट्टी के रूप में है अत: जिसके घर आये हैं उसकी वस्तु तो खानी ही पड़ेगी, इसलिए यदि श्रीकृष्ण ने माटी खाली तो क्या हुआ?
‘बालक माटी खायेगा तो रोगी हो जायेगा’ ऐसा सोचकर यशोदा माता हाथ में छड़ी लेकर दौड़ी आयीं।
उन्होंने कान्हा का हाथ पकड़कर डाँटते हुये कहा:- ‘क्यों रे नटखट, तू अब बहुत ढीठ हो गया है।
तू अकेले में छिपकर माटी खाने लगा है, तेरे सब सखा क्या कह रहे हैं?
तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो सखाओं की ओर से गवाही दे रहे हैं।’
मोहन तें माटी क्यों खाई।
ठाडे ग्वाल कहत सब बालक जे तेरे समुदायी।।
मुकरि गये में सुनी न देखी झूठेई आनि बनाई।
दे प्रतीति पसारी वदन तब वसुधा दरसाई।।
मगन भई जसुमति मुख चितवन ऐसी बात उपजाई।
सूरदास उर लाइ लालको नोन उतारत राई।।
हमारे वेद, पुरान, श्रुतियां, उपनिषद् किसी में भी श्रीकृष्ण के लिए इस तरह ढीठ, चटोरा आदि शब्द नहीं बोले गए हैं।
ये अधिकार केवल एक मां को है जो परब्रह्मरूपी पुत्र के अनिष्ट की आशंका से उसे साँटी लेकर डांट सकती है और कह सकती है कि:-
’अरे ओ चटोरे, तेरी जीभ तेरे वश में नहीं है, हाथ तेरे वश में नहीं है, पांव तेरे वश में नहीं है।’
मैया के भय से श्रीकृष्ण के अधर सूख गये थे, श्रीकृष्ण के नेत्र भी डर के मारे नाच रहे थे।
श्रीकृष्ण के नेत्र सोच रहे हैं कि सत्य का पक्ष लें या स्वामी का पक्ष लें, इसलिए वे व्याकुल हो रहे हैं और उनसे बड़ी-बड़ी अश्रुबूंदें कपोलों पर ढुलकती हुई काजल की रेखा बना रही थी।
श्रीकृष्ण ने कहा:- ‘मैया, मैंने माटी कहां खायी है।’
यशोदामैया ने कहा कि:- 'अकेले में खायी है।'
श्रीकृष्ण ने कहा कि:- 'अकेले में खायी है तो किसने देखा?'
यशोदामैया ने कहा:- 'ग्वालों ने देखा।'
इस पर श्रीकृष्ण तर्क देते हैं कि:- 'यदि ग्वालों ने देखा तो मैं.अकेला नहीं था और अकेले में था तो ग्वाले साथ नहीं थे, ये सब मुझसे द्वेष करके झूठ बोल रहे हैं।'
मैया ने कहा कि:- 'अच्छा, तेरे ये सब साथी झूठे-तो-झूठे सही, पर तुम्हारा बड़ा भाई बलराम भी तो यही बोल रहा है।
अब बताओ, दाऊ दादा की बात का क्या जबाव है तुम्हारे पास?'
इतने में दाऊ दादा श्रीकृष्ण के पास आकर खड़े हो गए और बोले:- ’तुम सबको झूठा बताते हो, जरा बाहर चलो, हम तुम्हें बताते है कि सच क्या है।’
श्रीकृष्ण ने मैया से कहा:- ’तू इनको बड़ा सत्यवादी मानती है तो मेरा मुंह तुम्हारे सामने है, तुझे विश्वास न हो तो मेरा मुख देख ले।’
यह सब कहते समय श्रीकृष्ण के मन में यह बात थी कि कुछ दिन पूर्व जब मैंने जँभाई लेते समय अपना मुँह खोला था तब मां ने उसमें समस्त विश्व देख लिया था और डर के मारे आँखें बन्द कर लीं थी।
यदि आज भी मैं अपना मुँह खोलूंगा तो मैया अपनी आंखें बन्द कर लेगी और मैं बच जाऊंगा।
‘अच्छा खोल मुख’ - माता के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने अपना मुख खोल दिया।
भगवान के साथ ऐश्वर्यशक्ति सदा रहती है, उसने सोचा कि यदि हमारे स्वामी के मुंह में माटी निकल आयी तो यशोदामैया उनको मारेंगी, और यदि माटी नहीं निकली तो दाऊ दादा पीटेंगे।
इसलिए ऐसी कोई माया प्रकट करनी चाहिए जिससे माता व दाऊ दादा दोनों इधर-उधर हों जाएं और मैं अपने स्वामी को बीच के रास्ते से निकाल ले जाऊं।
श्रीकृष्ण के मुख खोलते ही यशोदाजी ने देखा कि मुख में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है।
आकाश, दिशाएं, पहाड़, द्वीप, समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहने वाली वायु, वैद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज अर्थात् प्रकृति, महतत्त्व, अहंकार, देवगण, इन्द्रियां, मन, बुद्धि, त्रिगुण, जीव, काल, कर्म, प्रारब्ध आदि तत्त्व भी मूर्त दीखने लगे।
पूरा त्रिभुवन है, उसमें जम्बूद्वीप है, उसमें भारतवर्ष है, और उसमें यह ब्रज, ब्रज में नन्दबाबा का घर, घर में भी यशोदा और वह भी श्रीकृष्ण का हाथ पकड़े।
बड़ा विस्मय हुआ माता को, उन्हें संदेह हुआ:-'यह है क्या, यह कोई स्वप्न है या भगवान की माया, कहीं मेरी बुद्धि में ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया?
सम्भव है, मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो।’
फिर उन्हें 8श्रीकृष्ण के स्वरूप का ज्ञान हो गया कि यह तो सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक नारायण हैं और वे उन्हें प्रणाम करने लगीं।
अब श्रीकृष्ण ने देखा कि मैया ने तो मेरा असली तत्त्व ही पहचान लिया है।
श्रीकृष्ण ने सोचा- 'यदि मैया को यह ज्ञान बना रहता है तो हो चुकी बाललीला, फिर तो वह मेरी नारायण के रूप में पूजा करेगी।
न तो अपनी गोद में बैठायेगी, न दूध पिलायेगी और न मारेगी, जिस उद्देश्य के लिए मैं बालक बना वह तो पूरा होगा ही नहीं।'
श्रीकृष्ण ने अपनी पुत्र स्नेहमयी वैष्णवी माया को उनके हृदय में संचार कर दिया, यशोदामाता तुरन्त उस घटना को भूल गयीं।
वात्सल्य से पूर्ण मैया ने लाला को गोद में उठा लिया और स्नेहपूर्वक उनका सिर सूँघने लगीं, माता का गुस्सा शांत हो गया।
उपनिषद्, सांख्य, योग, पांचरात्र आदि दूर-दूर से ही हाथ जोड़कर जिनकी महिमा का गान करते हैं, उन श्रीकृष्ण को यशोदामाता अपने अनन्त स्नेह से बेटा बनाकर गोदी में लिटाकर अपने हृदय का प्रेम-रस (दूध) पिला रही हैं और कृष्णप्रेम में तन्मय हो गयीं हैं।
भगवान श्रीकृष्ण की सभी लीलाएं बड़ी अटपटी हैं, उनसे अनेक बार ब्रह्मादिक देवता भी भ्रम में पड़ जाते हैं।
इन लीलाओं में ऐसी शक्ति है कि सांसारिक विषयों में फंसा मन अनायास ही संसार को भूल जाता है और श्रीकृष्ण से प्रेम करने लगता है।
श्रीकृष्ण और माँ यशोदा में होड़ सी लगी रहती, जितना यशोदा माता का वात्सल्य उमड़ता, उससे सौगुना बालकृष्ण अपना और लीलामाधुर्य बिखेर देते।
इसी क्रम में यशोदामाता का वात्सल्य अनन्त, असीम, अपार बन गया था, उसमें डूबी माँ के नेत्रों में रात-दिन श्रीकृष्ण ही बसे रहते।
कब दिन निकला, कब रात हुयी- यशोदा माता को यह भी किसी के बताने पर ही भान होता था।
इसी भाव-समाधि से जगाने के लिए ही मानो यशोदानन्दन ने मृद्-भक्षण (माटी खाने की) लीला की थी।
एक दिन श्रीकृष्ण बलराम व अन्य गोपों के साथ घरौंदे बनाने का खेल खेल रहे थे।
जो अपनी इच्छा से कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड बनाया-बिगाड़ा करते हैं, उसका घरौंदा अन्य बालकों से अच्छा नहीं बन पा रहा था।
बहुत समय बीत गया पर श्रीकृष्ण का घरौंदा अच्छा नहीं बना।
भोजन का समय हो गया और सभी बालक भोजन के लिए घर जाना चाहते थे, पर श्रीकृष्ण अच्छा घरौंदा बनाने की जिद करने लगे और खीझते हुए कहने लगे:- ’मैं यहीं माटी खाऊंगा और घरौंदा बनाऊंगा, जब तक अच्छा नहीं बनेगा, उठूँगा नहीं।’
हठ में आकर उन्होंने सचमुच माटी खाली।
जब हठ में आकर उन्होंने सचमुच माटी खाली तो गोप बालकों ने जाकर यशोदामाता से शिकायत कर दी:- ’मां, कन्हैया ने माटी खायी है।’
सुन जशोदा माई, तेरे लाला ने माटी खाई...
अद्भुत खेल सखन संग खैल्यौ, इतनौ सौ माटी को डेल्यौ,
तुरत श्याम ने मुख से मेल्यौ, जानै गटक-गटक गटकाई॥
सुन जशोदा माई, तेरे लाला ने माटी खाई...
उन भोले-भाले ग्वालबालों को यह नहीं मालूम था कि पृथ्वी ने जब गाय का रूप धारणकर भगवान को पुकारा तब भगवान पृथ्वी के घर आये हैं।
पृथ्वी माटी, मिट्टी के रूप में है अत: जिसके घर आये हैं उसकी वस्तु तो खानी ही पड़ेगी, इसलिए यदि श्रीकृष्ण ने माटी खाली तो क्या हुआ?
‘बालक माटी खायेगा तो रोगी हो जायेगा’ ऐसा सोचकर यशोदा माता हाथ में छड़ी लेकर दौड़ी आयीं।
उन्होंने कान्हा का हाथ पकड़कर डाँटते हुये कहा:- ‘क्यों रे नटखट, तू अब बहुत ढीठ हो गया है।
तू अकेले में छिपकर माटी खाने लगा है, तेरे सब सखा क्या कह रहे हैं?
तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो सखाओं की ओर से गवाही दे रहे हैं।’
मोहन तें माटी क्यों खाई।
ठाडे ग्वाल कहत सब बालक जे तेरे समुदायी।।
मुकरि गये में सुनी न देखी झूठेई आनि बनाई।
दे प्रतीति पसारी वदन तब वसुधा दरसाई।।
मगन भई जसुमति मुख चितवन ऐसी बात उपजाई।
सूरदास उर लाइ लालको नोन उतारत राई।।
हमारे वेद, पुरान, श्रुतियां, उपनिषद् किसी में भी श्रीकृष्ण के लिए इस तरह ढीठ, चटोरा आदि शब्द नहीं बोले गए हैं।
ये अधिकार केवल एक मां को है जो परब्रह्मरूपी पुत्र के अनिष्ट की आशंका से उसे साँटी लेकर डांट सकती है और कह सकती है कि:-
’अरे ओ चटोरे, तेरी जीभ तेरे वश में नहीं है, हाथ तेरे वश में नहीं है, पांव तेरे वश में नहीं है।’
मैया के भय से श्रीकृष्ण के अधर सूख गये थे, श्रीकृष्ण के नेत्र भी डर के मारे नाच रहे थे।
श्रीकृष्ण के नेत्र सोच रहे हैं कि सत्य का पक्ष लें या स्वामी का पक्ष लें, इसलिए वे व्याकुल हो रहे हैं और उनसे बड़ी-बड़ी अश्रुबूंदें कपोलों पर ढुलकती हुई काजल की रेखा बना रही थी।
श्रीकृष्ण ने कहा:- ‘मैया, मैंने माटी कहां खायी है।’
यशोदामैया ने कहा कि:- 'अकेले में खायी है।'
श्रीकृष्ण ने कहा कि:- 'अकेले में खायी है तो किसने देखा?'
यशोदामैया ने कहा:- 'ग्वालों ने देखा।'
इस पर श्रीकृष्ण तर्क देते हैं कि:- 'यदि ग्वालों ने देखा तो मैं.अकेला नहीं था और अकेले में था तो ग्वाले साथ नहीं थे, ये सब मुझसे द्वेष करके झूठ बोल रहे हैं।'
मैया ने कहा कि:- 'अच्छा, तेरे ये सब साथी झूठे-तो-झूठे सही, पर तुम्हारा बड़ा भाई बलराम भी तो यही बोल रहा है।
अब बताओ, दाऊ दादा की बात का क्या जबाव है तुम्हारे पास?'
इतने में दाऊ दादा श्रीकृष्ण के पास आकर खड़े हो गए और बोले:- ’तुम सबको झूठा बताते हो, जरा बाहर चलो, हम तुम्हें बताते है कि सच क्या है।’
श्रीकृष्ण ने मैया से कहा:- ’तू इनको बड़ा सत्यवादी मानती है तो मेरा मुंह तुम्हारे सामने है, तुझे विश्वास न हो तो मेरा मुख देख ले।’
यह सब कहते समय श्रीकृष्ण के मन में यह बात थी कि कुछ दिन पूर्व जब मैंने जँभाई लेते समय अपना मुँह खोला था तब मां ने उसमें समस्त विश्व देख लिया था और डर के मारे आँखें बन्द कर लीं थी।
यदि आज भी मैं अपना मुँह खोलूंगा तो मैया अपनी आंखें बन्द कर लेगी और मैं बच जाऊंगा।
‘अच्छा खोल मुख’ - माता के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने अपना मुख खोल दिया।
भगवान के साथ ऐश्वर्यशक्ति सदा रहती है, उसने सोचा कि यदि हमारे स्वामी के मुंह में माटी निकल आयी तो यशोदामैया उनको मारेंगी, और यदि माटी नहीं निकली तो दाऊ दादा पीटेंगे।
इसलिए ऐसी कोई माया प्रकट करनी चाहिए जिससे माता व दाऊ दादा दोनों इधर-उधर हों जाएं और मैं अपने स्वामी को बीच के रास्ते से निकाल ले जाऊं।
श्रीकृष्ण के मुख खोलते ही यशोदाजी ने देखा कि मुख में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है।
आकाश, दिशाएं, पहाड़, द्वीप, समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहने वाली वायु, वैद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज अर्थात् प्रकृति, महतत्त्व, अहंकार, देवगण, इन्द्रियां, मन, बुद्धि, त्रिगुण, जीव, काल, कर्म, प्रारब्ध आदि तत्त्व भी मूर्त दीखने लगे।
पूरा त्रिभुवन है, उसमें जम्बूद्वीप है, उसमें भारतवर्ष है, और उसमें यह ब्रज, ब्रज में नन्दबाबा का घर, घर में भी यशोदा और वह भी श्रीकृष्ण का हाथ पकड़े।
बड़ा विस्मय हुआ माता को, उन्हें संदेह हुआ:-'यह है क्या, यह कोई स्वप्न है या भगवान की माया, कहीं मेरी बुद्धि में ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया?
सम्भव है, मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो।’
फिर उन्हें 8श्रीकृष्ण के स्वरूप का ज्ञान हो गया कि यह तो सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक नारायण हैं और वे उन्हें प्रणाम करने लगीं।
अब श्रीकृष्ण ने देखा कि मैया ने तो मेरा असली तत्त्व ही पहचान लिया है।
श्रीकृष्ण ने सोचा- 'यदि मैया को यह ज्ञान बना रहता है तो हो चुकी बाललीला, फिर तो वह मेरी नारायण के रूप में पूजा करेगी।
न तो अपनी गोद में बैठायेगी, न दूध पिलायेगी और न मारेगी, जिस उद्देश्य के लिए मैं बालक बना वह तो पूरा होगा ही नहीं।'
श्रीकृष्ण ने अपनी पुत्र स्नेहमयी वैष्णवी माया को उनके हृदय में संचार कर दिया, यशोदामाता तुरन्त उस घटना को भूल गयीं।
वात्सल्य से पूर्ण मैया ने लाला को गोद में उठा लिया और स्नेहपूर्वक उनका सिर सूँघने लगीं, माता का गुस्सा शांत हो गया।
उपनिषद्, सांख्य, योग, पांचरात्र आदि दूर-दूर से ही हाथ जोड़कर जिनकी महिमा का गान करते हैं, उन श्रीकृष्ण को यशोदामाता अपने अनन्त स्नेह से बेटा बनाकर गोदी में लिटाकर अपने हृदय का प्रेम-रस (दूध) पिला रही हैं और कृष्णप्रेम में तन्मय हो गयीं हैं।
भगवान श्रीकृष्ण की सभी लीलाएं बड़ी अटपटी हैं, उनसे अनेक बार ब्रह्मादिक देवता भी भ्रम में पड़ जाते हैं।
इन लीलाओं में ऐसी शक्ति है कि सांसारिक विषयों में फंसा मन अनायास ही संसार को भूल जाता है और श्रीकृष्ण से प्रेम करने लगता है।
श्रीकृष्ण और माँ यशोदा में होड़ सी लगी रहती, जितना यशोदा माता का वात्सल्य उमड़ता, उससे सौगुना बालकृष्ण अपना और लीलामाधुर्य बिखेर देते।
इसी क्रम में यशोदामाता का वात्सल्य अनन्त, असीम, अपार बन गया था, उसमें डूबी माँ के नेत्रों में रात-दिन श्रीकृष्ण ही बसे रहते।
कब दिन निकला, कब रात हुयी- यशोदा माता को यह भी किसी के बताने पर ही भान होता था।
इसी भाव-समाधि से जगाने के लिए ही मानो यशोदानन्दन ने मृद्-भक्षण (माटी खाने की) लीला की थी।