"सजनी चल वा पिय के देस।
जहाँ न मोह-ममता की रजनी, जहाँ न बिछोह कलेस।।
जहँ नहिं आवन-जावन कितहूँ, पिय संग नित्य मिलाप।
जहँ नहिं ग्राम्य चर्चा को डर कछू, जहँ न अजस को पाप।।
जहँ नहिं होत अंग-संग कबहू, मिले रहैं दिन-रैंन।
बिछुरत नाहिं एक पल मन सौं मृतक सजीवन मैंन।।
सहज अकिंचन तन-मन सगरे भरे रहैं पिय नेह।
आठों जाम धाम प्रियतम के बरबस रस कौ मेह।।
जहाँ न मोह-ममता की रजनी, जहाँ न बिछोह कलेस।।
जहँ नहिं आवन-जावन कितहूँ, पिय संग नित्य मिलाप।
जहँ नहिं ग्राम्य चर्चा को डर कछू, जहँ न अजस को पाप।।
जहँ नहिं होत अंग-संग कबहू, मिले रहैं दिन-रैंन।
बिछुरत नाहिं एक पल मन सौं मृतक सजीवन मैंन।।
सहज अकिंचन तन-मन सगरे भरे रहैं पिय नेह।
आठों जाम धाम प्रियतम के बरबस रस कौ मेह।।