श्री चैतन्य चरित्रामृतम

Monday, 30 November 2020

कृष्णा भोग प्रसादम मन्त्र के साथ

Krishna Prasadam - Offering Bhog with Prayer (Bhog Mantra), Prayer before eating Prasadam 
Prasadam literally means “mercy” and devotees of ISKCON use this term to describe pure vegetarian food that has been offered to Lord Krishna. Food that has been offered to the Deities in the temple is known as maha-prasadam.

Most food contains karma which binds us to the cycle of birth and death because although it may be vegetarian one may still harm other living entities in the process of obtaining it: The farmer may accidentally kill insects during the cultivation of crops or the plants may feel some pain when they are uprooted. However, when the food is prepared for the pleasure of Krishna He accepts the love and devotion present in the offering and removes all sins from it. The karma present in the food is therefore transformed into spiritual energy. Honoring (eating) this sanctified prasadam is the basis of bhakti-yoga and helps one to make tangible spiritual advancement. Sharing and distributing prasadam is also very important!

What can we offer to Krishna?
Krishna explains in the Bhagavad-gita that “if one offers me with love and devotion a leaf, a flower, fruit, or water, I will accept it.” Krishna does not accept meat, fish or eggs. Onions, garlic and caffeine are also not offered because they cause disturbance to the mind and are therefore not beneficial for meditation and spiritual life. One should use fresh, natural ingredients as far as possible. One should also pay special attention to all labels of items bought in supermarkets: cheese may contain non-vegetarian rennet, some yogurts contain gelatin and many non-vegetarian products are hidden behind e-numbers, preservatives, flavours and colours.

How to prepare an offering for Krishna
Cleanliness is next to Godliness, so one should keep the kitchen very clean. As the food is to be offered to Krishna, the Supreme Enjoyer, one should not taste anything before the offering is made. The most essential ingredients are love and devotion, so while cooking one should remember that one is cooking for Krishna’s pleasure. Listening to a devotional songs or kirtans helps create a nice meditative mood in the kitchen.

Making an bhog offering to Krishna
A portion of each preparation is arranged in Krishna’s personal plate and bowls. Fresh water is offered in His cup. A Tulasi leaf is placed on each preparation.

Beginners may chant the maha-mantra Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare three times.

For a more elaborate offering the prayers below are chanted three times each while ringing a bell. Although the offering is made to Krishna, it is done through the spiritual master, Srila Prabhupada, so we begin with prayers to his lotus feet:

1. Prayer to Srila Prabhupada:
nama om visnu-padaya krishna-presthaya bhutale,
srimate bhaktivedanta-swamin iti namine
namas te sarasvate deve gaura-vani-pracharine,
nirvishesha sunyavadi paschyatya desha tarine


नमः ॐ विष्णु पादय, कृष्ण पृष्ठाय भूतले, 
श्रीमते भक्ति वेदांत स्वामिन इति नामिने ।
नमस्ते सरस्वते देवे गौर वाणी प्रचारिणे, 
निर्विशेष शून्य-वादी पाश्चात्य देश तारिणे ।।

"I offer my respectful obeisances unto His Divine Grace A. C. Bhaktivedanta Swami Srila Prabhupada, who is very dear to Lord Krishna, having taken shelter at His lotus feet. Our respectful obeisances are unto you, O spiritual master, servant of Bhaktisiddhanta Sarasvati Goswami. You are kindly preaching the message of Lord Chaitanya Mahaprabhu and delivering the western countries, which are filled with impersonalism and voidism."

2. Prayer to Lord Chaitanya:
namo maha-vadanyaya, krishna-prema-pradaya te 
krishnaya krishna-chaitanya, namne gaura-twishe namah

नमो महा-वदान्याय, कृष्ण प्रेम प्रदायते।
कृष्णाय कृष्ण चैतन्य, नामने गोर-तविशे नमः ॥

"O most munificent incarnation! You are Krishna Himself appearing as Shri Krishna Chaitanya Mahaprabhu. You have assumed the golden colour of Srimati Radharani and You are widely distributing pure love of Krishna. We offer our respectful obeisances unto You."

3. Prayer to Lord Krishna:

namo brahmanya-devaya go-brahmana-hitaya ca 
jagad-dhitaya krishnaya govindaya namo namah

नमो ब्रह्माण्ड दवाये, गो ब्राह्मण हिताय च । 
जगत धिताय कृष्णाय, गोविन्दाय नमो नमः॥

"I offer my respectful obeisances unto Lord Krishna, who is the worshipable Deity for all brahmanas, the well-wisher of the cows and the brahmanas and the benefactor of the whole world. I offer my repeated obeisances to the Personality of Godhead, known as Krishna and Govinda."

After offering the food to the Lord, we wait some minutes for Him to relish the preparations. Then the food is transferred from Krishna’s plate back into their respective recipients. Krishna’s plates need to be washed before the prasadam is served.
A special prayer is recited by devotees before honoring the prasadam, to thank the Lord for his mercy.

maha-prasade govinde 
nama-brahmani vaisnave 
svalpa-punya-vatam rajan 
visvaso naiva jayate 

"O king, for those who have amassed very few pious activities, their faith in maha-prasada, in Shri Govinda, in the Holy Name and in the Vaisnava is never born."

sarira abidya-jal, jodendriya tahe kal, 
jibe phele bisaya-sagore 
taar madhye jihva ati, lobhamoy sudurmati 
taake jeta kathina somsare

krsna baro doyamoy, karibare jihva jay, 
swa-prasad-anna dilo bhai 
sei annamrta khao, radha-krsna-guna gao, 
preme dako caitanya-nitai

"This material body is a place of ignorance, and the senses are a network of paths to death. The senses throw the soul into this ocean of material sense enjoyment and, of all the senses, the tongue is most voracious and uncontrollable; it is very difficult to conquer the tongue in this world. O brothers! Lord Krishna is very kind to us and has given us such nice prasada, just to control the tongue. Now let us take this prasada to our full satisfaction and glorify Their Lordships, Shri Shri Radha and Krishna and, in love, call for the help of Lord Chaitanya and Prabhu Nityananda."

Monday, 9 November 2020

श्री राधा कुंड इतिहास कथा shri radha kund started facts 🙇🙏

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राधा कुंड (कृष्ण कुंड) का इतिहास –
#Radha Kund / राधा कुंड के बारे में मान्यता हैं की जब कंस भगवान श्रीकृष्ण का वध करना चाहता था। इसके लिए कंस ने अरिष्टासुर राक्षस को भी भेजा था। अरिष्टासुर बछड़े का रूप बनाकर श्रीकृष्ण की गायों में शामिल हो गया और बाल-ग्वालों को मारने लगा। श्रीकृष्ण ने बछड़े के रूप में छिपे राक्षस को पहचान लिया और उसे पकड़कर जमीन पर पटककर उसका वध कर दिया। यह देखकर राधा ने श्रीकृष्ण से कहा कि उन्हें गो-हत्या का पाप लग गया है और इस पापा की मुक्ति के लिए उन्हें सभी तीर्थों के दर्शन करने चाहिए। कृष्ण इस विनती को सुनकर हँसे और जिस जगह पर खड़े थे वहां पर ज़ोर से पैर पटका। राधा द्वारा बताई गई सारी नदियाँ वहां उत्पन्न हुईं और वहां पर कुंड बन गया। भगवान कृष्ण ने स्नान किया और इस कुंड को श्याम कुंड (Shyam kund) अथवा कृष्ण कुंड भी कहते हैं।
कृष्ण के इस तरह के शक्ति प्रदर्शन से राधा क्रोधित हो गयीं। उन्होंने अपनी सहेली गोपियों के साथ मिलकर अपनी चूड़ियों की मदद से एक गड्ढा खोदा और उसमें मानसी गंगा का पानी भर दिया। इस तरह गोवर्धन के पास एक विशाल झील राधा कुंड का निर्माण हुआ। राधा कुंड के विषय में मान्यता है कि यदि किसी दंपत्ति को संतान की प्राप्ति नहीं हो रही है और वे अहोई अष्टमी (कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी) की मध्य रात्रि को इस कुंड में स्नान करते हैं तो उन्हें संतान की प्राप्ति हो सकती है।

 
गोवर्धन से पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह कुंड काफी श्रद्धालुओं को अपनी ओर खींचता है। अक्टूबर और नवम्बर के महीने में यहाँ काफी भीड़ होती है जब उत्सव को मनाने के लिए वार्षिक मेला का आयोजन होता है। लोग इस कुंड में डुबकी लगाकर अपने पापों को धोते हैं।

पुराणों में वर्णित – 
पद्म पुराण में कहा गया है कि जिस प्रकार समस्त गोपियों में राधाजी श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय हैं, उनकी सर्वाधिक प्राणवल्लभा हैं, उसी प्रकार राधाजी का प्रियकुण्ड भी उन्हें अत्यन्त प्रिय है। और भी वराह पुराण में है किहे श्रीराधाकुण्ड! हे श्रीकृष्णकुण्ड! आप दोनों समस्त पापों को क्षय करने वाले तथा अपने प्रेमरूप कैवल्य को देने वाले हैं। आपको पुन:-पुन: नमस्कार है इन दोनों कुण्डों का माहत्म्य विभिन्न पुराणों में प्रचुर रूप से उल्लिखित है। श्री रघुनाथदास गोस्वामी यहाँ तक कहते हैं कि ब्रजमंडल की अन्यान्य लीलास्थलियों की तो बात ही क्या, श्री वृन्दावन जो रसमयी रासस्थली के कारण परम सुरम्य है तथा श्रीमान गोवर्धन भी जो रसमयी रास और युगल की रहस्यमयी केलि–क्रीड़ा के स्थल हैं, ये दोनों भी श्रीमुकुन्द के प्राणों से भी अधिक प्रिय श्रीराधाकुण्ड की महिमा के अंश के अंश लेश मात्र भी बराबरी नहीं कर सकते। ऐसे श्रीराधाकुण्ड में मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

श्रीराधाकुण्ड गोवर्धन से प्राय: 3 मील उत्तर–पूर्व कोण में स्थित है। गाँव का नाम आरिट है। यहीं अरिष्टासुर का वध हुआ था। वृन्दावन और मथुरा दोनों से यह 14 मील की दूरी पर अवस्थित है। श्रीराधाकुण्ड श्रीराधाकृष्ण युगल के मध्याह्रक–लीलाविलासका स्थल है। यहाँ श्रीराधाकृष्ण की स्वच्छन्दतापूर्वक नाना प्रकार की केलि–क्रीड़ाएँ सम्पन्न होती हैं। जो अन्यत्र कहीं भी सम्भव नहीं है। इसलिए इसे नन्दगाँव, बरसाना, वृन्दावन और गोवर्धन से भी श्रेष्ठ भजन का स्थल माना गया है। इसलिए श्रीराधाभाव एवं कान्ति सुवलित श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं इस परमोच्च भावयुक्त रहस्यमय स्थल का प्रकाश किया है। उनसे पूर्व श्रीमाधवेन्द्रपुरी, श्रीलोकनाथ गोस्वामी, श्रीभूगर्भ गोस्वामी श्री ब्रज में आये और कृष्ण की विभिन्न लीलास्थलियों का प्रकाश किया, किन्तु उन्होंने भी इस परमोच्च रहस्यमयी स्थली का प्रकाश नहीं किया। स्वयं श्रीराधाकृष्ण मिलिततनु श्रीगौरसुन्दर ने ही इसका प्रकाश किया।
कथा-प्रसंग
श्री कृष्ण ने जिस दिन अरिष्टासुर का वध किया, उसी दिन रात्रिकाल में इसी स्थल पर श्रीकृष्ण के साथ श्री राधिका आदि प्रियाओं का मिलन हुआ। श्रीकृष्ण ने बड़े आतुर होकर राधिका का आलिंगन करने के लिए अपने कर पल्लवों को बढ़ाया, उस समय राधिका परिहास करती हुई पीछे हट गयी और बोलीं– आज तुमने एक वृष (गोवंश) की हत्या की है। इसलिए तुम्हें गो हत्या का पाप लगा है, अत: मरे पवित्र अंगों का स्पर्श मत करो। किन्तु कृष्ण ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया। –प्रियतमे! मैंने एक असुर का वध किया है। उसने छलकर साँड का वेश बना लिया था। अत: मुझे पाप कैसे स्पर्श कर सकता है? राधिका ने कहा- जैसा भी हो तुमने साँड के रूप में ही उसे मारा हैं। अत: गो हत्या का पाप अवश्य ही तुम्हें स्पर्श कर रहा है। सखियों ने भी इसका अनुमोदन किया। प्रायश्चित्त का उपाय पूछने पर राधिकाजी ने मुस्कराते हुए भूमण्डल के समस्त तीर्थों में स्नान को ही प्रायश्चित्त बतलाया। ऐसा सुनकर श्रीकृष्ण ने अपनी एड़ी की चोट से एक विशाल कुण्ड का निर्माण कर उसमें भूमण्डल के सारे तीर्थों को आह्वान किया। साथ ही साथ असंख्य तीर्थ रूप धारण कर वहाँ उपस्थित हुए। कृष्ण ने उन्हें जलरूप से उस कुण्ड में प्रवेश करने को कहा। कुण्ड तत्क्षणात परम पवित्र एवं निर्मल जल से परिपूर्ण हो गया।

श्रीकृष्ण उस कुण्ड में स्नान कर राधिकाजी को पुन: स्पर्श करने के लिए अग्रसर हुए: किन्तु राधिका स्वयं उससे भी सुन्दर जलपूर्ण वृहद कुण्ड को प्रकाश कर प्रियतम के आस्फालन का उत्तर देना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने तुनक-कर पास में ही सखियों के साथ अपने कंकण के द्वारा एक परम मनोहर कुण्ड का निर्माण किया। किन्तु उसमें एक बूँद भी जल नहीं निकला। कृष्ण ने परिहास करते हुए गोपी|गोपियों को अपने कुण्ड से जल लेने के लिए कहा, किन्तु राधिकाजी अपनी अगणित सखियों के साथ घड़े लेकर मानसी गंगा से पानी भर लाने के लिए प्रस्तुत हुई, किन्तु श्रीकृष्ण ने तीर्थों को मार्ग में सत्याग्रह करने के लिए इंगित किया। तीर्थों ने रूप धारणकर सखियों सहित राधिकाजी की बहुत सी स्तुतियाँ कीं, राधिकाजी ने प्रसन्न होकर अपने कुण्ड में उन्हें प्रवेश करने की अनुमति दी। साथ ही साथ तीर्थों के जल प्रवाह ने कृष्णकुण्ड से राधाकुण्ड को भी परिपूर्ण कर दिया। श्रीकृष्ण ने राधिका एवं सखियों के साथ इस प्रिय कुण्ड में उल्लासपूर्वक स्नान एवं जल विहार किया। अर्धरात्रि के समय दोनों कुण्डों का प्रकाश हुआ था। उस दिन कार्तिक माह की कृष्णाष्टमी थी, अत: उस बहुलाष्टमी की अर्द्धरात्रि में लाखों लोग यहाँ स्नान करते हैं।

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Tuesday, 13 October 2020

वराह घाट लीला दर्शन मधुर भाव श्री हरिवंश

आज  के  विचार

("वराह घाट" - वृन्दावन परिक्रमा )

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अहंकार हो गया था पृथ्वी को .......और हो क्यों नही !   पृथ्वी के लिये ही तो आदिपुरुष नारायण नें वराह का रूप धारण किया था ........

"मेरे बिना ये सृष्टि टिकेगी ही नही".....मूल कारण यही था पृथ्वी के अहंकार का.....हिरण्याक्ष नामक  राक्षस का उद्धार कर दिया था  आदिनारायण वराह नें,    अपनी  दाढ़ों में पृथ्वी को टिकाये चले जा रहे थे  ।

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परिक्रमा करते हुए  तीसरा पढ़ाव हमारा था    "वराहघाट"  ।

ये बड़ा प्राचीन स्थान है.........इसकी महिमा भी बड़ी पुरानी है ........नही नही ......मात्र  द्वापर में कृष्णावतार   को लेकर ही वृन्दावन प्रकाश में आया .........ऐसा मानना गलत होगा ..........वृन्दावन  तो अखण्ड है ...अनादि है ..........हाँ ..........सतयुग में  वराह अवतार हुआ ...........तब   पृथ्वी के साथ  वृन्दावन का परिचय हुआ था ......और वृन्दावन नें   अपनी महिमा विश्व को दिखाई थी ........

ये कथा "वराह पुराण" में  लिखी है  ।

व्यास जी !  आप तो जानते ही हो ........वृन्दावन में  आज भी ऐसे ऐसे दिव्य  महात्मा  विराजमान हैं .........आज भी  ।

ये मथुरा के चतुर्वेदी ब्राह्मण हैं .............जो आज मेरे साथ चल रहे थे ........ये बात   वही बता रहे थे मुझे     ।

और ये  है  इस "वराहघाट" का प्राचीन आश्रम......गौतम ऋषि आश्रम ।

मैने उस आश्रम को प्रणाम किया .......सिद्ध सन्तों का आश्रम था ये ......प्राचीन निम्बार्क सम्प्रदाय का आश्रम  ।

"श्री शुकदेव दास जी".........अद्भुत  सिद्ध सन्त ......और  शास्त्रीय संगीत के  प्रकाण्ड विद्वान .........पर  परम विरक्त ...........अपरिग्रही .......एकांतसेवी ..........पण्डित श्रीजसराज  जी जैसों  को संगीत का वास्तविक अर्थ जिन्होनें समझाया.........ऐसे  सन्त का  ये आश्रम है ......."मैने दर्शन किये हैं उनके"........मैने इतना ही कहा .........मैने इन  महात्मा के  बारे में बहुत कुछ सुना है ......कहते हैं  राजस्थान के जंगलों में  संगीत को गाते हुये   एक सिंह  को  अपना शिष्य बना लिया था इन्होनें ..........श्रीशुकदेव दास जी   ।

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गम्भीरा में  ( राधारमण मन्दिर का क्षेत्र )     आज कार्यक्रम है पण्डित जसराज जी का........वृन्दावन के सारे  संगीत प्रेमी इकट्ठे हुए थे ।

"मैं खयाल नही गाऊंगा   मैं ध्रुपद का गायन करूँगा" 

......श्रीराधारमण के गोसाइँ जी से  पण्डित जसराज जी नें कहा था ।

और बड़ी ठसक के साथ  मंच पर बैठ गए थे पण्डित जी  ।

गायन की शुरुआत  उन्होंने   ख्याल से की ...........पर  बीच में जाकर पण्डित जी बोले ........मैं अब  ध्रुपद गाऊंगा ...........

श्रोताओं को पता है   कि पण्डित जी ध्रुपद के गायक नही हैं .....ख्याल ही गाते हैं ........पर आज ध्रुपद !    श्रोता आनन्दित थे ।

पण्डित जसराज जी नें   गायन शुरू किया था .........दस मिनट ही हुए होंगें ......एक  हरिदासी सम्प्रदाय के साधू उठे ......और हँसते हुए बड़ी सहजता से बोले ..........पण्डित जी !   ये वृन्दावन है .......यहाँ  ध्रुपद मत गाइये ........ये आपका विषय नही है ....ख्याल ही सुनाइये ।

साधू फक्कड़ थे ..........जसराज जी नें सोचा भी नही था कि .....ऐसा साधू  भी  संगीत की इतनी सूक्ष्म समझ रखता है  ।

कार्यक्रम पूरा हुआ .................

आपको क्या लगता है.?

....श्री राधारमण के  गोसाइँ जी से बातें कर रहे थे जसराज जी  ।

ये वृन्दावन है  जसराज जी !   यहाँ के  साधारण दीखनें वाले साधू  भी अद्भुत  गाते हैं ........ये  स्वामी श्रीहरिदास जी की भूमि है .....इसे साधरण न समझें आप  ।

बस गोसाइँ जी के मुख से ये सुनते ही  जी मचल उठा था  पण्डित जसराज जी का ...........कि किसी  महात्मा से मिलूँगा  जिसे  मुझ से ज्यादा  समझ हो संगीत की ।

व्यास जी !  अहंकार  ,  वो  भी  ठाकुर जी के दरबार में ?

वे चतुर्वेदी माथुर  ब्राह्मण मुझे ये बता रहे थे  ।

परिक्रमा करनें के लिये उस रात निकल गए थे पण्डित जसराज जी ......

मन में  उन महात्मा की वाणी  विचलित कर रही थी .......

"ध्रुपद मत गाइये .....आप तो ख्याल का ही गायन कीजिये"

मैं  ?

 मैं  विश्व का प्रसिद्ध संगीतज्ञ ....और एक  साधारण से साधू नें  ।

यहीं वराह घाट से निकल रहे थे पण्डित जसराज जी  ।

तभी  - 

"युगल किशोर  हमारे ठाकुर"

सदा सर्वदा  हम जिनके हैं,  जनम जनम घर जाए चाकर !! 

मधुर कण्ठ .....रियाज़ का कण्ठ नही .......स्वाभाविक  मधुरता लिए हुए कण्ठ .........और  अलाप .......सहज ...........कोई प्रयास नही करना पड़ रहा था उन्हें ...........

दौड़े  पण्डित जसराज जी..........भीतर  एक महात्मा ............मात्र लँगोटी शरीर में.......हाथ में तानपुरा .......नेत्रों से  अश्रु प्रवाहित  ।

"चूक परे  परिहरहिंन कबहुँ ,  सबहीं भाँति दया के आगर !

युगल किशोर  हमारे ठाकुर , युगल किशोर  हमारे ठाकुर ।"

आहा !    क्या कण्ठ है ......क्या गायकी है   ।

रोमांच हो गया था  पण्डित जसराज जी को  ।

चरणों में पड़ गए थे ..

........बारबार "जय हो जय हो"  का  उच्चारण कर रहे थे  ।

क्या हुआ ?      कौन हो तुम ?      बाबा श्री शुकदेव दास जी नें  पण्डित जसराज जी से पूछा था  ।

मैं  जसराज ...........आपनें नाम सुना ही होगा !

अहंकार अभी बचा था ..........बाबा श्रीशुकदेव दास जी नें उत्तर दिया ......नही ...........मैं  किसी को नही जानता .........

टूट गया  अहंकार ..........मैं  क्या   अच्छे अच्छे संगीतकार इनके आगे कुछ नही हैं .............जसराज जी समझ गए थे  ।

"आप मेरे साथ बम्बई चलें"..........मेरी प्रार्थना है ............एक कार्यक्रम बम्बई में आप दें .........मेरी प्रार्थना है .........लता दीदी भी आपको सुनकर बहुत प्रसन्न होंगीं ........वो भी धन्यता का अनुभव करेंगी ।

बहुत कहा.................

नही .......मैं  क्यों जाऊँ बम्बई ?      मेरा क्या प्रयोजन  बम्बई से ।

विरक्त शिरोमणि श्रीशुकदेव दास जी बोले ...........

मैं  किसी के लिये नही गाता........मैं तो अपनें "युगल सरकार" के लिये गाता हूँ .......मैं उनको रिझानेँ के लिये गाता हूँ ......

जाओ  अब !      तुम्हारे आनें से मेरे "युगलवर" को संगीत सुननें में विघ्न हो रहा है ......जाओ  तुम  !    

क्या कहते  पण्डित जसराज.......बस सिर झुकाकर फिर प्रणाम किया ........और  वहाँ से चल दिए ..........पर  वृन्दावन की भूमि को समझ गए थे  ये.....कि ये भूमि  अच्छों अच्छों  का अहंकार तोड़ती है ।

और यही  वराह घाट में उनका आश्रम था ......और यही आश्रम है  उनका ........मुझे पता है ........मैं बचपन में बहुत  प्रसाद पाया हूँ  ये मेरा सौभाग्य है   ।  मैने  वराह घाट को प्रणाम किया  ।  

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मेरे बिना कुछ स्थिर नही रहेगा ......मैं हूँ  तो सम्पूर्ण सृष्टि है  ।

अहंकार से भर गयी थी पृथ्वी........वराहपुराण की बड़ी प्रामाणिक कथा  सुनानें लगे थे  चतुर्वेदी जी  ।

सुन्दर वन,  अत्यधिक सुन्दर....सुन्दर सुन्दर वृक्ष , लता पत्र ,  कुँजें , ताल ......ताल में खिले नाना प्रकार के कमल पुष्प........

ये क्या है  ?   पृथ्वीदेवी  चौंकीं......ये सब क्या है  ?   वराह भगवान से पूछनें लगीं थीं  ।

मेरे बिना  ये सुन्दर वन किस आधार पर  है   ।

तब  हँसे  थे  वराहनारायण .........और बोले -  हे देवी !  इस वन को "वृन्दावन" कहते हैं..........ये भगवान श्रीश्याम सुन्दर  और उनकी आल्हादिनी श्रीराधारानी की  नित्य विहारस्थली है  ।

तुम्हारी आवश्यकता नही है इस वृन्दावन को .......महाप्रलय में सब कुछ जल मग्न हो जाता है .....तुम भी .........पर  ये वृन्दावन स्वयं में प्रकाशित रहता है .........इसमें प्रलय का कोई प्रभाव नही पड़ता ।

वराह नारायण की बातों से पृथ्वी का अहंकार चूर्ण चूर्ण हो गया था ।

यही स्थान था  ,  वो पौराणिक स्थान  जहाँ वराह नारायण नें पृथ्वी का अहंकार  नष्ट किया था .......और श्रीधाम वृन्दावन के दर्शन कराये थे .......इसलिये इसे  "वराहघाट" कहते हैं  ।

बोलो  श्रीवृन्दावन धाम की  जय   ।

आज हमारे प्रिय  माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण के साथ  श्रीधाम की हम लोग परिक्रमा लगा रहे थे.....जिसमें "वराहघाट" की चर्चा आज प्रमुख थी  ।
जय जय श्री राधेेेश्या
जय श्री हरिवंश मेरो राधा वल्लभ लाल की जय 

Monday, 12 October 2020

माता-पिता के साथ से जीवन सदा खुशियों से भर जाता है always happening life with parents happy parents day special

रामचरितमानस के अयोध्या कांड में भगवान राम के वनगमन के समय का यह प्रसंग है, जहां भगवान राम कहते हैं कि इस जगत में उसी का जन्म धन्य है, जिसको माता-पिता प्राणों के समान प्रिय हैं, उसके करतल (मुट्‌ठी) में चारों पदार्थ अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष रहते हैं। आगे वे कहते हैं- 
हे माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी है, जो पिता-माता के वचनों का अनुरागी (पालन करने वाला) है। (आज्ञा पालन द्वारा) माता-पिता को संतुष्ट करने वाला पुत्र, हे जननी! सारे संसार में दुर्लभ है॥
राम वन गमन के समय मां कौशल्या की पीड़ा अत्यंत द्रवीभूत होती है, हृदय में कंपन सा है, जीवन की यह यात्रा बोझिल हो गई है, शरीर की नाड़ियां निष्प्राण होने लगी हैं। मां का पुत्र के प्रति यह कैसा प्रेम, जहां राम का वनगमन मां कौशल्या के जीवन की सारी आशाएं क्षीण हो रही थीं, वहां सिर्फ पुत्र के प्रेम की ही अभिलाषा है कि वह अपनी मनोव्यथा से उबरने के लिए स्वयं को स्वयं ही समझाने का अनुरोध करती है। 
यह प्रसंग मानस की करुण व्यथा का सशक्त उदाहरण है। मां का पुत्र के प्रति कर्तव्य की अनन्य अभिव्यक्ति इस दोहे से परिलक्षित होती है, जब मां बार-बार दुख से कातर हो रही है, तब भगवान राम उनको ह्रदय से लगाते हैं- ‘राम उठाई मातु उर लाई।’ 
भगवान राम आगे लखन को भी समझाते हैं- हे भाई इस जगत में माता-पिता की सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। तुम यहीं रहकर उनकी सेवा करो, लेकिन अंतत वे राम के ही साथ हो लिए। माता कैकेयी का भी अपने पुत्रों से प्रेम अथाह है, तभी तो राम जब अयोध्या लौटते हैं तो सबसे पहले माता कैकेयी के भवन मे जाते हैं। माता कैकेयी को भी सही दिशा नजर नहीं आती, उनकी वेदना के जल की थाह नहीं है। 

संदेश -मां-बाप के स्नेह एवं दर्शन से जीवन हरा-भरा हो उठता है एवं बच्चों को वे उनके सरस जीवन स्नेह से सिंचित करते रहते हैं। 
🚩जय सियाराम 🚩

कलयुग में शास्त्रों के 25 अनमोल वचन most important shastriy order around 25 must read

.      _*Must Read 25 Vachan*_
 *साधक ध्यान दे* 

1. _भजन का उत्तम समय सुबह 3 से 6 होता है|_

2. _24 घंटे में से 3 घंटों पर आप का हक नही, ये समय गुरु का है |_

3. _कमाए हुए धन का 10 वा अंश गुरु का है. इसे परमार्थ में लगा देना चाहिए|_

4. _गुरु आदेश को पालना ही गुरु भक्ति है | गुरु का पहला आदेश भजन का है जो नामदान के समय मिला था |_

5. _24 घंटों के जो भी काम, सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक करो सब गुरु को समर्पित करके करोगे तो कर्म लागू नही होंगे | अपने उपर ले लोगे तो पांडवों की तरह नरक जाने पड़ेगा, जो हो रहा है उसे गुरु की मोज समझो |_

6. _24 घंटे मन में सुमिरन करने से मन और अन्तःकरण साफ़ रहता है. और गुरु की याद भी हमेशा रहेगी. यही तो सुमिरन है|_

7. _भजन करने वालो को, भजन न करने वाले पागल कहते है | मीरा को भी तो लोगो ने प्रेम दीवानी कहा था |_

8. _कही कुछ खाओ तो सोच समझ कर खाओ, क्योंकि जिसका अन्न खाओगे तो मन भी वैसा ही हो जायेगा_

_मांसाहारी के यहाँ का खा लिए तो फिर मन भजन में नही लगेगा |_

_“जैसा खाए अन्न वैसा होवे मन, जेसा पीवे पानी वैसी होवे वाणी.”_

9. _गुरु का आदेश, एक प्रार्थना रोज़ होनी चाहिए |_

10. _सामूहिक सत्संग ध्यान भजन से लाभ मिलता है. एक कक्षा में होंशियार विद्यार्थी के पास बेठ कर कमजोर विद्यार्थी भी कुछ सीख लेता है, और कक्षा में उतीर्ण हो जाता है |_

11. _गुरु का प्रसाद यानी “बरक्कत” रोज़ लेनी चाहिए |_

12. _भोजन दिन में 2 बार करते हो तो भजन भी दिन में २ बार करना चाहिए, जिस दिन भजन न पावो उस दिन भोजन भी करने का हक नही |_

13. _हर जीव में परमात्मा का अंश है इसलिए सब पर दया करो, सब के प्रति प्रेम भाव रखो, चाहे वो आपका दुश्मन ही क्यों न हो. इसे सोचोगे की मैं परमात्मा की हर रूह से प्रेम करता हूँ तो भजन भी बनने लगेगा |_

14. _परमार्थ का रास्ता प्रेम का है, दिमाग लगाने लगोगे तो दुनिया की बातो में फंस के रह जाओगे |_

15. _अगर 24 घंटो में भजन के लिए समय नही निकाल पाते हो तो इससे अच्छा है चुल्लू भर पानी में डूब मरो |_

16. _आज के समय में वही समझदार है जो घर गृहस्थी का काम करते हुए भजन करके यहाँ से निकल चले, वरना बाद में तो रोने के सिवाय कुछ नही मिलने वाला |_

17. _अपनी मौत को हमेशा याद रखो. मौत याद रहेगी तो मन कभी भजन में रुखा नही होगा. मौत समय बताके नही आएगी |_

18. _साथ तो भजन जायेगा और कुछ नही. इसलिए कर लेने में ही भलाई है, और जगत के काम झूंठे है |_

19. _नरकों की एक झलक अगर दिखा दी जाये तो मानसिक संतुलन खो बैठोगे. इसलिए तो महात्माओ ने बताया सब सही है. वो किसी का नुकसान नही चाहते | बात तो बस विश्वास की है |_

20. _भोजन तो बस जीने के लिए खाओ. खाने के लिए मत जीवो. भोजन शरीर रक्षा के लिए करो |_

21. _परमार्थ में शरीर को सुखाना पड़ता है मन और इन्द्रियों को वश में करना पड़ता है जो ये करे वही परमार्थ के लायक है |_

22. _अपने भाग्य को सराहो कि आपको गुरु और नामदान मिल गये, जब दुनिया रोती नजर आएगी तब इसकी कीमत समझोगे |_

23. _किसी की निंदा मत करो वरना उसके कर्मो के भार तले दब जाओगे. क्यों किसी के कर्मों के लीद का पहाड़ अपने सर पर ले रहे हो |_

24. _भजन ना बनने का कारण है गुरु के वचनों का याद न रहना, गुरु वचनों को माला की तरह फेरते रहो जैसे एक कंगला अपनी झोली को बार बार टटोलता है |_
25. _इस कल युग में तीन बातो से जीव का कल्याण हो सकता है. एक सतगुरु पूरे का साथ, दूसरा साधु की संगत और तीसरा “नाम” का सुमिरन, ध्यान और भजन,बाकी सब झगड़े की बाते है इस वक्त में सिवाय इन तीन बातो के और कर्मो में जीव का अकाज होता है  !!_🙏🙏🙏

Sunday, 27 September 2020

भाव प्रार्थना

भजन करते करते जब साधक के अंदर एक और देह उत्पन्न हो जाता हैं 
जिसे भाव देह कहते है 
     भाव देह निरंतर इसी भाव में भरा रहता की मैं श्री जी की हूँ उनकी सखी हूँ इसी को *उपासना*
कहते हैं 
निरंतर अपने गुरु द्वारा दिए हुए भाव का दृढ़ता से चिंतन इसी से भाव देह विकसित होता हैं 
  *निरंतर भाव में रहना हि उपासनाहै *
जो गोपी रास में अपने परिजनों द्वारा रोक दी गयी थी 
वे उनसे भी प्रथम पहुँची  
जो देह से गईं थी 
क्योंकि भाव देह ही मिलता हैं 
भाव ही मिलन हैं 

भजन से भाव की वृद्धी होती हैं 
उपासना में भाव की स्तिथि रहती हैं

Friday, 18 September 2020

aarti yugal kishori ki


आरती युगल किशोर की कीजै।
तन मन धन न्योछावर कीजै॥

गौरश्याम मुख निरखन लीजै।
हरि का रूप नयन भरि पीजै॥

रवि शशि कोटि बदन की शोभा।
ताहि निरखि मेरो मन लोभा॥

ओढ़े नील पीत पट सारी।
कुंजबिहारी गिरिवरधारी॥

फूलन सेज फूल की माला।
रत्न सिंहासन बैठे नंदलाला॥

कंचन थार कपूर की बाती।
हरि आए निर्मल भई छाती॥

श्री पुरुषोत्तम गिरिवरधारी।
आरती करें सकल नर नारी॥

नंदनंदन बृजभान किशोरी।
परमानंद स्वामी अविचल जोरी॥


Aarti Yugal Kishore Ki Kije (English Version)

Aarti Yugal Kishore Ki Kijay.
Tann Mann Nyochavar Kijay.

Gaurshyam Mukh Nirkhan Leejay.
Hari Ka Swaroop Nayan Bhari Peejay.

Ravi Shashi Koti Badan Ki Shobha.
Tahi Nirakh Mero Mann Lobha.

Odde Neel Peet Pat Sari.
Kunj Bihari Girivardhari.

Phulan Ki Sej Phulan Ki Mala.
Ratan Sinhasan Baithe Nandlala.

Kanchan Thar Kapur Ki Bati.
Hari Aye Nirmal Bahi Chhati.

Shree Purshottam Grivardhari 
Aarti Karat Sakal Brajanari.

Nand-Nandan Brajbhan Kishori.
Parmanand Swami Avichal Jori.


Friday, 4 September 2020

The journey of Shrila Prabhupada

  On 18 September  Today is the day Shrila Prabhupada arrived in America. Some say this is the day to commemorate the beginning of the Krishna consciousness movement in the western world.
   Here is the English translation to the Bengali song Shrila Prabhupada wrote the day after he arrived. It gives us an indication of what kind of a mood Prabhupada was in when he arrived. He understood the full import of his presence in America and what it would mean to so many.
   Some of the verses he wrote on board the ship that day are as follows: 
"My dear Lord Krishna, You are so kind upon this useless soul, but I do not know why You have brought me here. Now You can do whatever You like with me.
   But I guess You have some business here, otherwise why would You bring me to this terrible place?
   Most of the population here is covered by the material modes of ignorance and passion. Absorbed in material life they think themselves very happy and satisfied, and therefore they have no taste for the transcendental message of Vasudeva [Krishna]. I do not know how they will be able to understand it.
   But I know that Your causeless mercy can make everything possible, because You are the most expert mystic.How will they understand the mellows of devotional service? O Lord, I am simply praying for Your mercy so that I will be able to convince them about Your message.
  All living entities have come under the control of the illusory energy by Your will, and therefore, if You like, by Your will they can also be released from the clutches of illusion.
   I wish that You may deliver them. Therefore if You so desire their deliverance, then only will they be able to understand Your message…
   How will I make them understand this message of Krishna consciousness? I am very unfortunate, unqualified, and the most fallen. Therefore I am seeking Your benediction so that I can convince them, for I am powerless to do so on my own. 
   Somehow or other, O Lord, You have brought me here to speak about You. Now, my Lord, it is up to You to make me a success or failure, as You like.
   O spiritual master of all the worlds! I can simply repeat Your message. So if You like You can make my power of speaking suitable for their understanding.
   Only by Your causeless mercy will my words become pure. I am sure that when this transcendental message penetrates their hearts, they will certainly feel gladdened and thus become liberated from all unhappy conditions of life. 
   O Lord, I am just like a puppet in Your hands. So if You have brought me here to dance, then make me dance, make me dance, O Lord, make me dance as You like.
   I have no devotion, nor do I have any knowledge, but I have strong faith in the holy name of Krishna. I have been designated as Bhaktivedanta, and now, if You like, You can fulfill the real purport of Bhaktivedanta."
Signed—the most unfortunate, insignificant beggar, 
A. C. Bhaktivedanta Swami,

On board the ship Jaladuta, Commonwealth Pier, 
Boston, Massachusetts, U.S.A. 
Dated 18th September 1965. 

   After a thirty-five-day sea journey from Calcutta, Shrila Prabhupada reached Boston's Commonwealth Pier on September 17, 1965. 

बृज की सत्य कथा a real katha in braj bhumi

The Nawab of Nadiya, the Muslim landowner or zamindhar of the district, arrested Haridasa Thakura, a born Muslim, for following Hindu dharma and publicly chanting the maha-mantra:
Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare
Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare.

When asked to plead his case, Haridasa Thakura smiled compassionately at the Muslim Nawab, and spoke in a sweet soothing voice: “My dear sir, there is only one God for all living entities. According to every scripture, be it Koran or Purana, God is one. He is the non-dual, eternal, transcendental Absolute Truth. God is infallible, perfectly complete, and He resides in everyone’s heart.The difference between the Moslem God and the Hindu God is in name only. The names and qualities of the Lord are chanted by the followers of all religions according to their respective doctrines. Irrespective of how God is worshiped, He accepts everyone’s individual mood of surrender. Therefore I am only acting under the inspiration of the Supreme Lord.”

Infuriated with Haridasa’s wisdom, the sinful Nawab ordered Haridasa to either accept the Muslim path or be beaten to death. Remaining peaceful and tolerant, the God realized Haridasa Thakura replied, “Whatever the Supreme Lord desires is destined to happen; no one can check it.”

Haridasa concluded by speaking the following verse which sets the standard of faith and determination for all Gaudiya Vaisnavas to emulate:

khanda khanda hai deha, yayay adi prana
tabu ami vadane, na chadi hari-nama
“Even if you cut my body into pieces and I give up my life, I will never stop chanting Lord Hari’s Holy Name!” (Chaitanya Bhagavata Adi 16)

Namacharya Haridasa Thakura ki jai!
Nitai Gaura Premanande ki jai!.

Please Chant: "Hare Krishna Hare Krishna,
Krishna Krishna Hare Hare,
Hare Rama Hare Rama,
Rama Rama Hare Hare"

हिंदी में कथा इस प्रकार है :- 

नदिया के नवाब, मुस्लिम जमींदार या जिले के ज़मींदार, ने हिंदू धर्म का पालन करने और सार्वजनिक रूप से महा-मंत्र का जाप करने के लिए पैदा हुए मुस्लिम हरिदास ठाकुर को गिरफ्तार किया:
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।

जब उनसे अपने मामले की पैरवी करने के लिए कहा गया, तो हरिदास ठाकुर ने मुस्लिम नवाब पर दया की और मुस्कुराते हुए मीठी आवाज में बोला: “मेरे प्यारे साहब, सभी जीवित संस्थाओं के लिए एक ही ईश्वर है। हर शास्त्र के अनुसार, कुरान हो या पुराण, ईश्वर एक है। वह गैर-दोहरी, शाश्वत, पारलौकिक निरपेक्ष सत्य है। भगवान अचूक है, पूरी तरह से पूर्ण है, और वह हर किसी के दिल में रहता है। मोस्लेम भगवान और हिंदू भगवान के बीच अंतर केवल नाम में है। सभी धर्मों के अनुयायियों द्वारा अपने-अपने सिद्धांत के अनुसार भगवान के नाम और गुणों का जाप किया जाता है। भले ही भगवान की पूजा क्यों न की जाए, वह आत्मसमर्पण करने के हर व्यक्ति के मनोदशा को स्वीकार करता है। इसलिए मैं केवल सर्वोच्च प्रभु की प्रेरणा के तहत काम कर रहा हूं। ”

हरिदास की बुद्धिमत्ता से प्रभावित होकर, पापी नवाब ने हरिदासा को आदेश दिया कि या तो मुस्लिम रास्ते को स्वीकार कर लिया जाए या उन्हें मार दिया जाए। शांतिपूर्ण और सहिष्णु रहकर, भगवान ने महसूस किया कि हरिदास ठाकुर ने उत्तर दिया, “जो कुछ भी सर्वोच्च भगवान की इच्छा होती है; कोई भी इसकी जांच नहीं कर सकता है। ”

हरिदास ने निम्नलिखित कविता बोलकर निष्कर्ष निकाला जो सभी गौड़ीय वैष्णवों के लिए विश्वास और दृढ़ संकल्प का प्रतीक है:

खंडा खंड है देहा, याये आदि प्राण
तबु अमि वदन, न चढि हरि-नाम
"भले ही आपने मेरे शरीर को टुकड़ों में काट दिया और मैंने अपने प्राण त्याग दिए, मैं कभी भी भगवान हरि के पवित्र नाम का जप करना बंद नहीं करूंगा!" (चैतन्य भागवत आदि १६)

नामाचार्य हरिदास ठाकुर की जय!
निताई गौरा प्रेमानंद की जय!।

कृपया जप करें: "हरे कृष्ण हरे कृष्ण,
कृष्णा कृष्णा हरे हरे,
हरे राम हरे राम,
राम राम हरे हरे ”

Wednesday, 2 September 2020

shree Radha sajavati leela श्री राधा सजावती मधुर लीला ।

In hindi 

*राधा कुवँरि सजावति ........🙏🏻*


अपनी माता कीर्ति जी से सखियों-संग खेलने का बहाना कर, श्री राधा जी श्री कृष्ण से मिलने उनके घर पहुँच जाती हैं।
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भीतर आने में अत्यधिक संकोच अनुभव कर द्वार से ही मिश्री सम मीठी मृदुल वाणी में हौले से पुकारती हैं-
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कुँवर कन्हाई घर में हो ?
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कन्हाई मैया से किसी बात पर झगड़ रहे हैं, कर्ण-प्रिय अति मधुर स्वर सुनते ही दौड़ कर बाहर निकले..
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राधा जी को समक्ष देख सारा क्रोध विस्तृत हो गया, किन्तु अब मैया से क्या कहें, चतुर शिरोमणि ने तुरंत बहाना गढ़ लिया...
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मैया, तू इन्हें पहचानती है ? कल में यमुना किनारे से घर का मार्ग भूल गया था तब ये ही मार्ग बताती हुई यहाँ तक लाई।
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मैया ये तो आने के लिये सहमत ही नहीं थी मैनें इन्हें अपनी सौगंध दी तब आई...
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मुस्करा उठी मैया अपने लाडले कुँवर की वाक-प्रवीणता पर।
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मैया यशोदा राधा जी को अत्यधिक आत्मीयता व स्नेह से भीतर अपने कक्ष में ले जाती है और हौले हौले राधा जी से उनका सम्पूर्ण परिचय-विवरण ज्ञात करतीं हैं।
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राधा जी यशोदा जी के प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अति संकोच विनम्रता व शालीनता से देती हैं।
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इसी वार्तालाप के मध्य यशोदा जी को ज्ञात होता है कि राधा जी उनकी बाल-सखी कीर्ति जी की ही बिटिया है।
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गदगद हो उठता है यशोदा जी का हृदय, अब उन्हें राधा जी और अधिक प्यारी लगने लगती हैं।
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वह अपने हृदय का सारा लाड़,वात्सल्य, सारी ममता राधा जी पर उढ़लने लगती हैं।
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अति दुलार से उन्हें अपने समीप बिठाकर कहती है..
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आ कुवँरि, तेरी चोटी-बिंदी कर दूँ
जसुमति राधा कुवँरि सजावति
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अति सौंदर्यमय आलौकिक दृश्य है। भरपूर ममत्व से सरोबोर यशोदा जी राधा जी के केशों को सँवार रही हैं...
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शीश की अलको को अति यत्न से, स्नेह भरे हाथों से हौले हौले सुलझाया, बीच में से माँग निकाल कर बड़े प्यार से गूथँ कर चोटी बनाई, फूलों से सजाई।
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गौरवर्ण भाल पर लाल सिंदूर की बिंदी लगाई, जो कुवँरि राधिका के माथे पर ऐसी सुशोभित हो रही है मानों चन्द्रमा व प्रातः कालीन रवि-कान्ति एक हो गई हो।
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माता यशोदा ने अपनी नई साड़ी का लहँगा बनाया, पहले राधा जी के सुकोमल अंगों को अपने आँचल से पोछा, तत्पश्चात अपने हाथों से लहँगा पहनाया।
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इतना सब करके यशोदा जी ने राधा जी की गोद में तिलचाँवरी, बताशे एवं भिन्न भिन्न प्रकार की मेवा रखी।
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इसके पश्चात यशोदा जी ने मुस्करा कर एक बार अपने पुत्र श्री कृष्ण की ओर देखा और फिर सूर्य की ओर झोली (आँचल) फैला कर मन ही मन कुछ माँग लिया।
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अंत में यशोदा जी ने राधा जी की नजर उतार कर, राधा जी को सम्मान पूर्वक उनके घर पहुँचवा दिया।
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घर पहुँचते ही माता कीर्ति जी ने तुरंत प्रश्न किया..
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ये इतना साज-श्रंगार किसने किया है तेरा..
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राधा जी ने अक्षरत: सारा सत्य माता के समक्ष वर्णित कर दिया।
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सम्पूर्ण विवरण सुन कर वृषभानु-दम्पत्ति के हृदय में हर्ष का सागर हिलोंरे लेने लगा, वे समझ गये कि कुवँरि राधिका को यशस्वनि यशोदा जी ने अपनी बहू के रूप में स्वीकार कर लिया है...
.
वृषभानु जी और कीर्ति जी की तो यह चिर-संचित अभिलाषा है।

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श्री राधे राधे 🙏🏻

In English :- 


* Radha Kunwari decoration ........ 🙏🏻 *

 With the excuse of playing with his mother Kirti ji, Shri Radha ji reaches her home to meet Shri Krishna.
 .
 Mishri calls out sweetly in the sweet mridul voice from the door, feeling extremely hesitant to come in.
 .
 Where are you in Kunwar Kanhai house?
 .
 Kanhai Maiya is quarreling over something, Karna - dear, came out running after hearing a very sweet voice.
 .
 Seeing Radha ji in front of me, all the anger became widespread, but now what to say to Maia, the clever Shiromani immediately created an excuse ...
 .
 Maia, do you recognize them?  In yesterday, Yamuna had forgotten the path of the house from the shore, when she brought this way to the place.
 .
 I did not agree to come, my dear, I gave them my gift ...
 .
 Maiya smiled at the speech proficiency of her beloved Kunwar.
 .
 Maia Yashoda takes Radha ji inside her room with utmost affection and affection and she quickly discovers her complete acquaintance with Radha ji.
 .
 Radha ji answers every question of Yashoda ji with great hesitation and humility.
 .
 In the midst of this conversation, Yashoda ji learns that Radha ji is her daughter-in-law of child-child Kirti ji.
 .
 Yashoda ji becomes heartbroken, now Radha ji starts to look more lovely to him.
 .
 She starts pouring all the pampering of her heart, Vatsalya, all Mamta Radha ji.
 .
 Tells her very fondly by sitting near her ..
 .
 Aa kuwarni, make your braid
 Jasumati radha kurani decoration
 .
 It is a supernatural supernatural scene.  With full affection, Sarobor Yashoda ji is grooming Radha's hair ...
 .
 Sheesh Alko very diligently, with affectionate hands, resolved gently, took out from the middle and kneaded with love, made the braid, decorated with flowers.
 .
 Gauravarna bhal was put on the red vermilion dot, which is embellishing on the forehead of the virgin Radhika as if the moon and morning Ravi-kanti have become one.
 .
 Mother Yashoda made her new sari lehenga, first wiped Radha ji's delicate limbs with her face, and then wore a lehenga with her hands.
 .
 After doing all this, Yashoda ji placed Tilachanwari, Betashe and different types of nuts in Radha ji's lap.
 .
 After this, Yashoda ji once smiled and looked towards his son Shri Krishna and then asked for something in his mind by spreading the bag (anchal) towards the sun.
 .
 Finally, Yashoda ji took Radha ji's eyes and got Radha ji respectfully delivered to her house.
 .
 On reaching home, Mother Kirti immediately questioned.
 .
 Who has done so much decoration for you ..
 .
 Radha ji literally narrated the whole truth to Mother.
 .
 Hearing the entire description, the ocean of joy began to shake in the heart of the Taurus-couple, they understood that Yashwani Yashoda ji has accepted Kuwari Radhika as her daughter-in-law.
 .
 This is the long-cherished desire of Vrishabhanu and Kirti Ji.

 Shri Radhe Radhe

Friday, 21 August 2020

श्रीजी के आभूषण भाव नाम

*💐श्री राधा रानी जी दिव्य आभूषणों के नाम💐*


ये परम परम।परम गोपनीय है

 श्री राधा रानी जी के तिलक का नाम

   स्मर यन्त्र

श्री राधा रानी जी के हार का नाम

   हरिमनोहर

जो हरि का भी मन मोहित कर लेता है । 

श्री राधा रानी जी रत्नमय कान के आभूषण (बाला) का नाम

     रोचन
चमकदार शोभायमान करने बाला

श्री राधा रानी जी के नासिका का मोती का नाम

        प्रभाकरी
    दीप्तिमान करने बाला।

 श्री राधा रानी जी के लॉकेट का नाम

     मदन
जिसमे गुप्त रूप से कृष्ण जी का चित्र विराजमान है।

 श्री राधा रानी जी के मणिका  का नाम

     1 स्यमन्तक मणि

 श्री राधा रानी जी के शोभाग्यमणि  का नाम

     1 पुष्प वंत
एक साथ सूर्य और चंद्र के उदित होने पर जो उज्ज्वलता प्रकाशित होती उसे भी लज्जित कर देती है शौभाग्य मणि।          

     श्री राधा रानी जी के श्री चरणों में (सोने के कडे ) का नाम

     1 चटकाराव्
जिनकी झंकार चिड़ियों की  आवाज़ से भी मधुर है।

श्री राधा रानी जी के बाजु बंद  का नाम

     मणिकरवुर
रंगविरंगी विचित्र मणियो से सुशोभित है

 श्री राधा रानी जी नामांकित अंगूठी

 विपक्ष मद मर्दिनी 
 जो विपक्षा के मद का मर्दन कर दे। 

श्री राधा रानी जी के करधनी  का नाम

     कांचन चित्रांगनी

श्री राधा रानी जी के वस्त्रों  का नाम

 1 मेघाम्बर( नीले रंग)
जो मेघो के समान नीले रंग के है श्री राधा रानी जी अत्यंत प्रिय है

2 कुरुविंद निभ( लाल रंग)

मणियो की चमक के जैसे लाल रंग के जो कृष्ण को अत्यंत प्रिय है।  

 श्री राधा रानी जी के नूपुरों  का नाम

     रत्न गोपुर
जिनकी झंकार कृष्ण को जड़वत  बना देती है

श्री राधा रानी जी के मणि जड़ित दर्पण  का नाम

     सुधांशु दर्प हरण
जो अपनी शोभा से चंद्र के भी दर्प को चूर्ण विचूर्ण कर देता है

 श्री राधा रानी जी स्वर्ण शलाका जिससे श्री राधा रानी जी अपने सुंदर नयनो में काजल लगाती ह।

        नर्मदा

 श्री राधा रानी जी की रत्न जड़ित कंघी  का नाम

     स्वस्तिदा

शुभता प्रदान करने वाली.                     

कुछ श्रृंगार आभूषणों के नाम शेष है यदि आपको भी कुछ के नाम ज्ञात हो तो हमारे साथ साझा करें हमे कमेंट करे ।।

श्री राधा राधा

Monday, 27 July 2020

श्री राधा चरितावली खण्ड 1 भूमिका

आज  के  विचार भाव संख्या 1 

( "श्रीराधाचरितामृतम्" की भूमिका )


लेख हमारे फेसबुक पर श्रीजी मंजरीदास पेज को like करे 

कल कल  करती हुयी   कालिन्दी बह रही थीं ........घना कुञ्ज था ...फूल खिले थे ,   उसमें से निकलती  मादक सुगन्ध  सम्पूर्ण वन प्रदेश को  अपनें आगोश में ले रही थी......चन्द्रमा की किरणें  छिटक रहीं थीं ....यमुना की बालुका   ऐसी लग रही - जैसे रजत को पीस कर  बिखेर दिया गया  हो......हाँ   बीच बीच में पवन देव भी चल देते थे .....कभी कभी  तो  तेज हो जाते......तब  यमुना के बालू का कण  जब आँखों में जाता,  तो ऐसा लगता  जैसे ये बालुका न हो    कपूर को पीस कर बिखेर दिया  गया हो ।

कमल खिले हैं .............कुमुदनी  प्रसन्न है .......उसमें  भौरों का झुण्ड ऐसे गुनगुना रहा है..........जैसे   अपनें प्रियतम के लिये ये भी गीत गा रहे हों.......बेला,  मोगरा , गुलाब   इनकी तो भरमार ही थी .....।

ऐसी  दिव्य  प्रेमस्थली में,     मैं  कैसे पहुँचा था  मुझे पता नही ।

मेरी आँखें बन्द हो गयीं ..........जब खुलीं   तब मेरे सामनें एक महात्मा थे ......बड़े प्रसन्न मुखमण्डल वाले महात्मा ।

मैने उठते ही उनके चरणों में प्रणाम किया  ।

उनके रोम रोम से श्रीराधा .....श्रीराधा ...श्री राधा  ये प्रकट हो रहा था ।

उनकी आँखें चढ़ी हुयी थीं .......जैसे  कोई पीकर  मत्त हो  .........हाँ ये मत्त ही तो थे .........तभी  तो कदम्ब  और  तमाल वृक्ष से लिपट कर  रोये जा रहे थे .......रोनें में  दुःख या  विषाद  नही था .......आल्हाद था   ....आनन्द था   ।

मैने उनकी  गुप्त बातें सुननी चाहीं ...........मैं  अपनें  ध्यानासन से उठा .........और उनकी बातों में  अपनें कान लगानें शुरू किये ।

विचित्र बात  बोल रहे थे  ये महात्मा जी तो  ।

कह रहे थे .........नही,  मुझे तुम्हारा मिलन नही चाहिये .....प्यारे !  मुझे ये बताओ  कि तुम्हारे वियोग का  दर्द कब मिलेगा ।

तुम्हारे मिलन में कहाँ सुख है ...........सुख तो  तेरे लिए रोने में है .....तेरे लिए तड़फनें में है ..........तू मत मिल  अब ............तू जा !    मैं तेरे लिये  अब रोना चाहता हूँ ..........मैं  तेरे विरह की  टीस  अपनें सीने में  सहेजना  चाहता हूँ ......तू जा !   जा  तू   ।

ये क्या !    महात्मा जी के  इतना कहते ही ....................

तू गया  ?       तू गया  ?     कहाँ गया  ?    हे  प्यारे !    कहाँ  ? 

वो महात्मा  दहाड़ मार कर  धड़ाम से गिर गए   उस भूमि पर ..........

मैं गया .......मैने देखा ...............उनके पसीनें निकल रहे थे ........पर उन पसीनों से   भी गुलाब की सुगन्ध आरही थी   ।

मैं उन्हें देखता रहा ...............फिर  जल्दी गया ........अपनें  चादर को गीला किया  यमुना जल से .............उस   चादर से   महात्मा जी के मुखारविन्द को पोंछा  ........."श्रीराधा श्रीराधा  श्रीराधा"........यही नाम  उनके रोम रोम से फिर प्रकट होनें लगा था  ।

*******************************************************

वत्स !     साधना की सनातन दो ही धाराएं हैं ..............और ये अनादिकाल से चली आरही  धाराएं हैं ................

वो उठकर बैठ गए थे ........उन्हें मैं ही ले आया था  देह भाव में ....।

उठते ही उन्होंने इधर उधर देखा ........फिर मेरी ओर उनकी कृपा दृष्टि  पड़ी .........मैं हाथ जोड़े खड़ा था  ।

वो मुस्कुराये.....उनका कण्ठ सूख गया था......मैं  तुरन्त दौड़ा ....यमुना जी गया .......एक बड़ा सा कमल खिला था,  उसके ही  पत्ते  में  मैने  जमुना  जल भरा  और  ला कर  उन महात्मा जी को पिला दिया   ।

वो  जानें लगे ........तो मैं भी उनके पीछे पीछे चल दिया  ।

तुम कहाँ आरहे हो वत्स ! 

     उनकी वाणी  अत्यन्त ओजपूर्ण,  पर प्रेम से पगी हुयी थी  ।

मुझे  कुछ तो  प्रसाद मिले  !

मैनें  अपनी झोली फैला दी    ।

वो हँसे ............मैं पढ़ा लिखा तो हूँ नही  ?  

न पण्डित हूँ ........न  शास्त्र का ज्ञाता ............मैं क्या प्रसाद दूँ ? 

उनकी वाणी  कितनी आत्मीयता से भरी थी  ।

आप नें जो पाया है....उसे ही बता दीजिये ........मैने प्रार्थना की ।

उन्होंने लम्बी साँस ली ..........फिर   कुछ देर शून्य में तांकते रहे  ।

वत्स !  साधना की सनातन दो ही धाराएं हैं .............

एक धारा है ........अहम् की ......यानि  "मैं"   की .....और दूसरी धारा है .......उस "मैं" को  समर्पित करनें की ................

........मेरा मंगल हो ....मेरा कल्याण हो ...........मेरा शुभ हो .........इसी धारा में  जो साधना चलती है ....वो अहंम को साधना है  ।

पर एक  दूसरी धारा है  साधना की ...........वो बड़ी गुप्त है .......उसे सब लोग नही जान पाते  .............

क्यों  नही  जान पाते  महात्मन् ?   मैने प्रश्न किया  ।

क्यों की उसे जाननें के लिये  अपना "अहम्" ही  विसर्जित करना पड़ता है........."मैं"  को समाप्त करना पड़ता है .......महाकाल  भगवान शंकर  ......जो विश्व् गुरु हैं.......जगद्गुरु हैं......वो भी इस रहस्य को नही जान पाये ........तो उन्हें  भी  सबसे पहले  अपना "अहम्" ही विसर्जित करना पड़ा .........यानि  वो  गोपी बने........पुरुष का चोला उतार फेंका ......तब जाकर उस  रहस्य को उन्होंने समझा  ।

ये प्रेम की अद्भुत धारा है.......पर......वो महात्मा जी हँसे......ये  ऐसी धारा है    जो   जहाँ से  निकलती है उसी ओर ही बहनें लग जाती है ।

तभी तो इस धारा का नाम   धारा न होकर ............राधा है  ।

जहाँ पूर्ण अहम् का विसर्जन है .............जहाँ  " मैं" नामक कोई वस्तु है ही नही ......है तो बस ....तू ही तू  ।

त्याग,  समर्पण ,  प्रेम  करुणा की  एक निरन्तर चिर बहनें वाली  सनातन धारा का नाम है  ......राधा !   राधा !  राधा !  राधा !   

वो इससे आगे कुछ बोल नही पा रहे  थे  ।

******************************************************

काहे टिटिया रहे हो ?      

मैं  चौंक गया ...............ये मुझे कह रहे हैं  ।

हाँ हाँ .........सीधे सीधे  "श्रीराधा रानी" पर कुछ क्यों नही लिखते ? 

ये आज्ञा थी उनकी ...............मैने उनकी  आँखों में देखा ।

मैं लिख लूंगा  ?     मेरे जैसा प्रेमशून्य व्यक्ति  उन "आल्हादिनी श्रीराधा रानी"  के ऊपर लिख लेगा ?         जिनका नाम लेते ही  भागवतकार श्रीशुकदेव जी  की  वाणी रुक जाती है...........ऐसी  "श्रीकृष्णप्रेममयी  श्रीराधा"   पर  मैं लिख लूंगा ?          मैं कहाँ   कामी, क्रोधी , कपटी  लोभी  क्या दुर्गुण नही हैं मुझ में ...........ऐसा व्यक्ति  लिख लेगा  उन   "श्रीकृष्ण प्रिया  श्रीराधा"   के ऊपर ......?

वो महात्मा जी उठे .............मेरे पास में आये ...............

और बिना कुछ बोले ............मेरे  नेत्रों के मध्य भाग को  अपनें अंगूठे से छू दिया ..............ओह !  ये क्या  !   

दिव्य निकुञ्ज ..........दिव्याति दिव्य नित्य निकुञ्ज ......मेरे नेत्रों के सामनें प्रकट हो गया था  ।

जहाँ चारों ओर   सुख और आनन्द की वर्षा हो रही थी .......प्रेम निमग्ना  सहस्त्र सखी संसेव्य  श्रीराधा माधव    उस दिव्य सिंहासन में विराजमान थे..........उन  श्रीराधा रानी की  चरण छटा से  सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रकाशित हो रहा था...........उनकी घुंघरू की आवाज से  ऊँ प्रणव का  प्राकट्य है .......वो पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण    अपनी आल्हादिनी के रूप में राधा को अपनें वाम भाग में विराजमान करके   प्रेम सिन्धु में  अवगाहन कर रहे थे  । ......................

मैने दर्शन किये  नित्य निकुञ्ज के .......................

अब तुम लिखो .................."श्रीराधाचरितामृतम्".............

वो  महात्मा जी   खो गए थे   उसी निकुञ्ज में  ।

"यमुना जी जाना नही है '...............पाँच बज गए  हैं  ।

सुबह पाँच बजे  मुझे  उठा दिया मेरे घर वालों नें  ।

ओह !     ये सब सपना था  ?       

मुझे आज्ञा मिली है.............कि मैं "श्रीराधाचरितामृतम्"    लिखूँ .....मुझे ये नाम भी उन्हीं  दिव्य महात्मा जी नें  सपनें में   ही दिया है ।

पर कैसे ?     कैसे लिखूँ  ?     "श्रीराधारानी" के चरित्र पर  लिखना साधारण कार्य नही है ...........मैनें अपना सिर पकड़ लिया ।

फिर एकाएक  मन  में  विचार आया .............कन्हैया की इच्छा है .......वो  अपनी प्रिया के बारें में  सुनना चाहता है ..........

ओह !  तो मैं सुनाऊंगा .........प्रमाण मत माँगना ........क्यों की  "श्रीराधा"   पर  लिखना ही अपनें आप में धन्यता है .......और  लेखनी की सार्थकता भी इसी में है ...............।

प्रेम  की  साक्षात् मूर्ति  श्री राधा रानी   के चरणों में प्रणाम करते हुए ।

! !  कृष्ण प्रेममयी राधा,  राधा प्रेममयो हरिः ! ! 

कल से  "श्रीराधाचरितामृतम्"  ,  आनंद आएगा  साधकों !

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 In urdu 
Part 1 

آج کے خیالات حوالہ نمبر 1


 ("سریرداچارتامریٹم" کا کردار)



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 کل کلندی کا دور بہہ رہا تھا… .یہ گھنا تھا… پھول کھل رہے تھے ، نشہ آور خوشبو جنگل کے سارے علاقے کو اپنی لپیٹ میں لے رہی تھی… چاند کی کرنیں۔  وہ خراب ہورہی تھی .... یمن کی ریت نے یوں لگا جیسے چاندی کو کچل کر بکھر گیا ہو ... ہاں ، پون دیو وسط میں چلتا تھا ... کبھی کبھی تیز ہوتا  ...... پھر ، جب یمن کی ریت کا ذرہ آنکھوں میں گیا تو ایسا لگا جیسے یہ ریت نہیں ہے اور کپور بکھر گیا ہے۔


 کمل کھلتا ہے ............. للی خوش ہوتی ہے ....... اس میں صبح کا ایک گچھا اس طرح ہوتا ہے ......... اپنے محبوب کے لئے  آپ بھی گانے گارہے ہیں… بیلا ، موگرا ، گلاب ان سے بھرا ہوا تھا….


 مجھے نہیں معلوم کہ میں ایسی محبت کے مقام پر کیسے پہنچا۔


 میری آنکھیں بند تھیں… جب میں کھلی تو میرے سامنے ایک مہاتما تھا… مہاتما بہت خوش چہرے کے ساتھ۔


 میں نے اٹھتے ہی اس کے پاؤں کو جھکا لیا۔


 روم سے سریادھا ، شریادھا… روم سے شری رادھا ، یہ ظاہر کررہا تھا۔


 اس کی آنکھیں آنکھیں بند ہو گئیں ....... جیسے کوئی شراب پی کر پی گیا ہو ..... ہاں وہ میٹ تھے ....... تب ہی کدامب اور تمل کے درخت سے لپٹ گئے  وہ رو رہے تھے… فریاد میں کوئی غم یا افسردگی نہیں تھا… خوشی تھی… خوشی تھی۔


 میں ان کی خفیہ باتیں نہیں سننا چاہتا تھا ……… میں اپنے مراقبے سے اٹھ کر ان کے الفاظ میں کان لگانے لگا۔


 یہ مہاتما جی عجیب و غریب باتیں کہہ رہے تھے۔


 وہ کہہ رہے تھے ……… نہیں ، میں تمہاری یونین نہیں چاہتا… پیارے!  مجھے بتائیں جب آپ کو علیحدگی کا درد ہو گا۔


 آپ کے اتحاد میں خوشی کہاں ہے ……… خوشی آپ کے لئے رونے میں ہے….  .......... تم جاؤ!  میں اب آپ کے ل cry رونا چاہتا ہوں .......... میں آپ کو اپنے سینے میں بچانا چاہتا ہوں… .تم جاؤ!  تم جاؤ


 یہ کیا ہے !  جیسا کہ مہاتما جی کہتے ہیں …….


 کیا آپ جا چکے ہیں؟  کیا آپ جا چکے ہیں؟  وہ کہاں چلا گیا  ؟  ارے پیارے  کہاں  ؟


 وہ مہاتما گرج اٹھا اور اس زمین پر گر پڑا …… ..


 میں چلا گیا …… میں نے دیکھا …………… ان کا پسینہ نکل رہا تھا …… .. لیکن وہ پسینے گلاب کی خوشبو آرہے ہیں۔


 میں ان کی طرف دیکھتا رہا …………… پھر جلدی ........ یامونا کے پانی سے اپنی چادر گیلا کردے …………  .... اس چادر سے مہاتما جی کے سر کا صفایا ...... "سریردھا سریردھا سریردھا" ........ روم سے اسی نام کو دوبارہ ظاہر کیا گیا۔


 ************************************************  *****


 بچہ !  سادھنا کے صرف دو دھارے ہیں .............. اور یہ موجودہ زمانے کے قدیم زمانے سے جاری ................


 وہ اٹھ کر بیٹھ گیا ........ میں اسے جسم میں لایا تھا ....


 جیسے ہی وہ اٹھ کھڑا ہوا ، اس نے ادھر ادھر ادھر دیکھا ........ پھر اس کا کرم میری طرف دیکھا گیا ......... میں ہاتھ جوڑ کر کھڑا ہوا۔


 وہ مسکرایا… اس کا گھاٹا سوکھ گیا تھا… میں فورا. بھاگ گیا… یمنہ جی… .ایک بڑا کمل کھلا رہا تھا ، میں نے اس کے پتے میں جمنا کا پانی بھر دیا۔  اور مہاتما کو پینے لائے۔


 انہیں معلوم ہونا شروع ہوا …… تو میں بھی ان کے پیچھے آگیا۔


 تم کہاں ہو واٹس!


 اس کی آواز بہت زوردار تھی ، لیکن محبت سے بیدار ہوئی تھی۔


 مجھے کچھ پرسادم ملا!


 میں نے اپنا بیگ پھیلادیا۔


 وہ ہنس پڑا ………… کیا میں پڑھا یا نہیں لکھتا ہوں؟


 میں نہ تو عالم ہوں …… نہ عالم… ..میں کیا پیش کروں؟


 اس کی آواز اتنے مباشرت سے بھری ہوئی تھی۔


 مجھے بتائیں کہ آپ نے کیا پایا ہے… .. میں نے دعا کی۔


 اس نے لمبی سانس لی… .. پھر اس نے کچھ دیر کے لئے باطل کو گھور لیا۔


 بچہ !  روحانی مشق کے صرف دو دھارے ہیں …………


 ایک ندی ہے …… .. انا کا ....... یعنی "میں"… اور دوسرا ہے… .. کہ "I" کو سرشار کرو ..  ..............


 ........ میرے پاس مریخ ہے .... میری فلاح ہو ... .... مجھے خوشیاں ملیں ....... اس کاشت میں جو اس دھارے میں جاری ہے ..  .. روح پر عمل کرنا ہے۔


 لیکن کاشت کا ایک اور حصہ بھی ہے ........... یہ بہت خفیہ ہے ....... ہر کوئی اسے نہیں جانتا .............


 مہاتما کیوں نہیں جان سکے۔  میں نے پوچھ گچھ کی


 کیونکہ اسے جاننے کے لئے اپنی "انا" کو ڈوبنا پڑتا ہے ......... "میں" کو ختم ہونا ہے ....... مہاکال لارڈ شنکر ...  وہ ایک گرو ہے…. جگدگورو …… وہ بھی اس راز کو نہیں جان سکتا تھا …… .چنانچہ اسے پہلے اپنی "انا" کو بھی غرق کرنا پڑا۔  ...... یعنی وہ گوپی بن گیا… .اس نے اس آدمی کا لباس اتار پھینکا …… پھر اس راز کو سمجھ گیا۔


 یہ عشق کا ایک حیرت انگیز دھارا ہے …… لیکن… .. مہاتما ہنس پڑے …… یہ ایسا ندی ہے کہ بہنیں جہاں بھی جاتی ہیں وہاں سے آتی ہیں۔


 اسی وجہ سے اس دھارے کا نام ہے اور نہ کہ ندی ………… رادھا ہے۔


 جہاں مکمل انا کا وسرجن ہے ............. جہاں "میں" نامی کوئی چیز نہیں ہے ... بس بات ہے ... آپ ہو۔


 قربانی ، لگن ، محبت اور شفقت کا ایک مستقل دھارہ لازوال بہنوں کا نام ہے ...... رادھا!  رادھا!  رادھا!  رادھا!


 وہ مزید کچھ نہیں بول سکتا تھا۔


 ************************************************  ****


 تم کیا کر رہے ہو؟


 میں حیران ہوں ............... یہ مجھے بتا رہے ہیں۔


 ہاں ہاں ......... "سریردھا رانی" پر براہ راست کچھ کیوں نہیں لکھتے؟


 یہ حکم اس کا تھا …………… میں نے اس کی آنکھوں میں دیکھا۔


 میں لکھوں گا  کیا مجھ جیسا پیار کرنے والا شخص ان "الہدینی سریردھا رانی" کے اوپر لکھے گا؟  بھگوتکر شری شکیو جی کا نام آتے ہی میں اس کا نام آتے ہی رک جاتا ہے ……… میں ایسے "سری کرشنا پریمی شریادھا" پر لکھوں گا؟  جہاں میں بدبخت ، غیظ و غضب ، لالچی بدمزگی نہیں ہوں؟


 وہ مہاتما جی اٹھے ............. میرے پاس آئے ...............


 اور کچھ کہے بغیر ............ اپنی انگوٹھے سے میری آنکھوں کے درمیانی حصے کو چھوئے .............. اوہ!  یہ کیا ہے  !


 Divya Nikunj .......... Divya Divya Nikunj …… میری آنکھوں کے سامنے نمودار ہوا۔


 جہاں چاروں طرف خوشی اور مسرت کی بارش تھی….  یہ منور تھا ........... اس کا پرناو گھونگرو کی آواز سے انکشاف ہوا ہے ....... پورن برہم سری کرشنا کو بطور الادھینی۔  میں شریک تھا  ......................


 میں نے نکنج کا معمول دیکھا …………………


 اب آپ لکھتے ہو .................. "سریرداچارتامریٹم" .............


 کہ مہاتما جی اسی نکنج میں کھو گئے تھے۔


 "یامنا جی جان نہیں ہے '............... پانچ بج چکے ہیں۔


 پانچ لوگوں نے صبح پانچ بجے مجھے اٹھایا۔


 اوہ ، ایسا ہی ہے!  کیا یہ سب خواب تھا؟


 مجھے آرڈر مل گیا ہے ............. کہ مجھے "سریرھاچارٹامریٹم" لکھنا چاہئے ..... میں نے خواب میں یہ نام اسی الہی مہاتما کو دیا ہے۔


 لیکن کس طرح ؟  کیسے لکھتے ہیں  "سری رھارارانی" کے کردار پر لکھنا کوئی آسان کام نہیں ہے ........... میں نے اپنا سر پکڑ لیا۔


 تب ذہن میں اچانک خیال آیا ……… .. کنہیا نے خواہش کی… وہ اپنے محبوب کے بارے میں سننا چاہتا ہے …….


 اوہ ، ایسا ہی ہے!  تو میں آپ سے کہوں گا ....... ثبوت طلب نہ کریں ........ آپ "سریردھا" پر کیوں لکھیں آپ کو مبارک ہے ....... اور تحریر کی اہمیت بھی اسی میں ہے  ہے ................


 محبت کی مورتی شری رادھا رانی کے قدموں پر سلام۔


 !  !  کرشنا پریمامائی رادھا ، رادھا پریمامیو ہریہ!  !


 کل سے "سریرداچارتامریٹم" ، متلاشی لطف اٹھائیں گے!



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Saturday, 11 July 2020

भागवत कथा गोकर्ण एवम अजामिल जीवन सार

भागवत कथा🌿🌿🌿🌿

स्रंखला :- 1
गोकर्ण-धुंधुकारी और आत्मदेव की कहानी/कथा.......

एक ब्राह्मण थे आत्मदेव। जो तुंगभद्रा नदी के तट पर रहते थे। ये बड़े ज्ञानी थे। ये समस्त वेदों के विशेषज्ञ और श्रौत-स्मार्त कर्मों में निपुण थे। इनकी एक पत्नी थी जिसका नाम था
धुन्धुली । वैसे तो ये कुलीन और सुंदर थी लेकिन अपनी बात मनवाने वाली, क्रूर और झगड़ालू थी। आत्मदेव जी के जीवन में धन, वैभव सब कुछ था लेकिन सिर्फ एक चीज की कमी थी। इनके जीवन में कोई संतान नहीं थी। जिस बात का इन्हे दुःख था।
जब अवस्था बहुत ढल गयी, तब उन्होंने सन्तान के लिये तरह-तरह के पुण्यकर्म आरम्भ किये और वे दीन-दुःखियों को गौ, पृथ्वी, सुवर्ण और वस्त्रादि दान करने लगे। लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। इतना दुःखी हो गए कि अपने प्राण त्यागने के लिए वन में चल दिए। जब अपने जीवन का अंत करने जा रहे थे तो रास्ते में एक संत महात्मा बैठे हुए थे।

संत ने पूछा-अरे! तुम कौन हो और कहाँ जा रहे हो?
आत्मदेव जी कहते हैं- सन्तान के लिये मैं इतना दुःखी हो गया हूँ कि मुझे अब सूना-ही-सूना दिखायी देता है। मैं प्राण त्यागने के लिये यहाँ आया हूँ। सन्तानहीन जीवन को धिक्कार है, सन्तानहीन गृह को धिक्कार है! सन्तानहीन धन को धिक्कार है और सन्तानहीन कुल को धिक्कार है

महात्मा जी मैं अपने बारे में कहाँ तक कहूं? मैंने सोचा कि एक गाय पाल लूँ, गाय के बछड़ा/बछड़ी जन्म लेगा तो उससे मन बहला लूंगा लेकिन वो गाय भी बाँझ निकली। जो पेड़ लगाया उस पर कोई फल नहीं लगा वो भी सुख गया। मेरे घर में जो फल आता है, वह भी बहुत जल्दी सड़ जाता है। जब मैं ऐसा अभागा और पुत्रहीन हूँ, तब फिर इस जीवन को ही रखकर मुझे क्या करना है। 

 ऐसाकहकर आत्मदेव फुट फुटकर रोने लगा।
संन्यासी ने कहा—ब्राम्हणदेवता! संन्यासी ने कहा—ब्राम्हणदेवता! इस प्रजा प्राप्ति का मोह त्याग दो। विवेक का आश्रय लेकर संसार की वासना छोड़ दो। विप्रवर! सुनो; मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देख लिया है। तुम इस जन्म के लिए रोते हो लेकिन तुम्हारे तो सात जन्म तक कोई संतान का योग ही नहीं है। तुम्हारे माथे कि रेखा ये बता रही है। पूर्वकाल में राजा सगर एवं अंग को सन्तान के कारण दुःख भोगना पड़ा था। ब्राम्हण! अब तुम घर-परिवार की आशा छोड़ दो। संन्यास में ही सब प्रकार का सुख है।

ब्राम्हण ने कहा—महात्मा जी! विवेक से मेरा क्या होगा। मेरे भाग्य में संतान नहीं लेकिन आप मुझे तो बलपूर्वक पुत्र दीजिये। क्योंकि आपके आशीर्वाद में तो संतान है। यदि आप मुझे संतान का सुख नहीं देंगे तो मैं आपके सामने ही शोकमुर्च्छित होकर अपने प्राण त्यागता हूँ।
संत जी ने आत्मदेव का आग्रह और हठ देखकर कहा- ये फल लेकर जाओ और अपनी पत्नी को खिला देना। इससे उसके एक पुत्र होगा। तुम्हारी स्त्री को एक साल तक सत्य, शौच, दया, दान और एक समय एक ही अन्न खाने का नियम रखना चाहिये। ऐसा कहकर योगिराज चले गये और ब्राम्हण अपने घर लौट आया।
घर आकर आत्मदेव ने फल अपनी पत्नी धुंधली को दे दिया और कहा कि ये संत का प्रशादी तुम इस फल को खाकर एक साल तक नियमपूर्वक रहो। तुम्हे सुंदर पुत्र प्राप्त होगा। ऐसा कहकर आत्मदेव वहां से चले गए।
धुंधली ने सोचा- मैं तो यह फल नहीं खाऊँगी। फल खाने से गर्भ रहेगा और गर्भ से पेट बढ़ जायगा। फिर कुछ खाया-पीया जायगा नहीं, इससे मेरी शक्ति क्षीण हो जायगी; तब बता, घर का धंधा कैसे होगा ? और—दैववश—यदि कहीं गाँव में डाकुओं का आक्रमण हो गया तो गर्भिणी स्त्री कैसे भागेगी। प्रसव के समय बड़ी भयंकर पीड़ा होती है; मैं सुकुमारी भला, यह सब कैसे सह सकूँगी ?
जो स्त्री बच्चा जनती है, उसे उस बच्चे के लालन-पालन में भी बड़ा कष्ट होता है। मेरे विचार से तो वन्ध्या या विधवा स्त्रियाँ ही सुखी हैं’।
मन में ऐसे ही तरह-तरह के कुतर्क उठने से उसने वह फल नहीं खाया और जब उसके पति ने पूछा—‘फल खा लिया ?’ तब उसने कह दिया—‘हाँ, खा लिया’। और वह फल उस बाँझ गाय को खिला दिया।
एक दिन धुन्धुली की बहिन धुन्धुली से मिलने आई; तब उसने अपनी बहिन को सारा वृतान्त सुनाकर कहा कि ‘मेरे मन में इसकी बड़ी चिन्ता है। मैं इस दुःख के कारण दिनों दिन दुबली हो रही हूँ। बहिन! मैं क्या करूँ ?’
बहिन ने कहा, तेरे पास धन की कोई कमी नहीं है और मेरे पास बच्चे की कोई कमी नहीं है। ‘मेरे पेट में बच्चा है, प्रसव होने पर वह बालक मैं तुझे दे दूँगी। तब तक तू गर्भवती के समान घर में गुप्त-रूप से सुख से रह। तू मेरे पति को कुछ धन दे देगी तो वे तुझे अपना बालक दे देंगे। और तू इस फल की जाँच करने के लिये यह फल गौ को खिला दे।’

आज धुंधली से दो बड़े अपराध हो गए। संत के प्रशाद फल का अपमान कर दिया और संत फल की परीक्षा भी ले ली की अगर संत फल में इतनी ही शक्ति है तो गाय के बच्चा होगा।
कुछ समय के बाद जब इसकी बहन के पुत्र हुआ तो उसके पिता ने चुपचाप लाकर उसे धुन्धुली को दे दिया। और उसने आत्मदेव को सूचना दे दी कि मेरे सुखपूर्वक बालक हो गया है। आत्मदेव के पुत्र हुआ सुनकर सब लोगों को बड़ा आनन्द हुआ। ब्राम्हण ने उसका जातकर्म-संस्कार करके ब्राम्हणों को दान दिया और उसके द्वार पर गाना-बजाना तथा अनेक प्रकार के मांगलिक कृत्य होने लगे।

धुन्धुली ने कहा- आप खुशी मना रहे है लेकिन ‘मेरे स्तनों में तो दूध ही नहीं है; अब मैं इस बच्चे का पालन कैसे करुँगी?
मेरी बहन के अभी एक बालक ने जन्म लिया था लेकिन वह मर गया। उसे यहाँ बुलाकर रख लेते हैं तो वह आपके इस बच्चे का पालन-पोषण कर लेगी।
आत्मदेव ने पुत्र रक्षा के लिए हाँ कर दी और धुन्धुली ने उस बालक का नाम धुन्धुकारी रखा।
तीन महीने बीत जाने पर आत्मदेव जी गऊ को चारा डालने के लिए गए। आत्मदेव ने देखा की एक सुंदर बालक को गाय ने जन्म दिया है। जिसका पूरा शरीर तो मनुष्य जैसा है लेकिन कान गऊ की तरह हैं। इसलिए इसका नाम रखा

गोकर्ण। वह सर्वांगसुन्दर, दिव्य, निर्मल तथा सुवर्ण की-सी कान्ति वाला था। उसे देखकर ब्राम्हणदेवता को बड़ा आनन्द हुआ और उसने स्वयं ही उसके सब संस्कार किये। इस समाचार से और सब लोगों को भी बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बालक को देखने के लिये आये।
कुछ समय बीत जाने पर दोनों बालक जवान हुए। उनमें गोकर्ण तो बड़ा पण्डित और ज्ञानी हुआ, किन्तु धुन्धुकारी बड़ा ही दुष्ट निकला।
स्नान-शौचादि ब्राम्हणोचित आचारों का उसमें नाम भी न था और न खान-पान का ही कोई परहेज था। क्रोध उसमें बहुत बढ़ा-चढ़ा था। वह बुरी-बुरी वस्तुओं का संग्रह किया करता था। मुर्दे के हाथ से छुआया हुआ अन्न भी खा लेता था।

दूसरों की चोरी करना और सब लोगों से द्वेष बढ़ाना उसका स्वभाव बन गया था। छिपे-छिपे वह दूसरों के घरों में आग लगा देता था। दूसरों के बालकों को खेलाने के लिये गोद में लेता और उन्हें चट कुएँ में डाल देता। हिंसा का उसे व्यसन-सा हो गया था। हर समय वह अस्त्र-शस्त्र धारण किये रहता और बेचारे अंधे और दीन-दुःखियों को व्यर्थ तंग करता। चाण्डालों से उसका विशेष प्रेम था; बस, हाथ में फंदा लिये कुत्तों की टोली के साथ शिकार की टोह में घूमता रहता।

अंत में यह वैश्यों के जाल में फंस गया। उसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति नष्ट कर दी। एक दिन माता-पिता को मार-पीटकर घर के सब बर्तन-भाँड़े उठा ले गया।
जब आत्मदेव की सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई तो आत्मदेव फूट-फूटकर रोने लगा और बोला—‘इससे तो इसकी माँ का बाँझ रहना ही अच्छा था; कुपुत्र तो बड़ा ही दुःखदायी होता है। 

अब मैं कहाँ रहूँ ? कहाँ जाऊँ ? मेरे इस संकट को कौन काटेगा ? हाय! मेरे ऊपर तो बड़ी विपत्ति आ पड़ी है, इस दुःख के कारण अवश्य मुझे एक दिन प्राण छोड़ने पड़ेंगे।

इस के आगे की कथा कल आयेगी 

जय श्री राधे कृष्ण जी की 🙏🙏

भागवत कथा स्रंखला :- 2
भागवत कथा.....

गोकर्ण का आत्मदेव को उपदेश

उसी समय परम ज्ञानी गोकर्ण जी वहां आ गए। गोकर्ण जी कहते हैं- , ‘पिताजी! यह संसार असार है। यह अत्यन्त दुःख रूप और मोह में डालने वाला है। पुत्र किसका ? धन किसका ? स्नेहवान् पुरुष रात-दिन दीपक के समान जलता रहता है। सुख न तो इन्द्र को है और न चक्रवर्ती राजा को ही; सुख है तो केवल विरक्त, एकान्तजीवी मुनि को। ‘यह मेरा पुत्र है’ इस अज्ञान को छोड़ दीजिये। मोह से नरक की प्राप्ति होती है। यह शरीर तो नष्ट होगा ही। इसलिये सब कुछ छोड़कर वन में चले जाइये।

गोकर्ण के वचन सुनकर आत्मदेव के मन में वैराग्य जाग्रत हुआ और वन में जाने के लिये तैयार हो गया और उनसे कहने लगा, ‘बेटा! वन में रहकर मुझे क्या करना चाहिये, यह मुझसे विस्तारपूर्वक कहो।
गोकर्ण ने कहा—पिताजी! यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिर का पिण्ड है; इसे आप ‘मैं’ मानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादि को ‘अपना’ कभी न मानें। इस संसार को रात-दिन क्षणभंगुर देखें, इसकी किसी भी वस्तु को स्थायी समझकर उसमें राग न करें। बस, एकमात्र वैराग्य रस के रसिक होकर भगवान् की भक्ति में लगे रहें।
भगवद्भजन ही सबसे बड़ा धर्म है, निरन्तर उसी का आश्रय लिये रहें। अन्य सब प्रकार के लौकिक धर्मों से मुख मोड़ लें। सदा साधुजनों की सेवा करें। भोगों की लालसा को पास न फटकने दें तथा जल्दी-से-जल्दी दूसरों के गुण-दोषों का विचार करना छोड़कर एकमात्र भगवत्सेवा और भगवान् की कथाओं के रस का ही पान करें।

आत्मदेव ने गोकर्ण की बात सुनकर साठ वर्ष की आयु में घर का त्याग कर दिया। आत्मदेव ने वन में रहकर दिन रात भगवन का भजन किया और नियमपूर्वक भागवत के दशमस्कन्ध का पाठ किया जिससे उसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र को प्राप्त कर लिया।
पिता वन में चले गए लेकिन माँ की आशक्ति अभी परिवार में थी। एक दिन धुन्धुकारी ने अपनी माता को बहुत पीटा और कहा—‘बता, धन कहाँ रखा है ? नहीं तो अभी तेरी लुआठी (जलती लकड़ी)-से खबर लूँगा।

धुंधुकारी की इस बात से डरकर धुन्धुली कुएँ में गिर पड़ी और उसकी मौत हो गई। योगनिष्ठ गोकर्णजी तीर्थयात्रा के लिये निकले गये। क्योंकि उन्हें किसी प्रकार का सुख दुःख नहीं होता था।
माँ की मृत्यु के बाद धुन्धकारी पाँच वेश्याओं के साथ घर में रहने लगा। दिन रात उन वैश्याओं की सेवा में लगा रहता और सरे गलत काम करता। एक दिन ये चोरी करके बहुत सारा धन लाया। चोरी का बहुत माल देखकर रात्रि के समय स्त्रियों ने विचार किया कि ‘यह नित्य ही चोरी करता है, इसलिये इसे किसी दिन अवश्य राजा पकड़ लेगा। राजा यह सारा धन छीनकर इसे निश्चय ही प्राणदण्ड देगा। तो क्यों ना हम ही इसे मार डालें।

ऐसा निश्चय कर उन्होंने सोये हुए धुन्धुकारी को रस्सियों से कस दिया और उसके गले में फाँसी लगाकर उसे मारने का प्रयत्न किया। इससे जब वह जल्दी न मरा तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। तब उन्होंने उसके मुख पर बहुत-से दहकते अँगारे डाले; इससे वह अग्नि की लपटों से बहुत छटपटाकर मर गया। उन्होंने उसके शरीर को एक गड्ढ़े में डालकर गाड़ दिया।
वे कुलटाएँ धुन्धकारी की सारी सम्पत्ति समेटकर वहाँ से चंपत हो गयीं; उनके ऐसे न जाने कितने पति थे। और धुन्धकारी अपने कुकर्मों के कारण भयंकर प्रेत बन गया।

जब गोकर्ण ने लोगों के मुख से धुन्धकारी की मृत्यु का समाचार सूना। तब उन्होंने उसका गयाजी में श्राद्ध किया; और भी जहाँ-जहाँ वे जाते थे, उसका श्राद्ध अवश्य करते थे। इस प्रकार घूमते-घूमते गोकर्णजी अपने नगर में आये और रात्रि के समय दूसरों की दृष्टि से बचकर सीधे अपने घर के आँगन में सोने के लिये पहुँचे।

वहाँ अपने भाई को सोया देख आधी रात के समय धुन्धकारी ने अपना बड़ा विकट रूप दिखाया। वह कभी भेड़ा, कभी हाथी, कभी भैंसा, कभी इन्द्र और कभी अग्नि का रूप धारण करता। अन्त में वह मनुष्य के आकार में प्रकट हुआ।

गोकर्ण ने कहा—तू कौन है ? रात्रि के समय ऐसे भयानक रूप क्यों दिखा रहा है ?
गोकर्ण के इस प्रकार पूछने पर वह बार-बार जोर-जोर से रोने लगा। उसमें बोलने की शक्ति नहीं थी, इसलिये उसने केवल संकेतमात्र किया। तब गोकर्ण ने अंजलि में जल लेकर उसे अभिमन्त्रित करके उस पर छिड़का।

 इससे उसके पापों का कुछ शमन हुआ और वह इस प्रकार कहने लगा- ‘मैं तुम्हारा भाई हूँ। मेरा नाम है धुन्धकारी। मैंने अपने ही दोष से अपना ब्राम्हणत्व नष्ट कर दिया। मेरे कुकर्मों की गिनती नहीं की जा सकती। मैं तो महान् अज्ञान में चक्कर काट रहा था। इसी से मैंने लोगों की बड़ी हिंसा की। अन्त में कुलटा स्त्रियों ने मुझे तडपा-तडपा कर मार डाला। इसी से अब प्रेतयोनि में पड़कर यह दुर्दशा भोग रहा हूँ। भाई! तुम दया के समुद्र हो; अब किसी प्रकार जल्दी ही मुझे इस योनि से छुड़ाओ।’

गोकर्ण ने धुन्धकारी की सारी बातें सुनीं और कहा- भाई! मुझे इस बात का बड़ा आश्चर्य है—मैंने तुम्हारे लिये विधिपूर्वक गयाजी में पिण्डदान किया, फिर भी तुम प्रेतयोनि से मुक्त कैसे नहीं हुए?
प्रेत ने कहा—मेरी मुक्ति सैकड़ों गया-श्राद्ध करने से भी नहीं हो सकती। अब तो तुम इसका कोई और उपाय सोचो।

गोकर्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे कहने लगे—‘यदि सैकड़ों गया-श्राद्धों से भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती, तब तो तुम्हारी मुक्ति असम्भव ही है। अच्छा, अभी तो तुम निर्भय होकर अपने स्थान पर रहो; मैं विचार करके तुम्हारी मुक्ति के लिये कोई दूसरा उपाय करूँगा’।
गोकर्ण ने रात भर विचार किया, तब भी उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा।

तब भगवान सूर्य की सलाह पर गोकर्ण ने धुन्धुकारी को प्रेतयोनि से मुक्त करने के लिये श्रीमद्भागवत की सप्ताह-कथा प्रारम्भ की। श्रीमद्भागवतकथा का समाचार सुनकर आस-पास के गाँवों के लोग भी कथा सुनने के लिये एकत्र हो गये।

 जब व्यास के आसन पर बैठकर गोकर्ण ने कथा कहनी प्रारम्भ की, तब धुन्धुकारी भी प्रेतरूप में सात गाँठों के एक बाँस के छिद्र में बैठकर कथा सुनने लगा। सात दिनों की कथा में  उस बाँस की सातों गाठें फट गयीं और धुन्धुकारी प्रेतयोनि से मुक्त होकर भगवान के धाम को चला गया।

 श्रावण के महीने में गोकर्ण ने एक बार फिर उसी प्रकार श्रीमद्भागवत की कथा कही और उसके प्रभाव से कथा-समाप्ति के दिन वे अपने श्रोताओं के सहित भगवान विष्णु के परमधाम को पधारे।

जय जय श्रीहरि