भजन करते करते जब साधक के अंदर एक और देह उत्पन्न हो जाता हैं
जिसे भाव देह कहते है
भाव देह निरंतर इसी भाव में भरा रहता की मैं श्री जी की हूँ उनकी सखी हूँ इसी को *उपासना*
कहते हैं
निरंतर अपने गुरु द्वारा दिए हुए भाव का दृढ़ता से चिंतन इसी से भाव देह विकसित होता हैं
*निरंतर भाव में रहना हि उपासनाहै *
जो गोपी रास में अपने परिजनों द्वारा रोक दी गयी थी
वे उनसे भी प्रथम पहुँची
जो देह से गईं थी
क्योंकि भाव देह ही मिलता हैं
भाव ही मिलन हैं
भजन से भाव की वृद्धी होती हैं
उपासना में भाव की स्तिथि रहती हैं