श्री चैतन्य चरित्रामृतम

Tuesday 13 October 2020

वराह घाट लीला दर्शन मधुर भाव श्री हरिवंश

आज  के  विचार

("वराह घाट" - वृन्दावन परिक्रमा )

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अहंकार हो गया था पृथ्वी को .......और हो क्यों नही !   पृथ्वी के लिये ही तो आदिपुरुष नारायण नें वराह का रूप धारण किया था ........

"मेरे बिना ये सृष्टि टिकेगी ही नही".....मूल कारण यही था पृथ्वी के अहंकार का.....हिरण्याक्ष नामक  राक्षस का उद्धार कर दिया था  आदिनारायण वराह नें,    अपनी  दाढ़ों में पृथ्वी को टिकाये चले जा रहे थे  ।

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परिक्रमा करते हुए  तीसरा पढ़ाव हमारा था    "वराहघाट"  ।

ये बड़ा प्राचीन स्थान है.........इसकी महिमा भी बड़ी पुरानी है ........नही नही ......मात्र  द्वापर में कृष्णावतार   को लेकर ही वृन्दावन प्रकाश में आया .........ऐसा मानना गलत होगा ..........वृन्दावन  तो अखण्ड है ...अनादि है ..........हाँ ..........सतयुग में  वराह अवतार हुआ ...........तब   पृथ्वी के साथ  वृन्दावन का परिचय हुआ था ......और वृन्दावन नें   अपनी महिमा विश्व को दिखाई थी ........

ये कथा "वराह पुराण" में  लिखी है  ।

व्यास जी !  आप तो जानते ही हो ........वृन्दावन में  आज भी ऐसे ऐसे दिव्य  महात्मा  विराजमान हैं .........आज भी  ।

ये मथुरा के चतुर्वेदी ब्राह्मण हैं .............जो आज मेरे साथ चल रहे थे ........ये बात   वही बता रहे थे मुझे     ।

और ये  है  इस "वराहघाट" का प्राचीन आश्रम......गौतम ऋषि आश्रम ।

मैने उस आश्रम को प्रणाम किया .......सिद्ध सन्तों का आश्रम था ये ......प्राचीन निम्बार्क सम्प्रदाय का आश्रम  ।

"श्री शुकदेव दास जी".........अद्भुत  सिद्ध सन्त ......और  शास्त्रीय संगीत के  प्रकाण्ड विद्वान .........पर  परम विरक्त ...........अपरिग्रही .......एकांतसेवी ..........पण्डित श्रीजसराज  जी जैसों  को संगीत का वास्तविक अर्थ जिन्होनें समझाया.........ऐसे  सन्त का  ये आश्रम है ......."मैने दर्शन किये हैं उनके"........मैने इतना ही कहा .........मैने इन  महात्मा के  बारे में बहुत कुछ सुना है ......कहते हैं  राजस्थान के जंगलों में  संगीत को गाते हुये   एक सिंह  को  अपना शिष्य बना लिया था इन्होनें ..........श्रीशुकदेव दास जी   ।

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गम्भीरा में  ( राधारमण मन्दिर का क्षेत्र )     आज कार्यक्रम है पण्डित जसराज जी का........वृन्दावन के सारे  संगीत प्रेमी इकट्ठे हुए थे ।

"मैं खयाल नही गाऊंगा   मैं ध्रुपद का गायन करूँगा" 

......श्रीराधारमण के गोसाइँ जी से  पण्डित जसराज जी नें कहा था ।

और बड़ी ठसक के साथ  मंच पर बैठ गए थे पण्डित जी  ।

गायन की शुरुआत  उन्होंने   ख्याल से की ...........पर  बीच में जाकर पण्डित जी बोले ........मैं अब  ध्रुपद गाऊंगा ...........

श्रोताओं को पता है   कि पण्डित जी ध्रुपद के गायक नही हैं .....ख्याल ही गाते हैं ........पर आज ध्रुपद !    श्रोता आनन्दित थे ।

पण्डित जसराज जी नें   गायन शुरू किया था .........दस मिनट ही हुए होंगें ......एक  हरिदासी सम्प्रदाय के साधू उठे ......और हँसते हुए बड़ी सहजता से बोले ..........पण्डित जी !   ये वृन्दावन है .......यहाँ  ध्रुपद मत गाइये ........ये आपका विषय नही है ....ख्याल ही सुनाइये ।

साधू फक्कड़ थे ..........जसराज जी नें सोचा भी नही था कि .....ऐसा साधू  भी  संगीत की इतनी सूक्ष्म समझ रखता है  ।

कार्यक्रम पूरा हुआ .................

आपको क्या लगता है.?

....श्री राधारमण के  गोसाइँ जी से बातें कर रहे थे जसराज जी  ।

ये वृन्दावन है  जसराज जी !   यहाँ के  साधारण दीखनें वाले साधू  भी अद्भुत  गाते हैं ........ये  स्वामी श्रीहरिदास जी की भूमि है .....इसे साधरण न समझें आप  ।

बस गोसाइँ जी के मुख से ये सुनते ही  जी मचल उठा था  पण्डित जसराज जी का ...........कि किसी  महात्मा से मिलूँगा  जिसे  मुझ से ज्यादा  समझ हो संगीत की ।

व्यास जी !  अहंकार  ,  वो  भी  ठाकुर जी के दरबार में ?

वे चतुर्वेदी माथुर  ब्राह्मण मुझे ये बता रहे थे  ।

परिक्रमा करनें के लिये उस रात निकल गए थे पण्डित जसराज जी ......

मन में  उन महात्मा की वाणी  विचलित कर रही थी .......

"ध्रुपद मत गाइये .....आप तो ख्याल का ही गायन कीजिये"

मैं  ?

 मैं  विश्व का प्रसिद्ध संगीतज्ञ ....और एक  साधारण से साधू नें  ।

यहीं वराह घाट से निकल रहे थे पण्डित जसराज जी  ।

तभी  - 

"युगल किशोर  हमारे ठाकुर"

सदा सर्वदा  हम जिनके हैं,  जनम जनम घर जाए चाकर !! 

मधुर कण्ठ .....रियाज़ का कण्ठ नही .......स्वाभाविक  मधुरता लिए हुए कण्ठ .........और  अलाप .......सहज ...........कोई प्रयास नही करना पड़ रहा था उन्हें ...........

दौड़े  पण्डित जसराज जी..........भीतर  एक महात्मा ............मात्र लँगोटी शरीर में.......हाथ में तानपुरा .......नेत्रों से  अश्रु प्रवाहित  ।

"चूक परे  परिहरहिंन कबहुँ ,  सबहीं भाँति दया के आगर !

युगल किशोर  हमारे ठाकुर , युगल किशोर  हमारे ठाकुर ।"

आहा !    क्या कण्ठ है ......क्या गायकी है   ।

रोमांच हो गया था  पण्डित जसराज जी को  ।

चरणों में पड़ गए थे ..

........बारबार "जय हो जय हो"  का  उच्चारण कर रहे थे  ।

क्या हुआ ?      कौन हो तुम ?      बाबा श्री शुकदेव दास जी नें  पण्डित जसराज जी से पूछा था  ।

मैं  जसराज ...........आपनें नाम सुना ही होगा !

अहंकार अभी बचा था ..........बाबा श्रीशुकदेव दास जी नें उत्तर दिया ......नही ...........मैं  किसी को नही जानता .........

टूट गया  अहंकार ..........मैं  क्या   अच्छे अच्छे संगीतकार इनके आगे कुछ नही हैं .............जसराज जी समझ गए थे  ।

"आप मेरे साथ बम्बई चलें"..........मेरी प्रार्थना है ............एक कार्यक्रम बम्बई में आप दें .........मेरी प्रार्थना है .........लता दीदी भी आपको सुनकर बहुत प्रसन्न होंगीं ........वो भी धन्यता का अनुभव करेंगी ।

बहुत कहा.................

नही .......मैं  क्यों जाऊँ बम्बई ?      मेरा क्या प्रयोजन  बम्बई से ।

विरक्त शिरोमणि श्रीशुकदेव दास जी बोले ...........

मैं  किसी के लिये नही गाता........मैं तो अपनें "युगल सरकार" के लिये गाता हूँ .......मैं उनको रिझानेँ के लिये गाता हूँ ......

जाओ  अब !      तुम्हारे आनें से मेरे "युगलवर" को संगीत सुननें में विघ्न हो रहा है ......जाओ  तुम  !    

क्या कहते  पण्डित जसराज.......बस सिर झुकाकर फिर प्रणाम किया ........और  वहाँ से चल दिए ..........पर  वृन्दावन की भूमि को समझ गए थे  ये.....कि ये भूमि  अच्छों अच्छों  का अहंकार तोड़ती है ।

और यही  वराह घाट में उनका आश्रम था ......और यही आश्रम है  उनका ........मुझे पता है ........मैं बचपन में बहुत  प्रसाद पाया हूँ  ये मेरा सौभाग्य है   ।  मैने  वराह घाट को प्रणाम किया  ।  

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मेरे बिना कुछ स्थिर नही रहेगा ......मैं हूँ  तो सम्पूर्ण सृष्टि है  ।

अहंकार से भर गयी थी पृथ्वी........वराहपुराण की बड़ी प्रामाणिक कथा  सुनानें लगे थे  चतुर्वेदी जी  ।

सुन्दर वन,  अत्यधिक सुन्दर....सुन्दर सुन्दर वृक्ष , लता पत्र ,  कुँजें , ताल ......ताल में खिले नाना प्रकार के कमल पुष्प........

ये क्या है  ?   पृथ्वीदेवी  चौंकीं......ये सब क्या है  ?   वराह भगवान से पूछनें लगीं थीं  ।

मेरे बिना  ये सुन्दर वन किस आधार पर  है   ।

तब  हँसे  थे  वराहनारायण .........और बोले -  हे देवी !  इस वन को "वृन्दावन" कहते हैं..........ये भगवान श्रीश्याम सुन्दर  और उनकी आल्हादिनी श्रीराधारानी की  नित्य विहारस्थली है  ।

तुम्हारी आवश्यकता नही है इस वृन्दावन को .......महाप्रलय में सब कुछ जल मग्न हो जाता है .....तुम भी .........पर  ये वृन्दावन स्वयं में प्रकाशित रहता है .........इसमें प्रलय का कोई प्रभाव नही पड़ता ।

वराह नारायण की बातों से पृथ्वी का अहंकार चूर्ण चूर्ण हो गया था ।

यही स्थान था  ,  वो पौराणिक स्थान  जहाँ वराह नारायण नें पृथ्वी का अहंकार  नष्ट किया था .......और श्रीधाम वृन्दावन के दर्शन कराये थे .......इसलिये इसे  "वराहघाट" कहते हैं  ।

बोलो  श्रीवृन्दावन धाम की  जय   ।

आज हमारे प्रिय  माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण के साथ  श्रीधाम की हम लोग परिक्रमा लगा रहे थे.....जिसमें "वराहघाट" की चर्चा आज प्रमुख थी  ।
जय जय श्री राधेेेश्या
जय श्री हरिवंश मेरो राधा वल्लभ लाल की जय