श्री चैतन्य चरित्रामृतम

Sunday 9 February 2020

Braj ke bhakt ki satya katha बृज के भक्त की सत्य कथा

श्रीकृष्णदास की व्रजनिष्ठा......

रणवाड़ी के सिद्ध बाबा श्रीकृष्णदास जी बंगवासी थे...
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संपन्न ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे, जब घर में अपने विवाह की बात सुनी तो ग्रहत्याग कर पैदल भागकर श्रीधाम वृंदावन आ गए।
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जिस समय वृंदावन आये थे उस समय वृंदावन भीषण जंगल था, वही अपनी फूस की कुटी बनाकर रहने लगे, केवल एक बार ग्राम से मधुकरी माँग लाते थे।
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बाबा बाल्यकाल में ही व्रज आ गए थे इसलिए किसी तीर्थ आदि का दर्शन नहीं किया था।
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एक बार मन में विचार आया कि चारधाम यात्रा कर आऊ...
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किन्तु प्रिया जी ने स्वपन में आदेश दिया इस धाम को छोड़कर अन्यत्र कही मत जाना, यही रहकर भजन करो, यही तुम्हे सर्वसिद्धि लाभ होगा।
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किन्तु बाबा ने श्रीजी के स्वप्नदेश को अपने मन और बुद्धि की कल्पना मात्र ही समझकर उसकी कोई परवाह न की और तीर्थ भ्रमण को चल पड़े।
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भ्रमण करते करते द्वारिका जी में पहुँच गए तो वहाँ तप्तमुद्रा की शरीर पर छाप धारण कर ली।
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चारो संप्रदायों के वैष्णवगण द्वारिका जाकर तप्तमुद्रा धारण करते है, परन्तु ये श्री वृंदावनीय रागानुगीय वैष्णवों की परंपरा के सम्मत नहीं है।
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बाबा जी ने व्रज के सदाचार की उपेक्षा की। तत्क्षण ही उनका मन खिन्न हो उठा और तीर्थ में अरुचि हो उठी और वे तुरंत वृंदावन लौट आये।
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जिस दिन लौटकर आये उसी रात्रि में श्री प्रिया जी ने पुन: स्वप्न दिया और कहा...
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तुमने द्वारिका की तप्तमुद्रा ग्रहण की है.. अतः तुम अब सत्यभामा के परिकर में हो गए हो, अब तुम व्रजवास के योग्य नहीं हो, द्वारिका चले जाओ।
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इस बार बाबा को स्वप्न कल्पित नहीं लगा इन्होने बहुत से बाबा से जिज्ञासा की...
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सबने श्रीप्रिया जी के ही आदेश का अनुमोदन किया।
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गोवर्धन में भी एक बाबा कृष्णदास जी नाम के ही थे, वे इन बाबा के घनिष्ठ मित्र थे।
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एक बार आप उनके पास गोवर्धन गए तो उन्होंने गाढ़ आलिंगन किया और पूछा इतने दिनों तक कहाँ थे ?
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बाबा ने कहा कि द्वारिका गया था और अपनी तप्त मुद्राएं भी दिखायी...
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यह देखते ही बाबा अचानक ठिठक गए और लंबी श्वास लेते हुए बोले... ओहो ! आज से आपके स्पर्श की मेरी योग्यता भी विनष्ट हो गई...
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कहाँ तो आप "महाराजेश्वरी (श्रीसत्यभामा) की सेविका" और कहाँ मैं "एक ग्वालन (श्रीराधारानी) की दासी।
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इतना सुनते ही बाबा एक दम स्तंभित हो गए और प्रणाम करके वापस लौट आये।
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हताश हो कुटिया में प्रवेश कर इन्होने अन्नजल त्याग दिया।
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अपने किये के अनुताप से और श्रीप्रिया जी के विरह से ह्रदय जलने लगा।
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कहते है इसी प्रकार ३ महीने तक रहे। अंतत: अन्दर की विरहानल बाहर शरीर पर प्रकट होने लगी।
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तीन दिन तक चरण से मस्तक पर्यंत क्रमशः अग्नि से जलकर इनकी काया भस्म हो गई..
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अचानक रात में सिद्ध बाबा श्रीजगन्नाथ दास जी जो वहीं पास में ही रहते थे, उन्होंने अपने शिष्य श्री बिहारीदास से कहा...
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देखो ! तो इस बाबा की कुटिया में क्या हो रहा है ?
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उसने अनुसन्धान लगाया तो कहा.. रणवाड़ी के बाबा की देह जल रही है, भीतर जाने का रास्ता नहीं था अंदर से सांकल बंद थी।
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सिद्ध बाबा समझ गए और बोले... ओ विरहानल ! इतना कहकर बाबा की कुटिया के किवाड़ तोड़कर अंदर गए।
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सबने देखा कंठपर्यंत तक अग्नि आ चुकी थी, बाबा ने रुई मंगवाई और तीन बत्तियाँ बनायीं और...
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ज्यो ही उन्होंने उनके माथे पर रखी कि एकदम अग्नि ने आगे बढकर सारे शरीर को भस्मसात कर दिया।
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श्रीजगन्नाथ दास बाबा वहाँ के लोगो से बोले... आज से तुम्हारे गाँव में कभी दुःख न आएगा, भले ही चहुँओर महामारी फैले।
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आज भी बाबा की वाणी का प्रत्यक्ष प्रमाण रणवाड़ी में देखा जाता है।
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तब से प्रतिवर्ष पौष मास की अमावस्या के ही दिन यहाँ के ब्रजवासी बाबा का तिरोभाव महोत्सव बड़े उल्लास के साथ मनाते हैं।
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धन्य है ऐसे श्रीराधारानी के दास और उनकी व्रजनिष्ठा जो शरीर तो छोड़ सकते है पर श्री धाम वृन्दावन नहीं।

जय जय श्री राधे🙏🙏

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