श्री चैतन्य चरित्रामृतम

Saturday, 15 February 2020

Bhakt hanuman parsad (bhai ji ) poddar jivan charitra भक्त हनुमान प्रसाद पौद्दार जी का जीवन चरित्र

नाम- श्री हनुमान प्रसाद पोद्दारजी
जन्म- शिलांग (1892)
भगवदलोक गमन-1971
भगवद प्राप्तिके मार्ग में अपने प्रत्यक्ष अनुभवोंके आधार पर संपूर्ण मानव जाति को आध्यात्मिक ग्रंथ रूपी अमूल्य निधि प्रदान करने वाले भक्त परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दारजी (भाईजी) का परिवार राजस्थान के रतनगढ़ में रहता था । पोद्दारजीके पिताजीका नाम भीमराजजी तथा दादाका नाम कनीरामजी था। अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए दादाजी रतनगढ़ से शिलांग आ गए थे। इनके पिता जो कि दादाजीके दत्तक पुत्र थे अपने परिवारके साथही शिलांग आगए । 17 सितंबर सन 1892 में शिलांग में ही आध्यात्मिक जगत को नया प्रकाश देनेवाले भाईजी रूपी सूरज का उदय हुआ जिसके कारण आज घर-घर में वेद पुराण रामायणजी, श्रीमद्भागवत, गीताजी आदि ग्रंथों को स्थान मिला है।

शिलांग में परिवारकी उथल-पुथल के साथ जीवन बीत रहा था कि अचानक सन 1897 में एक भयंकर भूकंप आया जिसने पूरे शिलांग को ध्वस्त कर दिया उस समय पोद्दार जी पड़ोस में किसी कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए गए हुए थे परिवार वालों को इस अनहोनी से बहुत चिंता हुई भूकंप के मंद होते ही परिवार के सभी लोग उन्हें ढूंढने के लिए निकल पड़े उधर भाई जी जिस स्थान पर थे वह मकान भी भूकंप की चपेट में आ गया था और भाईजी दो सिलाओंके गिरनेसे उनके बीच बने हुए गड्ढेमें सुरक्षित बचगए थे, जब परिवार वाले उसी मकान में पहुंचे तो पोद्दारजीने आवाज लगाकर कहा कि मैं सुरक्षित हूं मुझे बाहर निकालो । उस प्राकृतिक आपदासे उनके दादाजीका व्यवसाय और मकान ढह चुका था इसके पश्चात उनके दादाजीका कुछ दिनों में स्वर्गवास हो गया और उनकी दादी भाईजीको लेकर रतनगढ़ वापस आ गई तथा परिवार के अन्य सदस्य कोलकाता चले गए । 
प्रारंभिक शिक्षा
प्रारंभिक शिक्षाके लिए भाईजी को रतनगढ़ की पाठशाला में प्रवेश दिला दिया गया ।उन दिनों दादीजी श्री बखन्नाथजीके सत्संगमें जाया करती थीं वहीं पर भाईजीने गीताजीका अध्ययन किया । बखन्नाथजीने भाईजीको सदाचार, भगवानके प्रति आस्था जीवो पर दया करना ये सब बातें भी स्नेह पूर्वक बताईं। इससे भाईजीके जीवनमें भगवानके प्रति आस्था जीवो पर दया, गायकी सेवा और भगवानके सर्वत्र होने में विश्वास दृढ़ होने लगा भक्ति प्रगाढ़ होने लगी। इस समय भाई जी की उम्र 7 वर्ष की थी उनका विद्या अध्ययन संतो का संग दादीजी की स्नेह छाया में चल रहा था । उन दिनों रतनगढ़में महान संत श्री मेहर दासजी रहते थे इनके शिष्य थे श्रीबृजदासजी भाईजीकी आध्यात्मिक क्षेत्र की ओर रुचि को देखते हूए दादीजी ने इन्हीं से वैष्णवी दीक्षा करा दी।
पिताके पास कोलकाता जाना
सन 1901 में वे कोलकाता आ गए और अपने पिता का व्यवसाय दिखवाने लगे। इनके पिता सदाचारी, सेवाभावी और सात्विक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, ये अपनी दुकान में रात के समय सत्संग भी करते थे और दिन में कारोबार संभालते थे भाई जी यथाशक्ति प्रत्येक कार्य में हाथ बंटाते । वर्ष 1912 में भाई जी के पिता का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और वे कारोबार छोड़कर रतनगढ़ आ गए वहीं पर उसी वर्ष में उन्होंने अपना देह त्याग कर दिया।उस समय भारतवर्ष दासता की जंजीरों में जकड़ा हुआ था कई प्रकार के क्रांतिकारियों के दल स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ रहे थे भाईजी भी क्रांतिकारियों के साथ थे । इसी कारण से एक बार पुलिस ने इनके घर छापा मारा मिलने के लिए तो कुछ था ही नहीं परंतु इससे घरवालों की चिंताएं बढ़ गई जो कि स्वाभाविक ही था इसीलिए इनके घरवालों ने इनको विवाह के बंधन में बांधना उचित समझा परंतु इससे भी इनके कार्यक्षेत्र पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा ।
जेल में जाना व भजन
16 अगस्त सन 1916 को पुलिस ने भाईजी व उनके कुछ सहयोगियों को राजद्रोह के अपराध में गिरफ्तार कर लिया पहले इन्हें डोरंडा मे रखा गया उसके पश्चात अलीपुर जेल में भेज दिया गया,तत्कालीन गणमान्य व्यक्तियों ने सभी अभियुक्तों को कलंक बताकर बहिष्कृत कर दिया । भाई जी की दुकान का कारोबार पहले से ही मंद था और उनकी गिरफ्तारी के बाद तो बिल्कुल ही बंद हो गया ऐसे में उनकी दादी मां एवं धर्मपत्नी के भरण पोषण का प्रश्न उठ खड़ा हुआ जिसने उनको चिंतित कर दिया उनका ह्रदय तड़पने लगा और कोई भी आशा की किरण दिखाई नहीं दे रही थी सबने उनका साथ छोड़ दिया था ऐसे में उन्हें एक मात्र अवलंब दिखाई दिया भगवान का स्मरण इस प्रतिकूलता के समय में जब उन्होंने अशरणकी शरण ली तो उन्हें अद्भुत शांति प्राप्त हुई । भजन करते ही व्याकुलता दूर हो गई और हृदय में शांति का साम्राज्य सा छा गया किया यहीं से भाई जी को भगवान नाम के अद्भुत महात्य का सच्चा अनुभव हुआ । अब उन्हें माला की आवश्यकता हुई उन्होंने पहरेदार से प्रार्थना की, माला का प्रबंध तो ना हो सका परंतु पहरेदार के साथ परामर्श कर उन्होंने एक विधि निकाली पास में ही एक कील पड़ी थी उसीसे वह दीवार पर जितना नाम जपते उतनी ही लकीर  खींचते जाते । लगभग डेढ़ वर्ष तक सरकार को कोई साक्ष्य न मिला परंतु संदेह होने के कारण बांकुड़ा के सिमलापाल नामक ग्राम में भाई जी को नजरबंद कर दिया गया । सिमलापाल में वे भगवद भजन करते थाने में आई हुई डाक को छांटते और आवश्यकता पड़ने पर उनके उत्तरों को लिख देते थे । नजरबंदी के उस समय में उन्हें ₹50 मिला करते थे जिसका अधिकतम भाग वह अपने घर भेज देते थे । भाईजी ने वहां रहकर होम्योपैथी की किताबों का अध्ययन करके दवा देना भी शुरू कर दिया था बाद में उनकी धर्मपत्नी को साथ रहने का आदेश मिल गया । वहां से रिहा होने पर वह रतनगढ़ आ गए।
मुंबई जाना
एक दिन मुंबईके श्रीजमुनालाल बजाजका पत्र आया कि आप मुंबई आ जाएं यहां रहकर कुछ कार्य करेंगे। उस समय मुंबई में राजनीतिक गतिविधियां चल रही थी जिसके कारण वहां महान हस्तियों से मिलना भी हो गया । इसी बीच अपनी बहन के किसी कार्य के लिए बांकुड़ा जाने पर भाईजी की भेंट सेठ जयदयाल गोयंदका जी से हुई। सेठ जयदयालजी का सत्संग भाईजी को बहुत अच्छा लगता था बाद में सेठ जी को पता लगा कि भाई जी लेख अच्छा लिखते हैं तब उन्होंने उन्हें दो पुस्तकें दी उनमें सुधार करने के लिए भाई जी ने यथाशक्ति उसे पूरा किया जब सेठजी मुंबई आए तो उन्होंने एक धर्मशाला में 10 दिन तक लगातार गीताजी पर प्रवचन किया । इसके बाद सेठ जी ने निश्चित किया उनके जाने के बादभी प्रवचन लगातार चलता रहेगा और उसे भाई जी चलाएंगे । इस प्रकार गीताजी पर प्रवचन चलता रहा और धीरे-धीरे भाईजीके अंदर भगवान के दर्शनों की लालसा बढ़ने लगी। अब उन्हें यही उत्कंठा रहती कि कोई उन्हें भगवान के दर्शन करा दे ।
‘कल्याण’ पत्रिका का संपादन
एक बार दिल्ली में मारवाड़ी अग्रवाल महासभा के वार्षिक अधिवेशन में सेठ जमुनालालबजाजी ने भाईजी को स्वागत भाषण लिखवाने के लिए बुलाया गया , वहीं पर तय किया गया कि आध्यात्मिकविचारों को प्रकट करने के लिए एक पत्रिका होनी चाहिए पत्रिका का नाम भाईजीने सुझाया कल्याण इस प्रकार “कल्याण” पत्रिका का निकलना तय हो गया । 13 महीने तक कल्याण  मुंबई से प्रकाशित होती रही भाई जी संपादन का कार्य अपनी यथाशक्ति कर रहे थे परंतु वह एकांत चाहते थे । जब सेठजी को भाईजीकी इस उलझनके बारे में पता लगा तब उन्होंने घनश्यामजी जालान से बातकी और कल्याण पत्रिका का संपादन करने के लिए गोरखपुर को चुना गया जो कि उस समय एक छोटी सी जगह थी और भाईजी के लिए मनचाहा एकांत भी। सन 1927 ईस्वी अगस्त माह में भाईजी मुंबई से गोरखपुर आ गए । अब यहीं से कल्याण पत्रिका का संपादन शुरू हो गया प्रेस का नाम रखा गया गीता प्रेस इसका संचालन गोविंद भवन कोलकाता से होता था ।

भगवत दर्शनोंकी उत्कंठा
भाईजी के मन में भगवत दर्शनों की तीव्र उत्कंठा थी सेठ जय दयालजी उस समय बिहार में थे और उन्होंने पोद्दार जी को वही बुला लिया । सेठजी, पोद्दारजी और घनश्याम जालान जी के कहने पर भाईजीको एक निर्जन स्थान पर ले गए और उनको बैठा कर बोले कि भगवान का ध्यान करो । थोड़ी ही देर में भाई जी को एक दिव्य प्रकाश उदय होने की अनुभूति हुई और ध्यान में ही बे बोल पड़े  मुझे दर्शन हो रहे हैं। और इस प्रकार उन्हें उस डिब्बे आनंद की प्राप्ति ही इसके बाद अरेकों बार सेठजी के सत्संग में उन्हें भगवत दर्शनों के अनुभव प्राप्त होती रहे । इसके बाद भाईजी गोरखपुर लौट आए और उन्होंने अपने मन में यह निश्चय कर लिया कि अब उनका संपूर्ण जीवन भगवानकी सेवा और प्रचारके लिए है।
भगवानकी लीलाओंके दर्शन
जो महान कार्य पोद्दार जी ने गीता प्रेस गोरखपुर के लिए किया वह अतुलनीय है श्रीजयदयाल गोयन्दकाजी ने सन 1923 में गीताप्रेस की स्थापना की और उसके बाद ही हनुमान प्रसाद पोद्दारजी ने दिव्य प्रेरणा से सैकड़ों ग्रंथों का निर्माण किया और उचित मूल्य पर घर-घर पहुंचाया ।
भाईजीके जीवन में भगवान की लीलाओं के उन्हें दर्शन होते रहते थे कभी उनकी धर्मपत्नी भोजन ले कर आती तो भोजन करने के लिए बैठते और ध्यान लग जाता, भगवान की लीला में डूब जाते समाधि लग जाती भोजन रखा ही रह जाता पूरा पूरा दिन निकल जाता रात्रि निकल जाती कल्याण पत्रिका के संपादन काल के दौरान जब उन्हें कहीं कोई बात समझ में नहीं आती तो है जिस देवी-देवता का स्मरण करते वही प्रकट होकर उन्हें समस्या से बाहर निकालता महर्षि अंगिराजी और देवऋषि नारदजी उन्हें सत्संग देने आते थे ।
राधाबाबा को श्रीकृष्ण दर्शन
महान विभूति राधाबाबाजी का जन्म बिहार के गया नामक स्थान में ब्राह्मण परिवार में हुआ था । गीता प्रेस के संस्थापक श्रीजयदयाल गोयन्दकाजीसे ये कोलकाता में उनके एक शिविर में मिले । बाबा गीता वाटिका आए थे । श्रीमद्भगवद्गीताजी पर टीका लिखने के लिए । एक दिन राधा बाबा श्रीकृष्णके प्रेम में व्याकुल होकर वृंदावन जाना चाहते थे उन्होंने भाईजी से कहा ! हम वृंदावन जाना है भाईजी बोले ! पल पल पर मूर्छित हो जाना, गाना, लीला में डूब जाना ये तो तुम्हारी दशा है वहां तुम्हें कौन संभालेगा इसलिए यहीं पर रहकर साधन भजन करो । राधा बाबा जी बोले ! कि नहीं आप हमें पहले भी कई बार मना कर चुके हैं अब हम नहीं मानेंगे ज्यादा से ज्यादा आप हमारी टिकट नहीं बनवाएंगे क्यों बाबाजी पैसों को हाथ नहीं लगाते थे, किसी को साथ नहीं भेजेंगे तो मत भेजिए हम रास्ता पूछ कर पैदल ही चले जाएंगे । भाव भाव में बात बढ़ गई भाईजी मुस्कुराते हुए बोले अच्छा ठीक है देखते हैं हम भी आप कैसे जाते हैं । रात में राधाबाबा फिरसे व्याकुल हुए और रोने लगे उसी समय साक्षात भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट होकर बोले ! बाबा क्यों रो रहे हो तुम वृंदावन जाना चाहते हो न बाबा तुम नहीं जानते पोद्दारजी का शरीर चलता फिरता वृंदावन है इसमें मैं नित्य निरंतर विहार करता रहता हूं पोद्दार जी का हृदय मेरा निकुंज लीला स्थान है । ऐसे चलते फिरते वृंदावन को छोड़कर आप वहां जाना चाहते हैं इतना कहकर भगवान श्रीकृष्ण अंतर्धान हो गए इसके पश्चात तो बाबा रोने लगे पूरी रात उन्होंने रोकर बिताई और सुबह होते ही भाईजीके पास पहुंच गए । भाईजीने उन्हें प्रणाम किया तो बोले अब आप हमें प्रणाम न करें हमारी समझ में आ चुका है कि आप किस महान राज को छुपाए बैठे हैं इसलिए आपको लोग पोद्दार महाराज कहते हैं।
श्रीकृष्ण प्रेरणा से राधाबाबाकी प्रतिज्ञा
और अब मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि जब तक आप विराजमान रहेंगे तब तक आपके चरणों को छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा और जब आपका यह शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाएगा तो जहां आपके शरीरका संस्कार किया जाएगा अपने जीवनकी अंतिम सांस तक मैं वही निवास करूंगा । और हुआ भी ऐसा ही जब भाई जी का शरीर शांत हुआ तो उनका संस्कार राप्ती नदी पर ना करके गीता वाटिका में किया गया वह इसीलिए क्योंकि सब लोगों ने यह विचार किया कि राधाबाबा जैसी महान विभूति शमशान में कुटिया बनाकर निवास करें क्योंकि उनका प्रण था कि भाईजी का संस्कार जहां होगा वही पर वह अपने प्राण त्यागेंगे यह ठीक नहीं है इसलिए भाई जी का अंतिम संस्कार गीता वाटिका में बाबा की कुटिया के ठीक सामने किया गया । 


राधाबाबाका प्रारब्ध भाईजी द्वारा स्वयं भोगना
एक बार नंद नंदन भगवान श्रीकृष्ण साक्षात प्रकट होकर राधा बाबा से बोले ! पोद्दारजी जो 3 वर्ष से पाइल्स बीमारी का कष्ट भोग रहे वह आपके प्रारब्ध का कष्ट था परंतु उन्होंने उसे स्वयं भोगने के लिए ले लिया यह बात सुनकर राधा बाबा को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह तुरंत भाईजी के पास गए और कहने लगेग आपने मेरे प्रारंभ को अपने ऊपर क्यों ले लिया है ।
भाईजी बोले ! कैसा प्रारब्ध ? 
तो राधा बाबाजी कहने लगे कि मुझे साक्षात श्रीकृष्ण ने प्रकट होकर ये बात बताई है ,भाईजी ने मुस्कुराकर कहा ! कि क्या तुममें और मुझमें कोई अंतर है क्या तुम कोई अंतर मानते हो ?
श्री राधाबाबाजी कहते थे कि जब बे पहली बार भाईजी से मिले तो भाईजीने उनके चरणों को ज्योंही अपने हाथों से स्पर्स किया राधा बाबाजी के पूरे शरीर में एक दिव्य कंपन सा हुआ और उन्हें ऐसा अनुभव हुआ जैसे वह गोपियों के बीच में बैठे हुए है । ऐसी प्रेम की पराकाष्ठा को पहुंचे हुए भक्ति के परमाणु भाई जी के शरीर में थे।
प्रेत को मुक्त कराना
एक बार जब भाईजी मुंबई में रहा करते थे तबकी यह घटना है वह नित्य साधन करने के लिए चौपाटी क्षेत्र जो समुद्रके किनारे पड़ता है वहां एकांत में माला जपने के लिए जाते थे वह हरे राम महामंत्र की 40 मालाएं अपने उस युवा काल में जपते थे । माला जपने के बाद ज्यों ही उठने के लिए उद्यत हुए उन्हेंने देखा कि सामने कोई व्यक्ति खड़ा हुआ है, कुछ क्षण तो भाईजी देखते रहे फिर  उन्होंने कहा कि भाई आप कौन हो यहां क्यों खड़े हुए हो अपना परिचय दो वह व्यक्ति बोला कि हम अपना परिचय देंगे तो आप डर सकते हैं, हम प्रेत हैं भाईजी कुछ संशय पूर्ण वाणी से बोले ! प्रत हो कहां रहते हो ? प्रेतबोला हम यही मुंबई के ही प्रेत हैं और पारसी धर्म से। हमारा पिंडदान श्राद्ध आदि तर्पण क्रियाएं नहीं की गई इसलिए प्रेत योनि प्राप्त हुई है भाई जी ने कहा कि आपके धर्म में तो श्राद्ध तर्पण पिंडदान की क्रियाएं होती नहीं फिर तू प्रीत बोला कि यह मृत्युलोक की कल्पनाएं हैं यहां ऐसा नहीं है । जिन मनुष्यों की सनातन धर्म की वैदिक पद्धतियों के अनुसार क्रियाएं होती हैं उन्हीं को मुक्ति प्राप्त होती है भाईजीने कहा तो आप हमसे क्या चाहते हैं प्रेत बोला कि आप समर्थ हैं इसलिए हम आपके पास आए हैं हमारा संस्कार वैदिक पद्धतियों के अनुसार नहीं किया गया इसलिए हमें प्रेत योनि प्राप्त हुई है यदि आप हमारा किसी वेद पार्टी ब्राह्मण से गया में श्राद्ध करा देते हैं तो हमें मुक्ति प्राप्त हो जाएगी भाई जी बोले कि ऐसा करने से आपको मुक्ति मिल जाएगी तो हम अवश्य ही यह क्रिया आपके निमित्त कराएंगे,परंतु मुक्ति प्राप्त हो तो आप हमको अनुभव अवश्य कराकर जाइए जिससे हमें पता चले कि हमारे द्वारा कराई हुई क्रिया से आपको कोई लाभ प्राप्त हुआ ।
प्रेत बोला ठीक है आप हमें मुक्त करा दीजिए। भाईजी ने एक वेदपाठी ब्राह्मणको गया(बिहार) स्थान में उस प्रेत की क्रिया के निमित्त कुछ द्रव्य देकर भेज दिया जिस दिन वहां पर क्रिया संपन्न हुई उसी दिन की बात है भाई जी रोजाना की तरह चौपाटी क्षेत्र में संध्या कर रहे थे महामंत्र जप रहे थे उसी समय वह प्रेत प्रसन्न मुद्रा में आ कर बोला कि आपके कारण आज हमारी प्रेतत्व से मुक्ति हो गई और हम स्वर्ग को जा रहे हैैं।
तीर्थांक का प्रकाशन
बहुत से भक्तों की अभिलाषा थी कि जनवरी 1957 का कल्याण का अंक तीर्थांक हो इसके लिए बहुतसे साधु-संतों, महात्माओं से जानकारी मांगी गई परंतु पर्याप्त जानकारी ना मिल सकी, अतः सेठ जी ने सुझाव दिया कि भाईजी आप स्वयं ही तीर्थों पर जाकर जानकारी एकत्रित करें इसके पश्चात सैकड़ों भक्तों के साथ भाई जी स्वयं सभी तीर्थों पर जाकर जानकारी एकत्रित की ओर तीर्थक निकाला ।
श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दारजी (भाई जी)  एवं राधा बाबा जी को दंडवत प्रणाम🙏
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