(((( गोवर्धन की कथा ))))
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गोवर्धन पर्वत अपना सर्वस्व श्रीकृष्ण को ही मानते हैं। यह पर्वत अपने पत्र, पुष्प, फल, और जल को श्रीकृष्ण का ही मानकर उन्हें सदा समर्पित करता है।
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जब प्रभु तथा उनके सखाओं को भूख लगती है, तो नाना प्रकार के फल उन्हें अर्पित करता है, और प्यास लगने पर अपने मधुर जल से उन्हें तृप्त करता है।
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प्रभु को सजाने के लिये तरह-तरह के पुष्प गले के हार के लिये अर्पित करता है।
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पौराणिक कथानुसार गिरिराज द्रोणपर्वत का पुत्र है। एक बार ऋषि पुलस्त्य ने द्रोणपर्वत से उनके पुत्र गोवर्धन को अपने साथ अन्यत्र ले जाने के लिये विनय किया।
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तब गोवर्धनपर्वत ने शर्त रखी कि यदि मार्ग में थकान या किसी कारण वश कहीं भी भूमि पर उन्हें रखा गया तो गोवर्धन वहीं अटल हो जायेंगे।
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ऋषि पुलस्त्य जब व्रजभूमि के ऊपर से गुजर रहे थे तो गिरिराज ने अपना वजन इतना बढ़ा लिया कि पुलस्त्य ऋषि को
गिरिराजपर्वत भूमि पर रखना पड़ा।
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वह भूमि व्रजभूमि ही थी, और गिरिराज श्रीकृष्ण की पावन स्थली वृन्दावनधाम में सदा-सदा के लिये विराजमान हो गया।
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ऋषि पुलस्त्य को इस बात पर बड़ा क्रोध आया और उन्होने गिरिराज को शाप दे दिया कि तू दिन प्रतिदिन तिल-तिल घटता जायगा, और यह क्रम आज भी चल रहा है।
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वाराहपुराण के एक कथानुसार- त्रेता युग में जब प्रभु श्रीराम को समुद्र पर पुल का निर्माण हेतु बड़े-बड़े पाषाण-खण्ड एवं पर्वतों की आवश्यकता हुई, तब हनुमानजी बहुत सारे पाषाणखण्ड उठा कर लाये।
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उसी समय गिरिराज को भी उठाकर पवनपुत्र ला रहे थे, कि तभी घोषणा हुई कि सेतुबन्ध का कार्य पूर्ण हो चुका है।अब पाषाणखण्ड की कोई आवश्यकता नहीं है।
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विवश होकर हनुमानजी ने लौटकर पर्वतराज को अपने पूर्व स्थान पर ही स्थापित कर दिया।
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उस समय गिरिराज को महान क्षोभ हुआ कि मैं प्रभु श्रीराम के कोई काम न आ सका।
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तब प्रभु उसके अन्तस के क्षोभ का आभास पाते हुये आश्वस्त किया कि द्वापर युग में मेरे कृष्णावतार के समय तुम्हें मेरे चरणरजस्पर्श एवं लीलावलोकन का पूर्ण लाभ मिलेगा।
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तुम श्रीकृष्ण के परम प्रिय हरिदासवर्य बनोगे। इन्द्रकोप के समय श्रीकृष्ण अपने नख पर धारण कर समस्त ब्रजमंडल की रक्षा का माध्यम तुम्हें ही बनायेंगे।
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गिरिराज को हरिदासवर्य कहा गया है, अर्थात भगवद्भक्तों में परम श्रेष्ठ हैं।
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इस पर्वत पर श्रीकृष्ण गोचारण करते हुये अपने चरणों का उन्हें स्पर्ष कराते हैं, धन्य हैं ये गिरिराज, और धन्य है इनकी कथा।
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भगवान श्रीकृष्ण ने तो स्वयं गिरिराज बनकर अन्नकूट का भोग स्वीकार किया। यह गिरिराज तो कृष्ण व्रजराज कहलाए।कृष्ण गोपाल तो यह गोवर्धन। गिरिराज के बिना ब्रज की कल्पना नहीं की जा सकती।
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((((((( जय जय श्री राधे )))))))
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