🙏🏼🌸 *|| हरिः शरणम् ||*🌸🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(20)
🌸 विश्वरूप का गृह-त्याग 🌸
क्रमशः से आगे.............
विश्वरूप निर्द्वन्द्व हो चुके थे। वे गीले ही वस्त्रों से आगे बढ़े चले गये। इसके पश्चात् विश्वरूप जी का कोई निश्चित वृत्तान्त नहीं मिलता। पीछे से यही पता चला कि इन्होंने किसी अरण्य नामक संन्यासी से संन्यास ग्रहण कर लिया और इनके संन्यास का नाम हुआ शंकरारण्य। इनके संन्यासी हो जाने पर लोकनाथ ने इनसे संन्यास लिया। दो वर्षों तक ये भारत के अनेक तीर्थों में भ्रमण करते रहे। अन्त में महाराष्ट्र के परम प्रसिद्ध तीर्थ पण्ढरपुर में इन्होंने श्रीविट्ठलनाथ जी के क्षेत्र में अपना यह पांच भौतिक शरीर त्याग कर दिया। देहत्याग के पूर्व इन्होंने अपना स्वकीय तेज श्रीमन्माधवेन्द्रपुरी के आश्रम में उनके परम प्रिय शिष्य श्रीईश्वरपुरी को प्रदान कर दिया था। उन्हीं से वह तेज नित्यानन्द के पास आया। इसीलिये नित्यानन्द को बलराम या शेषनाग को अवतार मानते हैं। इस प्रसंग को पाठक आगे समझेंगे। इधर प्रातःकाल हुआ।
मिश्र जी ने देखा विश्वरूप शय्या पर नहीं है। इतने सबेरे पिता से पहले वे उठकर कहीं नहीं जाते थे। पिता को एकदम शंका हो गयी। उन्होंने शय्या के समीप जाकर देखा। पहले तो सोचा गंगास्नान के लिये चला गया होगा, किन्तु जलपात्र और धोती तो ज्यों-की-त्यों रखी है। थोड़ी देर तक वे चुप रहे, फिर उनसे नहीं रहा गया, उन्होंने यह बात शचीदेवी से कही। शचीदेवी भी सोच में पड़ गयी। निमाई भी उठ बैठा। शचीदेवी ने कहा- ‘बेलपोखरा (शचीदेवी के पिता नीलाम्बर चक्रवर्ती का घर बेलपोखरा मुहल्ले में ही था, विश्वरूप लोकनाथ से शास्त्रविचार करने बहुधा वहीं चले जाते थे) लोकनाथ के पास चला गया हो।’ मिश्रजी जल्दी से चक्रवर्ती महाशय के घर गये। वहाँ जाकर देखा कि लोकनाथ भी नहीं है। सभी समझ गये। दोनों परिवार के लोग शोकसागर में मग्न हो गये। शचीदेवी दौड़ी-दौड़ी अद्वैताचार्य के यहाँ गयी। वहाँ भी विश्वरूप का कुछ पता नहीं था। क्षणभर में यह बात सर्वत्र फैल गयी कि विश्वरूप घर छोड़कर चले गये। चारों ओर से मिश्र जी के स्नेही उनके घर आने लगे। लोगों की भीड़ लग गयी।
अद्वैताचार्य भी अपने शिष्यों के साथ वहाँ आ गये। सभी भाँति-भाँति की कल्पनाएँ करने लगे। कुछ भक्त कहने लगे- ‘अब घोर कलियुग आ गया। साधु-ब्राह्मणों का मान नहीं, वैष्णवों को सर्वत्र अपमानित होना पड़ता है, धर्म-कर्म सभी लोप हो गये। अब यह संसार भले आदमियों के रहने योग्य नहीं रहा। हमें भी सर्वस्व छोड़कर विश्व के ही मार्ग का अनुसरण करना चाहिये।’ कुछ कहते- ‘भाई! विश्वरूप को हम इतना निष्ठुर नहीं समझते थे, उसने अपने छोटे भाई का भी तनिक मोह नहीं किया।’
मिश्र जी की आँखों से अश्रुओं की धारा बह रही थी, वे मुख से कुछ भी नहीं कहते थे, नीची दृष्टि किये वे बराबर भूमि की ओर ताक रहे थे, मानो उन्हें सन्देह हो गया था कि इस भूमि ने ही मेरे प्राण प्यारे पुत्र को अपने में छिपा लिया है। उनके धँसे हुए कपोल और सिकुडी हुई खाल के ऊपर से अश्रु-विन्दु बह-बहकर पृथ्वी में गिरते जाते थे और वे उसी समय पृथ्वी में विलीन होते जाते थे। इससे उनका सन्देह और भी बढ़ता जाता था कि जो पृथ्वी बराबर इन अश्रुओं को अपने में छिपाती जाती है उसने ही जरूर मेरे बेटे विश्वरूप को छिपा लिया है। उनकी दृष्टि ऊपर उठती ही नहीं थी। लोग परस्पर में क्या बातें कर रहे हैं इसका उन्हें कुछ भी पता नहीं था। उनके साथी-सम्बन्धी उन्हें भाँति-भाँति से समझाते, किन्तु वे किसी की भी बात का प्रत्युत्तर नहीं देते थे। इधर शचीदेवी के करूण-रूदन को सुनकर पत्थर भी पसीजने लगे। माता जोर-जोर से दहाड़ मारकर रुदन कर रही थीं।
विश्वरूप के गुणों का बखान करते-करते माता जिस प्रकार गौ अपने बच्चे के लिये आतुरता से रम्हाती है उसी प्रकार शचीदेवी उच्च स्वर से विलाप कर रही थीं। वे बार-बार कहतीं- ‘बेटा, इस बूढ़ी को अधजली ही छोड़कर चला गया। यदि मेरा और अपने बूढे़ बाप का कुछ खयाल न किया तो न सही, इस अपने छोटे भाई की ओर भी तूने नहीं देखा। यह तो तेरे बिना क्षणभर भी नहीं रह सकेगा। विश्वरूप! मैं नहीं जानती थी, कि तू इतना निर्दयी भी कभी बन सकेगा।’ माता के विलाप को सुनकर निमाई भी जोर-जोर से रोने लगे और रोते-रोते वे एकदम बेहोश हो गये। भ्रातृ-वियोग का स्मरण करके तथा माता-पिता के दुःख को देखकर निमाई मूर्च्छित हो गये। उनका सम्पूर्ण शरीर संज्ञा शून्य हो गया। आस-पास की स्त्रियों ने जल्दी से निमाई को उठाया, उनके मुख में जल डाला और उन्हें सचेत करने के लिये भाँति-भाँति की चेष्टाएँ करने लगीं। स्त्रियाँ शचीदेवी को समझा रही थीं- ‘शची! अब रोने से क्या होगा, धैर्य धारण करो। तुम्हारे पुत्र ने कोई बुरा काम तो किया ही नहीं। तुम्हारी सैकड़ों पीढ़ियों को उसने तार दिया।
भगवान की भक्ति से बढ़कर और क्या है? अब इस निमाई को ही देखकर धैर्य धारण करो। देख, तेरे रुदन से यह बेहोश हो गया है, इसका खयाल करके तू रोना बंद कर दे।’ माता ने कुछ-कुछ धैर्य धारण किया। निमाई को धीरे-धीरे चेतना होने लगी। वे थोड़ी ही देर में प्रकृतिस्थ हो गये। अपने आँसुओं को पोंछकर आप माता से बोले- ‘माँ! दद्दा चले गये तो कोई चिन्ता नहीं। मैं तुम लोगों की बड़ा होकर सेवा-शुश्रूषा करूँगा। आप लोग धैर्य धारण करें।’ लोग मिश्र जी से कह रहे थे। हम उत्तर की ओर जाते हैं, चार आदमियों को दक्षिण की ओर भेजो। लोकनाथ के पिता दो-चार आदमियों को लेकर गंगा-पार जायँ। अभी दो-चार कोस ही तो पहुँचे होंगे, हम उन्हें जल्दी ही लौटा लावेंगे। इन सब लोगों की बातें सुनकर ऊपर दृष्टि उठाकर मिश्र जी ने साहस के साथ कहा- ‘अब भाई! कहीं जाने से क्या लाभ?
क्रमशः ..................
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