🙏🏼🌸 *|| हरिः शरणम् ||*🌸🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(19)
🌸 विश्वरूप का वैराग्य 🌸
क्रमशः से आगे.............
उन्होंने फिर कहा- ‘आप चाहे बतावें या न बतावें मैं सब जानता हूँ। फूफा जी आपके विवाह की सोच रहे हैं। आपके भावों को खूब जानता हूँ, कि आप विवाह के बन्धन में कभी न फँसेंगे। आप इसके लिये सबका त्याग कर सकते हैं, किन्तु मैं आपके चरणों में यही विनीत भाव से प्रार्थना करता हूँ कि मुझे अपने चरणों से पृथक न करें- यही मेरी अन्तिम प्रार्थना है।’ विश्वरूप ने उन्हें गाढ़ आलिंगन करते हुए कहा- ‘भैया! तुम कैसी बात कर रहे हो। यदि ऐसा कुछ होगा भी तो मैं तुम्हारी सम्मति के बिना कुछ थोड़े ही कर सकता हूँ। तुम तो मेरे प्राण हो, भला तुम्हें छोड़कर मैं कैसे जा सकता हूँ। दोनों भाई यथासमय भोजन करने के निमित्त अपने-अपने घर चले गये। विश्वरूप घर में बहुत ही कम रहते थे, केवल दोपहर को और शाम को भोजन करने के निमित्त घर जाते, नहीं तो सदा अद्वैताचार्य जी की पाठशाला में ही शास्त्रालोचना तथा गम्भीर विचार करते रहते।
इसीलिये माता-पिता को इनके मनोभावों के सम्बन्ध में विशेष जानकारी नहीं हो सकी। बीच-बीच में जब निमाई इन्हें बुलाने जाते तब ये थोड़ी देर के लिये घर आ जाते और कभी-कभी निमाई से दो-चार बातें करते। मिश्र जी इनसे बातें करने में संकोच करते थे। इनके पढ़ने में किसी प्रकार का विघ्न नहीं डालना चाहते थे। धीरे-धीरे विश्वरूप का वैराग्य दिन-प्रति-दिन अधिकाधिक बढ़ने लगा। एक बार उन्होंने ज्ञानदृष्टि से देखा कि ये माता, पिता, भाई, मित्र आदि असल में चीज क्या हैं? विचार करते-करते वे संसारी-सम्बन्धों से ऊँचे उठ गये। उन्हें प्रतीत होने लगा, सभी प्राणी अपने प्रारब्ध-कर्मों के अनुसार बिना सोचे-समझे दिन-रात कर्मों में जुटे हुए हैं। अन्धे की भाँति बिना आगे का ध्यान किये किसी अज्ञात मार्ग की ओर चले जा रहे हैं।
विचार करते-करते उन्हें संसार के सभी प्राणी समानरूप से रेंगते हुए-से दीखने लगे। जैसे किसी बहुत ऊँचे स्थान पर चढ़कर देखने से मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष सभी छोटे-छोटे भिनगे-से उड़ते दिखायी पड़ते हैं, उनमें फिर विवेक नहीं किया जा सकता कि कौन मनुष्य है, कौन पशु। सभी समानरूप से छोटे-छोटे कण-से दिखायी पड़ते हैं, उसी प्रकार विचार की ऊँची भित्ति पर चढ़कर विश्वरूप को ये संसारी जीव दीखने लगे। उनका माता-पिता तथा बन्धु-बान्धवों के प्रति जो मोह था, वह एकदम जाता रहा। वे अपने को समझ गये और मन-ही-मन कहने लगे- ‘ये संसारी लोग भी कितने दया के पात्र हैं! रोज न जाने क्या-क्या विचार करते रहते हैं। बड़े-बड़े विधान बनाते रहते हैं, किन्तु सभी किसी अज्ञात शक्ति की प्रेरणा से घूम रहे हैं।’ लोग कहते हैं, ‘अजी अभी संसार का सुख भोग लो।
आगे चलकर भगवद्भजन कर लेंगे। वे अज्ञ यह नहीं समझते कि यह शरीर क्षणभंगुर है, इसका दूसरे क्षण का भी पता नहीं।’ इन विचारों के आते ही उन्होंने अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। भर्तृहरि जी के इस श्लोक को वे बार-बार पढ़ने लगे-
यावत् स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्00
प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः।।
‘अरे ओ युवको! जब तक यह कोमल और नूतन शरीर स्वस्थ है, जब तक वृद्धावस्था तुमसे बहुत दूर चुपचाप तुम्हारी ताक में बैठी है, जब तक तुम्हारी इन्द्रियों की शक्ति न्यून नहीं हुई है और जब तक यह आयु शेष नहीं हुई है, तब तक ही आत्मा के कल्याण का प्रयत्न कर लो, इसी में बुद्धिमानी है। नहीं तो घर में आग लगने पर जो कुँआ खोदने की बात सोचकर चुपचाप बैठा है, उसके घर में आग लगने पर वह जल ही जायगा। आग लगने पर कुँआ खोदने में प्रयत्न करना मूर्खता है।’
🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼
🙏🏼🌸 *|| हरिः शरणम् ||*🌸🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
🌸 विश्वरूप का गृह-त्याग 🌸
क्रमशः से आगे.............
धन्याः खलु महात्मानो मुनयः सत्यसम्मताः।
जितात्मानो महाभागा येषां न स्तः प्रियाप्रिये।।[1]
बन्धन का हेतु ममत्व है, ममत्व का सम्बन्ध मन से है। जिसने मन से ममत्व को निकाल दिया, वह तो नित्यमुक्त ही है। उसके लिये न कोई अपना है न पराया, वह तो अनेक रूपों में एक ही आत्मा को चारों ओर देखता है, फिर वह संकुचित सीमा में अपने को आबद्ध नहीं रख सकता। विश्वरूप ने निश्चय कर लिया कि मुझे इस गृह को त्याग देना चाहिये। जहाँ पर माता-पिता ही मुझे अपना समझते हैं, जहाँ नित्यप्रति भाँति-भाँति के संसारी प्रलोभनों के आने की सम्भावना है, ऐसी जगह अब अधिक दिन ठहरना ठीक नहीं है। ऐसा निश्चय कर लेने पर एक दिन इन्होंने अपनी माता को एक पुस्तक देते हुए कहा- ‘माँ, यह पुस्तक निमाई के लिये है, जब वह बड़ा हो तो इस पुस्तक को उसे दे देना, भूल मत जाना।’
माता ने सरलता के साथ उत्तर दिया- ‘तब तक तू कहीं चला थोड़े ही जायगा। मैं भूल जाऊँ तो तू तो न भूलेगा। तू ही इसे अपने हाथ से उसे देना और पढ़ाना। तू भी तो अब पण्डित बन गया है। निमाई तुझसे ही पढ़ा करेगा।’ विश्वरूप ने मानसिक भावों को छिपाते हुए कहा- ‘हाँ, ठीक है, मैं रहा तो दे ही दूँगा, किन्तु तू भी इस बात को याद रखना।’ भोली-भाली माता को क्या पता कि मेरा विश्वरूप अब दो ही चार दिन का मेहमान है। दो-चार दिन के बाद फिर इसकी मनमोहिनी सूरत हम लोगों को कभी भी देखने को न मिल सकेगी। माता अपने काम-धंधे में लग गयी। जाड़े का समय है, खूब कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा है। सभी प्राणी जाडे़ के मारे गुड़मुड़ी मारे रात्रि में सो रहे हैं। चारों ओर नीरवता का साम्राज्य है, कहीं भी कोलाहल सुनायी नहीं पड़ता, सर्वत्र स्तब्धता छायी हुई है। ऐसे समय विश्वरूप को निद्रा कहाँ?
वे तो भविष्य-जीवन को महान बनाने की ऊहापोह में लगे हुए हैं। घर में एक बार दृष्टि डाली। एक ओर माता सो रही है, उसके पास ही चुपचाप निमाई आँख बन्द किये हुए शयन कर रहे हैं। मिश्र जी दूसरी ओर रजाई ओढ़े खाट पर सो रहे हैं। विश्वरूप ने एक बार खूब ध्यान से पिता की ओर देखा। सिर के बाल पके हुए थे, मुँह पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थीं। हमेशा गृहस्थी की चिन्ता करते रहने से उनका स्वभाव ही चिन्तामय बन गया था, सोते समय भी मानो वे किसी गहरी चिन्ता में डूबे हुए हैं। निर्धन वृद्ध के चेहरे की ओर देखकर एक बार तो विश्वरूप अपने निश्चय से विचलित हुए।
उनके मन में भाव आया- ‘पिता वृद्ध हैं, आजीविका का कोई निश्चित प्रबन्ध नहीं, निमाई अभी निरा बालक ही है, घर का काम कैसे चलेगा?’ किन्तु थोड़े ही देर बाद वे सोचने लगे- ‘अरे, मैं यह क्या सोच रहा हूँ? जिसने इस चराचर विश्व की रचना की है, जो सभी के भरण-पोषण का पहले से ही प्रबन्ध कर देता है, उसको कर्ता न मानकर मैं अपने में कर्तापने का आरोप क्यों कर रहा हूँ? वृत्ति तो सबकी वही चलता है। मनुष्य तो निमित्तमात्र है। विश्वम्भर ही सबका पालन करते हैं, मुझे अपने सत्संकल्प से विचलित न होना चाहिये’ यह सोचकर उन्होंने सोती हुई माता को मन-ही-मन प्रणाम किया। छोटे भाई को एक बार प्रेमपूर्वक देखा और धीरे से घर से निकल पड़े। संकेत के अनुसार लोकनाथ उन्हें गंगा तट पर तैयार बैठे मिले। दोनों एक-दूसरे को देखकर अत्यन्त ही प्रसन्न हुए, अब उन्हें यह चिन्ता हुई कि रात्रि में गंगा-पार किस प्रकार जा सकते हैं। अब बहुत ही शीघ्र प्रातःकाल होने वाला है। इधर-उधर कहीं जायँगे तो पहचाने जाने पर पकड़े जायँगे। इसलिये गंगा-पार जाये बिना क्षेम नहीं है। उस समय नाव का मिलना कठिन था। दोनों ही युवक निर्भीक थे, जीवन का मोह तो उन्हें था ही नहीं।
मनुष्य इस जीवन-रक्षा के ही लिये साहस के काम करने से डरा करता है। जिसने जीवन की उपेक्षा कर दी है, जिसने अपने शीश को उतारकर हथेली पर रख लिया है, वह संसार में जो भी चाहे कर सकता है, उसके लिये कोई काम कठिन नहीं। ’असम्भव’ तो उसके शब्द-कोष में रहता ही नहीं। ये दोनों युवक भी भगवान का नाम लेकर पतितपावनी कलिमलहारिणी भगवती भागीरथी की गोद में बिना शंका के कूद पड़े। मानो आज वे जलती हुई भव-दावाग्नि से निकलकर जगज्जननी माँ जाह्नवी की सुशीतल क्रोड में शाश्वत शान्ति के निमित्त सदा के लिये प्रवेश करते हों। गंगा जी के किनारे रहने वाले छोटे-छोटे बच्चे भी खूब तैरना जानते हैं, फिर ये तो युवक थे और तैरने में प्रवीण थे, सामान इन लोगों के पास कुछ था ही नहीं, इसलिये ये निर्विघ्न गंगा पार हो गये। जाड़े का समय था, शरीर के सभी वस्त्र भीग गये थे, किन्तु इन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं था। शीतोष्णादि द्वन्द्व तो तभी तक बाधा पहुँचा सकते हैं जब तक कि शरीर में ममत्व होता है। शरीर से ममत्व कम हो जाने पर मनुष्य द्वन्द्वों की वेदना से ऊँचा उठ जाPPPता है, तभी वह निर्द्वन्द्व हो सकता है।
क्रमशः ..................
🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(19)
🌸 विश्वरूप का वैराग्य 🌸
क्रमशः से आगे.............
उन्होंने फिर कहा- ‘आप चाहे बतावें या न बतावें मैं सब जानता हूँ। फूफा जी आपके विवाह की सोच रहे हैं। आपके भावों को खूब जानता हूँ, कि आप विवाह के बन्धन में कभी न फँसेंगे। आप इसके लिये सबका त्याग कर सकते हैं, किन्तु मैं आपके चरणों में यही विनीत भाव से प्रार्थना करता हूँ कि मुझे अपने चरणों से पृथक न करें- यही मेरी अन्तिम प्रार्थना है।’ विश्वरूप ने उन्हें गाढ़ आलिंगन करते हुए कहा- ‘भैया! तुम कैसी बात कर रहे हो। यदि ऐसा कुछ होगा भी तो मैं तुम्हारी सम्मति के बिना कुछ थोड़े ही कर सकता हूँ। तुम तो मेरे प्राण हो, भला तुम्हें छोड़कर मैं कैसे जा सकता हूँ। दोनों भाई यथासमय भोजन करने के निमित्त अपने-अपने घर चले गये। विश्वरूप घर में बहुत ही कम रहते थे, केवल दोपहर को और शाम को भोजन करने के निमित्त घर जाते, नहीं तो सदा अद्वैताचार्य जी की पाठशाला में ही शास्त्रालोचना तथा गम्भीर विचार करते रहते।
इसीलिये माता-पिता को इनके मनोभावों के सम्बन्ध में विशेष जानकारी नहीं हो सकी। बीच-बीच में जब निमाई इन्हें बुलाने जाते तब ये थोड़ी देर के लिये घर आ जाते और कभी-कभी निमाई से दो-चार बातें करते। मिश्र जी इनसे बातें करने में संकोच करते थे। इनके पढ़ने में किसी प्रकार का विघ्न नहीं डालना चाहते थे। धीरे-धीरे विश्वरूप का वैराग्य दिन-प्रति-दिन अधिकाधिक बढ़ने लगा। एक बार उन्होंने ज्ञानदृष्टि से देखा कि ये माता, पिता, भाई, मित्र आदि असल में चीज क्या हैं? विचार करते-करते वे संसारी-सम्बन्धों से ऊँचे उठ गये। उन्हें प्रतीत होने लगा, सभी प्राणी अपने प्रारब्ध-कर्मों के अनुसार बिना सोचे-समझे दिन-रात कर्मों में जुटे हुए हैं। अन्धे की भाँति बिना आगे का ध्यान किये किसी अज्ञात मार्ग की ओर चले जा रहे हैं।
विचार करते-करते उन्हें संसार के सभी प्राणी समानरूप से रेंगते हुए-से दीखने लगे। जैसे किसी बहुत ऊँचे स्थान पर चढ़कर देखने से मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष सभी छोटे-छोटे भिनगे-से उड़ते दिखायी पड़ते हैं, उनमें फिर विवेक नहीं किया जा सकता कि कौन मनुष्य है, कौन पशु। सभी समानरूप से छोटे-छोटे कण-से दिखायी पड़ते हैं, उसी प्रकार विचार की ऊँची भित्ति पर चढ़कर विश्वरूप को ये संसारी जीव दीखने लगे। उनका माता-पिता तथा बन्धु-बान्धवों के प्रति जो मोह था, वह एकदम जाता रहा। वे अपने को समझ गये और मन-ही-मन कहने लगे- ‘ये संसारी लोग भी कितने दया के पात्र हैं! रोज न जाने क्या-क्या विचार करते रहते हैं। बड़े-बड़े विधान बनाते रहते हैं, किन्तु सभी किसी अज्ञात शक्ति की प्रेरणा से घूम रहे हैं।’ लोग कहते हैं, ‘अजी अभी संसार का सुख भोग लो।
आगे चलकर भगवद्भजन कर लेंगे। वे अज्ञ यह नहीं समझते कि यह शरीर क्षणभंगुर है, इसका दूसरे क्षण का भी पता नहीं।’ इन विचारों के आते ही उन्होंने अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। भर्तृहरि जी के इस श्लोक को वे बार-बार पढ़ने लगे-
यावत् स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्00
प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः।।
‘अरे ओ युवको! जब तक यह कोमल और नूतन शरीर स्वस्थ है, जब तक वृद्धावस्था तुमसे बहुत दूर चुपचाप तुम्हारी ताक में बैठी है, जब तक तुम्हारी इन्द्रियों की शक्ति न्यून नहीं हुई है और जब तक यह आयु शेष नहीं हुई है, तब तक ही आत्मा के कल्याण का प्रयत्न कर लो, इसी में बुद्धिमानी है। नहीं तो घर में आग लगने पर जो कुँआ खोदने की बात सोचकर चुपचाप बैठा है, उसके घर में आग लगने पर वह जल ही जायगा। आग लगने पर कुँआ खोदने में प्रयत्न करना मूर्खता है।’
🙏🏼🌹 *राधे राधे*🌹🙏🏼
🙏🏼🌸 *|| हरिः शरणम् ||*🌸🙏🏼
|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
🌸 विश्वरूप का गृह-त्याग 🌸
क्रमशः से आगे.............
धन्याः खलु महात्मानो मुनयः सत्यसम्मताः।
जितात्मानो महाभागा येषां न स्तः प्रियाप्रिये।।[1]
बन्धन का हेतु ममत्व है, ममत्व का सम्बन्ध मन से है। जिसने मन से ममत्व को निकाल दिया, वह तो नित्यमुक्त ही है। उसके लिये न कोई अपना है न पराया, वह तो अनेक रूपों में एक ही आत्मा को चारों ओर देखता है, फिर वह संकुचित सीमा में अपने को आबद्ध नहीं रख सकता। विश्वरूप ने निश्चय कर लिया कि मुझे इस गृह को त्याग देना चाहिये। जहाँ पर माता-पिता ही मुझे अपना समझते हैं, जहाँ नित्यप्रति भाँति-भाँति के संसारी प्रलोभनों के आने की सम्भावना है, ऐसी जगह अब अधिक दिन ठहरना ठीक नहीं है। ऐसा निश्चय कर लेने पर एक दिन इन्होंने अपनी माता को एक पुस्तक देते हुए कहा- ‘माँ, यह पुस्तक निमाई के लिये है, जब वह बड़ा हो तो इस पुस्तक को उसे दे देना, भूल मत जाना।’
माता ने सरलता के साथ उत्तर दिया- ‘तब तक तू कहीं चला थोड़े ही जायगा। मैं भूल जाऊँ तो तू तो न भूलेगा। तू ही इसे अपने हाथ से उसे देना और पढ़ाना। तू भी तो अब पण्डित बन गया है। निमाई तुझसे ही पढ़ा करेगा।’ विश्वरूप ने मानसिक भावों को छिपाते हुए कहा- ‘हाँ, ठीक है, मैं रहा तो दे ही दूँगा, किन्तु तू भी इस बात को याद रखना।’ भोली-भाली माता को क्या पता कि मेरा विश्वरूप अब दो ही चार दिन का मेहमान है। दो-चार दिन के बाद फिर इसकी मनमोहिनी सूरत हम लोगों को कभी भी देखने को न मिल सकेगी। माता अपने काम-धंधे में लग गयी। जाड़े का समय है, खूब कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा है। सभी प्राणी जाडे़ के मारे गुड़मुड़ी मारे रात्रि में सो रहे हैं। चारों ओर नीरवता का साम्राज्य है, कहीं भी कोलाहल सुनायी नहीं पड़ता, सर्वत्र स्तब्धता छायी हुई है। ऐसे समय विश्वरूप को निद्रा कहाँ?
वे तो भविष्य-जीवन को महान बनाने की ऊहापोह में लगे हुए हैं। घर में एक बार दृष्टि डाली। एक ओर माता सो रही है, उसके पास ही चुपचाप निमाई आँख बन्द किये हुए शयन कर रहे हैं। मिश्र जी दूसरी ओर रजाई ओढ़े खाट पर सो रहे हैं। विश्वरूप ने एक बार खूब ध्यान से पिता की ओर देखा। सिर के बाल पके हुए थे, मुँह पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थीं। हमेशा गृहस्थी की चिन्ता करते रहने से उनका स्वभाव ही चिन्तामय बन गया था, सोते समय भी मानो वे किसी गहरी चिन्ता में डूबे हुए हैं। निर्धन वृद्ध के चेहरे की ओर देखकर एक बार तो विश्वरूप अपने निश्चय से विचलित हुए।
उनके मन में भाव आया- ‘पिता वृद्ध हैं, आजीविका का कोई निश्चित प्रबन्ध नहीं, निमाई अभी निरा बालक ही है, घर का काम कैसे चलेगा?’ किन्तु थोड़े ही देर बाद वे सोचने लगे- ‘अरे, मैं यह क्या सोच रहा हूँ? जिसने इस चराचर विश्व की रचना की है, जो सभी के भरण-पोषण का पहले से ही प्रबन्ध कर देता है, उसको कर्ता न मानकर मैं अपने में कर्तापने का आरोप क्यों कर रहा हूँ? वृत्ति तो सबकी वही चलता है। मनुष्य तो निमित्तमात्र है। विश्वम्भर ही सबका पालन करते हैं, मुझे अपने सत्संकल्प से विचलित न होना चाहिये’ यह सोचकर उन्होंने सोती हुई माता को मन-ही-मन प्रणाम किया। छोटे भाई को एक बार प्रेमपूर्वक देखा और धीरे से घर से निकल पड़े। संकेत के अनुसार लोकनाथ उन्हें गंगा तट पर तैयार बैठे मिले। दोनों एक-दूसरे को देखकर अत्यन्त ही प्रसन्न हुए, अब उन्हें यह चिन्ता हुई कि रात्रि में गंगा-पार किस प्रकार जा सकते हैं। अब बहुत ही शीघ्र प्रातःकाल होने वाला है। इधर-उधर कहीं जायँगे तो पहचाने जाने पर पकड़े जायँगे। इसलिये गंगा-पार जाये बिना क्षेम नहीं है। उस समय नाव का मिलना कठिन था। दोनों ही युवक निर्भीक थे, जीवन का मोह तो उन्हें था ही नहीं।
मनुष्य इस जीवन-रक्षा के ही लिये साहस के काम करने से डरा करता है। जिसने जीवन की उपेक्षा कर दी है, जिसने अपने शीश को उतारकर हथेली पर रख लिया है, वह संसार में जो भी चाहे कर सकता है, उसके लिये कोई काम कठिन नहीं। ’असम्भव’ तो उसके शब्द-कोष में रहता ही नहीं। ये दोनों युवक भी भगवान का नाम लेकर पतितपावनी कलिमलहारिणी भगवती भागीरथी की गोद में बिना शंका के कूद पड़े। मानो आज वे जलती हुई भव-दावाग्नि से निकलकर जगज्जननी माँ जाह्नवी की सुशीतल क्रोड में शाश्वत शान्ति के निमित्त सदा के लिये प्रवेश करते हों। गंगा जी के किनारे रहने वाले छोटे-छोटे बच्चे भी खूब तैरना जानते हैं, फिर ये तो युवक थे और तैरने में प्रवीण थे, सामान इन लोगों के पास कुछ था ही नहीं, इसलिये ये निर्विघ्न गंगा पार हो गये। जाड़े का समय था, शरीर के सभी वस्त्र भीग गये थे, किन्तु इन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं था। शीतोष्णादि द्वन्द्व तो तभी तक बाधा पहुँचा सकते हैं जब तक कि शरीर में ममत्व होता है। शरीर से ममत्व कम हो जाने पर मनुष्य द्वन्द्वों की वेदना से ऊँचा उठ जाPPPता है, तभी वह निर्द्वन्द्व हो सकता है।
क्रमशः ..................
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