श्री चैतन्य चरित्रामृतम

Monday, 3 November 2025

ब्रज रस मदिरा दिवस मानसिक चिंतन 1

नामानुराग
राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा.....

स्नानोपरान्त उतरे हुए वस्त्रों को धोना है। श्रीप्रिया-प्रियतम के इन वस्त्रों को लेकर मैं श्रीयमुना तट पर जा रही हूँ। श्रीयमुना तट का घाट सुन्दर-सुन्दर पत्थरों का बना हुआ है, परन्तु घाट तक पहुँचने के पहले थोड़ा रेतीला तट प्रान्त पार करना है। आज मैं अकेली ही जा रही हूँ।

रेतीली तट स्थली में मैं थोड़ी दूर ही चल पायी होगी कि एक अद्भुत दृश्य देखने को मिला। रेत पर रेत की लहरियाँ बन जाया करती हैं तब, जब पवन का संचार कुछ तीव्र रहा करता है। उस रेतीली भूमि में एक रेतीली लहर की बनावट ऐसी थी कि मानो किसी ने 'रा' अक्षर लिख दिया हो। यह किसी सखी अथवा मंजरी ने तो नहीं बनाया है। फिर यह 'रा' अक्षरात्मक रचना किसने की? यह प्रश्न मेरे मन में चक्कर लगा रहा था। श्रीप्रिया-प्रियतम के वस्त्रों को अपने कन्धे पर लिये मैं कुछ क्षण के लिये खड़ी हो गयी। खड़ी-खड़ी खो गयी अपने प्रश्न के समाधान में खड़ी-खड़ी मैं निहार रही थी रेतीली भूमि पर बने 'रा' अक्षर को। खड़े हुए कुछ ही क्षण बीते होंगे, तभी मैंने देखा-हवा का एक झोंका आया, उसने 'रा' अक्षर मिटा दिया और तभी उस झोंके ने बना दिया दूसरा अक्षर 'धा' । मैं विस्मय में उसी 'धा' को देख रही थी, तभी एक प्रबल झोंके ने 'धा' के स्थान पर 'मा' अक्षर बना दिया। मैं देख रही हूँ कि उस प्रबल झोंके ने 'मा' के बाद 'ध' और फिर 'ध' के बाद 'व' को बना दिया।

मैं विस्मित तो थी ही, पर मेरे आनन्द की सीमा नहीं थी कि निकुञ्ज-राज्य में विचरण करने वाला पवन भी सतत छिपे-छिपे 'राधा-माधव' का जप करता रहता है। अति सुन्दर, अति सुन्दर कहती हुई मैं घाट की ओर बढ़ चली। घाट पर पहुँच कर और सीढ़ियों से उतरकर मैं जल-प्रवाह के निकट पहुँच गयी। पथरीली और स्वच्छ सीढ़ियों पर वस्त्रों को रख कर मैं कुछ देर राधा रानी का दर्शन करती रही। मेरी दृष्टि चली गयी जल-प्रवाह की उन लहरियों की ओर जो तट की पथरीली सीढ़ियों से टकरा रही थी।

आज मेरे विस्मय की सीमा नहीं। वे लहरियाँ पथरीली सीढ़ियों से टकरा रही हैं, टकराने से कुछ बुलबुले उठ रहे हैं, वे उठते हुए बुलबुले घूम-घूम करके, झूल-झूल करके चञ्चल आकृति धारण कर लेते हैं। कभी 'श्' की, कभी 'या' की, कभी 'मा' की, कभी 'श्या' की और कभी 'म' की आकृति को वे धारण कर रहे हैं और धारण करते ही उनका विलुप्त हो जाना तो स्वाभाविक है ही, परन्तु इस विलुप्त हो जाने के पीछे भी एक सुगुप्त लालसा प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रही थी कि मन्थर जलधारा सतत 'श्यामा-श्याम' का जप कर रही है। मैं आनन्द में लहरा रही थी। आज तो वह देखने को मिला, जो कभी सोचा भी नहीं जा सकता। अपने आनन्द में निमग्न मैंने उन वस्त्रों का प्रक्षालन किया। प्रक्षालित वस्त्रों को लेकर मैं वापस लौट रही थी। पुनः एक अभिनव दृश्य देखने को मिला। बड़े भाग्य से यह अवसर आता है। निकुञ्ज-महल में प्रवेश करने के पूर्व बड़ी दूर तक फुलवारी में से होकर चलना पड़ता है। फुलवारी में बेला, जूही, चमेली, गुलाब, सूर्यमुखी आदि के पौधे तो हैं ही, आम, तमाल, चन्दन, कदम्ब, पीपल आदि वृक्षों की भी अनेक पंक्तियाँ हैं और उन वृक्षों पर मालती, माधवी आदि की लम्बी-लम्बी लताएँ लटकती रहती हैं। इन लटकती लहराती लताओं में वही विस्मयोत्पादक दृश्य देखने को मिला। पवन के मन्द प्रवाह में लहराती झूमती लताएँ एक-दूसरे से मिलकर कभी 'पि' कभी 'या' कभी 'पि' कभी 'य' की आकृति धारण कर लेती हैं। ये लताएँ भी जप रही हैं 'पिया पिय'।

अद्भुत, अति अद्भुत, परमाद्भुत! सचमुच परमाद्भुत, पर अब परमाद्भुत भी भला क्या कहा जाय? निकुञ्ज-राज्य की समग्र प्रकृति ही इन युगल रसिकों के प्रति प्रणत है, सतत सेवापरायणा है। मेरे विस्मय की सीमा नहीं, मेरे आनन्द की सीमा नहीं और अद्भुतानन्द की सीमा बार-बार जय मना रही थी इनके नामानुराग की। मैं हृदय से बलिहार जा रही थी।