श्री चैतन्य चरित्रामृतम

Friday, 20 August 2021

मीरा चरित भाग 75 से 80

|| मीरा चरित ||
(75)

क्रमशः से आगे ...................

*संत तुलसीदास जी से अनुमति एवं आशीर्वाद पा मीरा ने उसी निर्देशित राह पर पग बढ़ाने का निश्चय किया । चित्तौड़ के लोगों , महलों , चौबारों से और विशेषतः भोजराज द्वारा बनाए गये मन्दिर आदि सभी से मीरा अपना मन उधेड़ने लगी। मेड़ते में मीरा का पत्र पहुँचा तो वीरमदेव जी ने तुरन्त जयमल के पुत्र मुकुन्द दास और श्याम कुँवर ( मीरा के देवर रत्न सिंह की पुत्री ) को चित्तौड़ मीरा को लिवाने के लिए भिजवाया। वीरमदेव जी का आशय था कि बीनणी मायके में सबको मिल भी लेगी और जमाई मुकुन्द दास के साथ राणा मीरा को बिना किसी तर्क के शांति से मेड़ते जाने भी देगा।*

*जब मुकुन्द दास और श्याम कुँवर मीरा के महलों में पहुँचे तो मीरा ने ममत्व की खुली बाँहों से दोनों को स्वागत किया। एक में भाई जयमल की छवि थी तो दूसरे में देवर रत्न सिंह की। श्याम कुंवर ने मां और पिता के जाने के पश्चात मीरा को ही माँ जाना था। मीरा ने दोनों को अच्छे से दुलारा ,खिलाया पिलाया और कहा ," थोड़ा विश्राम कर लो तो काकीसा और दादीसा को भी मिल आना। उनके लिए भी तो देखने को बस तुम्हीं हो। मैं तो तुम्हारे साथ ही अब मेड़ता चलूँगी। "*

*श्याम कुँवर माँ की गोद में सिर रखकर रोते हुई बोली ," मेरे तो प्रियजन और सगे सम्बन्धी आपके चरण ही है म्होटा माँ !आपका हुकम है तो सबसे मिल आऊँगी। अपने मातापिता तो मुझे स्मरण ही नहीं है। मैंने तो आपको और दादीसा को ही मातापिता जाना है। वँहा सुना करती थी कि काकोसा हुकम आपको बहुत दुख देते है - तो मैं बहुत रोती थी। पता नहीं किस पुण्य प्रताप से आप चित्तौड़ को प्राप्त हुई पर मेरे पितृ वंश का दुर्भाग्य को देखिए, जो घर आई गंगा का लाभ भी नहीं ले पा रहे है ।वहाँ भी मैं मन ही मन पुकारा करती थी कि मेरी म्होटा माँ को दुख मत दो .....प्रभु !"*

*बेटी के आँसू पौंछते हुये मीरा ने कहा," मुझे कोई दुख नहीं मेरी लाडली पूत ! तू ऐसे ही अपने मन को छोटा कर रही है। उठ ! गिरधर का प्रसाद ले !"*

*श्यामकुँवर ने प्रसाद लिया और फिर सिसकने लगी ," इस प्रसाद की याद करके न जाने कितनी बार छिप छिप कर आँसू बहाये है। कितने बरस के बाद यह स्वाद मिला है ?"*

*" बेटा ! तुम मुझे बहुत प्रिय हो। तुम्हारी आँखों में आँसू मुझसे देखे नहीं जाते। अब उठो ! स्नान कर गिरधर के दर्शन करो !" मीरा के बार बार कहने पर श्याम कुँवर ने स्नान कर गिरधर के दर्शन किए तो फिर उसकी आँखों से आँसू बह चले ," म्हाँरा वीरा ! अगर तुम ही मुझे बिसार दोगे तो मैं किसकी आस करूँगी ?" अपने त्रिलोकीनाथ भाई के चरणों को उसने आँसुओं से धोकर मन के उलाहने आँखों के रास्ते बहा दिये ।*

*राणा का मीरा के प्रति व्यवहार बेटी और जमाई के आने से एकदम बदल गया ।कभी वह स्वयं गिरधर के दर्शन के लिए आ जाता याँ कभी भगवान के लिए कुछ न कुछ उपहार भिजवा देता। मीरा ने सोचा शायद लालजीसा में परिवर्तन आ गया है पर दासियों को कभी भी राणाजी पर विश्वास नहीं आता था ।उन्हें महलों से आई प्रत्येक वस्तु पर शंका होती थी और वह सावधानी से सबकी परख स्वयं करती।*

शेष अगले क्रम में .................._

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|| मीरा चरित ||
(76)
क्रमशः से आगे.............

*श्याम कुंवर ने काकोसा का यह बदला व्यवहार देखा तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ। मीरा के महल में होली के उत्सव की तैयारियाँ चल रही है।*
*मीरा ने श्याम कुंवर की मनोधारा बदलते हुए उसे भी उत्सव का उत्साह दिलाया।श्याम कुंवर को श्री कृष्ण की वेशभूषा पहनाई गई , मीरा स्वयं बनी राधा और दासियाँ सखियों के रूप में थीं ही । होली की पदपदावली का गायन आरम्भ हुआ। थोड़ी ही देर में सब ज़गह रंग की ही फुहार पड़ रही थी..........*

🌿साँवरो होली खेल न जाँणे ।
खेल न जाणे खेलाये न जाँणे ॥

🌿बन से आवै धूम मचावे 
भली बुरी नहीं जाँणे ।
गोरस के मिस सब रस चाखे
भोर ही आँण जगावै॥
ऐसी रीत पर घर म्हाँणे,
साँवरो होली खेल न जाँणे॥

🌿छैलछबीलो महाराज साँवरिया
दुहाई नंद की न माँणे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर
तट यमुना के टाँणे ॥
मेरो मन न रह गयो ठिकाँणे,
साँवरो होली खेल न जाँणे॥

*होली खेलते खेलते मीरा के अंग शिथिल हो गये और नयन स्थिर हो गये। वह भाव राज्य में प्रवेश कर देखती है........." वह बरसाना जा रही है।आज होरी है। शीघ्रता से वह पद बढ़ाये जा रही है। श्याम जू के संग होरी खेलने के लिए सखियों ने बुलाया है । श्यामसुंदर भी सखाओं के साथ पहुँचते ही होंगे बरसाने ......... कहीं राह में ही न भेंट हो जाए ............ मैं अकेली हूँ और वे बहुत से। कैसे पार पड़ेगी ?*

*तभी दाऊ दादा की डफ के साथ कई कण्ठों से समवेत स्वर सुनाई दियो - " होरी खेलन को आयो री नागर नन्द कुमार ।" मैं चौंक कर एक झाड़ी की ओट में हो गई और देखा सब तो वहाँ थे पर एक श्याम न हते। विशाल दादा के के सिर पर रंग को घड़ा और सबके कंधों पर अबीर गुलाल की झोरी। सब बहुत उत्साह में नाचते गाते फिरकी लेते बढ़ रहे थे ।सबके पीठ पै ढाल बंधे थी। वे आगे चले गये तो मैंने संतोष की सांस ली और जैसे ही चलने को उद्यत हुई , किसी ने पीछे से आकर मुख पर गुलाल मल दी। मैं चौंक कर खीजते हुई बोली - " अरे , कौन है लंगर ( ढीठ ) ?"*

_क्रमशः .................._

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|| मीरा चरित ||
(77)
क्रमशः से आगे ............

*मीरा के महल में रंगीली होली का उत्सव है। श्यामकुँवर ने श्यामसुन्दर की वेशभूषा पहनी है ,मीरा ने राधारानी की ।भावावेश में मीरा बरसाने की होली के लिए जा रही है कि राह में पीछे से आकर किसी ने मुख पर गुलाल मल दी - " अरे कौन है रे लंगर ?"*

*मैं सचमुच खीज गईं थी - उधर पहुँचने की जल्दी थी ,वहाँ किशोरीजू और कान्हा जू के साथ होली जो खेलनी थी।" और यह कौन आ गया - बीच में मूसरचंद।" एकदम पल्टी मैं। देखा तो, श्यामजू दोनों हाथों में गुलाल लिए हँसते खड़े थे - " सो लंगर तो मैं हूँ सखी ! मन न भरा हो तो एक - दो गाली और दे दे। "*

*उनको देख कर एकबार तो लाज के मारे पलकें झुक गई। फिर होरी में लाज को क्या काज है , सोचकर मैनें नज़र उठाई - मैं .......भी तोको गुलाल लगाये दूँ ? "*

*मेरी बात पर वे ठठाकर हँस पड़े। " अरे होली में कोई पूछकर रंग लगाता है भला ? यह होरी तो बरजोरी का त्यौहार है। जो मैं कह दूँ नहीं लगाना ? मान जायेगी क्या ?" वह और ज़ोर से हँसने लगे।*

*" तो.......तो ......" मैंने एक ही क्षण सोचा पर खीज में झपटकर उन्हीं की झोली से दो मुट्ठियों में अबीर और गुलाल भरा , और इससे पहले कि वे पीछे हटें , उनके मुख पर अच्छे से गुलाल मल दिया ।बस हाथ मैं अभी नीचे भी नहीं कर पाई थी कि श्यामसुन्दर ने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिये और बोले ," ठहर , अब मेरी बारी है। "*

*थोड़ा खींचातनी हुई तो हाथ तो छुड़ा लिए और मैं भागी पर इसी बीच मेरी ओढ़नी का छोर उनके हाथ में आ गया। मैं लज्जा से दौड़ कर आम के वृक्ष के पीछे छिपकर खड़ी हो गई।*

*" ऐ मीरा ! यह ले चुनरी अपनी ।मैं इसका क्या करूँगा ?" उन्होंने कहा।*
*" वहीं धर दो। मैं ले लूँगी ।" मैंने लाज से धीमे से कहा ।*
*" लेनी है तो आकर ले जा। नहीं तो मैं बरसाने जा रहा हूँ। "*
*" नहीं ! तुम्हीं यहाँ आकर दे जाओ। " मैंने विनय की।* 
*" अच्छा !यह ले पकड़ ।" उन्होंने कहा।*

*मैं श्याम जू से बचने के लिए वृक्ष के तने की परिक्रमा - सी करने लगी। वे इधर तो मैं उधर। आखिर झल्ला कर खड़े हो गये - " समझ गया। तुझे चुनरी नहीं चाहिए। मुझे देर हो रही है , अभी कोई न कोई सखा मुझे ढूँढता आता होगा। "*

*उन्होंने जैसे ही जाने के लिए पीठ फेरी , मैंने दबे पाँव उनका उत्तरीय ( पटका ) खींच लिया और भागी .......मैं पूरे प्राणों का ज़ोर लगा कर बरसाना की ओर भागी।*

*" ए बंदरिया ! ठहर जा ।अभी पकड़ता हूँ। " ऐसा कहते वह मेरे पीछे दौड़े।*

*जब बरसाना पास आया तो मैं लाज के मारे सोचने लगी - " ऐसे कैसे बिना चुनरी के जाऊं ?" पहले सोचा कि श्यामसुन्दर का दुपट्टा ओढ़ लूँ , पर नहीं। यह कैसे हो सकता है ? यह तो मैंने किशोरीजू के लिए लिया है। मैं ओढ़ लूँगी तो उन्हें क्या दूँगी ? मैंने पथ बदला और सखी करूणा के घर की तरफ चली। उसी के यहाँ से कोई चुनरी ले लूँगी। पीछे देखा तो कोई न था। श्यामसुन्दर सम्भवतः अपने सखाओं के साथ दूसरी ओर चले गये थे। फिर भी मैंने अपनी गति मन्द न होने दी ।उस छलिया का क्या भरोसा ? कौन जाने किस ओर से आ जाये ?*

_क्रमशः .................._

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|| मीरा चरित ||
(78)
क्रमशः से आगे ...................

*होली के रागरंग में मीरा भावावेश में बरसाना जा रही है। श्यामसुन्दर राह में मिल गये और मीरा को रंग दिया। होरी की छीनाझपटी में मीरा की चुनरी श्रीकृष्ण के पास और उनका दुपट्टा मीरा के पास है। मीरा कान्हा जी को दुपट्टा किशोरीजू को नज़र करना चाहती है ।राह में सखी करूणा के घर से चुनरी ले जब वह बरसाना पहुँचती है तो उसे महलों में रानियाँ और दासियों के अतिरिक्त कोई नहीं दीखता।*

*मन में उत्सुकता थी कि किशोरीजू कहाँ है ? मैं उनके कक्ष में गई तो वहाँ दया बैठी मेरी प्रतीक्षा कर रही थी - " आ गई तू ? कहाँ रह गई थी ? चल अब जल्दी !"*

*मैं उसके साथ गिरिराज परिसर में पहुँची। होली की धूम मच रही थी वहाँ। एक ओर बड़े बड़े कलशों में लाल पीला हरा रंग घोला हुआ था। सखियों के कन्धों पर टंगी झोलियों में और हाथों पर अबीर गुलाल था। दोनों ओर कठिन होड़ थी। कभी नन्दगाँव से आये हुये श्यामसुन्दर के सखा और वे पीछे हटते और कभी किशोरीजू सहित हमें पीछे हटना पड़ता ।*

*पिचकारियों की बौछार से और गुलाल की फुहार से सबके मुख - वस्त्र रंगे थे। किसी को भी पहचानना कठिन हो रहा था ।*

*मैंने उस रंग की घनघोर बौछार में विशाखा जीजी को पहचान लिया। वे किशोरी जी की बाँई ओर थी। समीप जाकर मैंने धीमे से उनके कान में दुपट्टे की बात कही , किन्तु उसी समय श्याम जू और उनके सखाओं ने इतनी ज़ोर से हा-हा हू-हू की कि जीजी बात सुन ही न पाई। मैंने दुपट्टा निकाल कर उन्हें दिखाना चाहा , तभी पिचकारी की तीव्र धार मेरे मुँह पर पड़ी। मैंने उधर देखा तो श्यामसुन्दर ने मुँह बिचकाकर अँगूठा दिखा दिया। दूसरे ही क्षण उन्होंने डोलची से मेरी पीठ पर इतनी ज़ोर से रंग वाले पानी की बौछार की कि मैं पीड़ा से दोहरी हो गई । विशाखा जीजी हाथ पकड़ कर मुझे दूर ले गई - " अब कह क्या हुआ ?"*

*" यह देखो , कान्हा जू का उत्तरीय " मैंने दुपट्टा उनके हाथ में देते हुये कहा।* 
*" यह कहाँ ,कैसे मिला ?" जीजी ने पूछा।*

*मैंने सब बात कह सुनाई तो वह प्रसन्न हो हँस पड़ी - " सुन अब श्यामसुन्दर को पकड़ पाये तो बात बने। बारबार हमारी मोर्चाबंदी को उनके सखा तोड़ देते है ।"*

*जीजी ! आज श्याम जू मुझसे चिढ़े हुये है ,अतः मुझे ही अधिक परेशान करेंगे ।मैं आगे रहूँ तो अवश्य मुझे व रंगने याँ गिराने का प्रयास करेंगे। मैं कुछ आगे बढ़ूँगी तो वह भी आगे बढ़ेगें। जैसे ही वे मुझे गुलाल लगाने लगे , बस तभी दोनों ओर से सखियाँ उन्हें घेरकर पकड़ ले ।"*

*" बात तो उचित लगती है तेरी ।पर यह उत्तरीय पहले कहीं छिपा कर रख दूँ " जीजी ने प्रसन्न होते हुये कहा। मेरी राय सबको पसन्द आई। श्री किशोरीजू को संग लेकर मैं आगे आ गई और हँस हँस कर उनके ऊपर रंग डालने लगी। मेरी हँसी उन्हें चिढ़ा रही थी। मेरी चुनरी से उन्होंने अपनी कटि में फेंट बाँध रखी थी ।*

*मैं थोड़ा श्यामसुन्दर को ललकारती आगे बढ़ती हुई बोली ," हिम्मत है तो अब रंग लगा के दिखाओ ! मैं भी देखूँ , कितना दम है तुम में।!"*
*"ठहर जा तू ! " दोनों हाथ की मुट्ठियों में गुलाल भर कर जैसे ही मेरी ओर बढ़े , पीछे से सखा भी आ गये।*

*" अहा , हाँ बलिहार जाऊँ ऐसी हिम्मत पर। " मैनें चिढ़ा कर हँसते हुये कहा - " सखाओं की फौज़ लेकर पधार रहें हैं महाराज ! मुझसे निपटने ! अरे , तुमसे तो मैं ही अच्छी हो जो कि अकेली ललकार रही हूँ। आओ ज़रा देखें भला कौन जीते और कौन हारे ?"*

*श्रीकृष्ण वाकई चिढ़ गये थे। सखाओं को बरज करके वे अकेले ही दौड़े आगे आये। मैं एक दो पद पीछे हट गई, और जोश में आ तीव्र गति से श्याम जू ने मुझे अच्छे से पकड़ कर रंग दिया। मेरे हाथों में थमी अबीर बिखर गई । अपना मुख बचाने के लिए मैंने उनके कंधे पर धर दिया।*

_क्रमशः .................._
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|| मीरा चरित ||
(79)
क्रमशः से आगे.............

*मीरा के महल में होली का उत्सव है। वह भावावेश में गिरिराज परिसर में किशोरीजू की सखियों के संग मिल श्यामसुन्दर के साथ होली खेल रही है।विशाखा से परिमर्श कर वह ठाकुर की घेराबन्दी के लिए उनकी हिम्मत को ललकारती आगे बढ़ी तो ललित नागर ने उसे ही पकड़ कर अच्छे से रंग दिया ।*

*मेरे हाथों में थमी अबीर बिखर गई और अपना मुख बचाने के लिए मैंने उनके कंधे पर धर दिया।*

*" ए, मेरा उत्तरीय कहाँ छिपाया है तूने ?" उन्होंने एक हाथ से मुझे पकड़े हुये और दूसरे हाथ से मुझे गुलाल मलते हुये कहा ।*
*मुझे कहाँ इतना होश था कि किसी बात का जवाब दे पाऊँ ।ये धन्य क्षण ,यह दुर्लभ अवसर , कहीं छोटा न पड़ जाये , खो न जाये ......मेरे हाथ पाँव ढीले पड़ रहे थे , मन तो जैसे डूब रहा था उस स्पर्श , सुवास, रूप और वचन माधुरी में।*

*" ए , नींद ले रही है क्या मज़े से ? " उन्होंने मुझे झकझोर दिया - " मैं क्या कह रहा हूँ , सुनती नहीं ?" फिर धीरे से कहा ," कहाँ है दे दे न, यह ले तेरी चुनरी ......ले ......।* "

*मेरा सुझाव काम कर गया। मुझसे उलझे रहने से श्याम जू को पता ही नहीं चला कि कब चारों ओर से सखियों ने उन्हें घेर लिया।*
*यह तो हम से धोखा किया। " उन्होंने और सखाओं ने चिल्ला कर कहा , पर सुने कौन ? सखियाँ उन्हें पकड़ कर गिरिराज निकुन्ज में ले चली। जाते जाते मेरी ओर देखकर ऐसे संकेत किया - " ठहर जा , कभी बताऊँगा तुझे। "*

*सखियों ने मिलकर श्याम जू को लहंगा फरिया पहना उन्हें छोरी बनाया और फिर श्रीदाम भैया से उनकी गाँठ जोड़ी। दोनों का ब्याह रचाया। खूब धूम मची ।सखियों ने तो अपनी विजय की प्रसन्नता में कितना हो -हल्ला किया। गाजे - बाजे के साथ बनोली निकली। सखियाँ गीत गा रही थी ।उनके सखा बाराती बन श्रीदाम के साथ चले। श्याम जू बेचारे - विवश से चलते लहंगा - फरिया में रह रहकर उलझ जाते। ललिता जीजी दुल्हन की बाँह पकड़े संभाले थी। ब्याह के बाद दुल्हा - दुल्हन को श्री किशोरीजू के चरणों में प्रणाम कराया तो प्रियाजी ने भी उदार मन से दोनों को शगुण और आशीर्वाद दिया ।हम सब हँस हँस कर दोहरी हो रही थी ।*

*सन्धया में सबने मल मल कर स्नान किया और रंग उतारा। किशोरीजू ने उन्हें निकुन्ज में पधराया और सखियों ने भोजन कराया। उनके सखा जीम - जूठकर प्रसन्न हो विदा हुए। भोजन के समय भी विविध विनोद होते रहे।*
*श्री किशोरीजू ने प्रसन्न हो मेरा हाथ थामकर समीप खींचा - " आज की बाजी तेरे हाथ रही बहिन ! " कहकर उन्होंने स्नेह से चम्मच में बची खीर मेरे मुख में दे दी। " अहा सखी ! उसका स्वाद कैसे बताऊँ तुम्हें ? उस स्वाद - सुधा के आनन्द को संभाल पाना मेरे बस में न रहा और मैं अचेत हो गई ।"*

_क्रमशः .............,.,..,.,._

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|| मीरा चरित ||
(80)

क्रमशः से आगे ...........

*मीरा अभी भी भावावेश में ही है । किशोरीजू ने होली के उत्सव में श्यामसुन्दर पर विजय पाई। मीरा की सेवा और समर्पण से प्रसन्न हो जब प्रियाजी ने मीरा को अपना प्रसाद दिया तो वह आनन्द के वेग को न संभाल पाने से अचेत हो गई।*

*कितनी देर अचेत रही , ज्ञात नहीं ।जब संभली तो देखा कि विशाखा जीजी श्रीकृष्ण का उत्तरीय ,मेरी रंग भरी चुनरी और किशोरीजू के प्रसादी वस्त्र, सब मुझे देती हुई बोली - " तनिक चेत कर बहन ! सांझ हो रही है। "*
*" नन्दीग्राम जाओगी बहिन ?" श्री किशोरीजू ने पूछा।*

*क्या उत्तर दूँ ? मन भर आया था ।मैं रोते हुये प्रियाजी के चरणों से लिपट गई - " इन चरणों से दूर जाने की किसे इच्छा होगी स्वामिनी जू ?"*
*प्रियाजी ने मुझे अपनी बाँहों में भरते हुये कहा , " तुम मुझसे दूर नहीं हो बहिन। पर तुम्हारे वहाँ होने से हमें बड़ी सुविधा है , वहाँ के समाचार मिलते रहते है। "*

*" श्रीजू ! क्या कहूँ ? मैं किसी योग्य नहीं। बस आपकी चरणरज की सेवा में बनाए रखने की कृपा हो ! जैसी - तैसी बस मैं आपकी हूँ........ - " मैं फिर उनके चरणों में लुढ़क गई।*

*" मैं घर जाय रहयो हूँ , तू भी साथ चलेगी क्या ? रास्ते में तू अपने घर चली जाना ,तेरी माँ चिन्ता करती होयेगी " - श्यामसुन्दर ने हाथ पकड़ कर उठाते हुये कहा तो मुझे चेत हुआ । किशोरीजू की आज्ञा से सखियों ने मुझे उनके प्रसादी वस्त्र और आभूषणों से अलंकृत किया। ह्रदय से लगाकर राधारानी ने मुझे श्याम जू के साथ विदा किया ।*

*" तेरा श्रृगांर किसने किया री ? " श्यामसुन्दर ने राह में मुझसे चलते चलते पूछा।*
*" मालूम नहीं ! मेरी आँखों में तो प्रियाजी के चरण समाये है। "*
*" मैं नहीं दिखता री तुझे ?"*
*" समझ में नहीं पड़ता श्याम जू ! कभी तुम , कभी किशोरीजू ।वही तुम ,तुम वही ,कभी आप दोनों एक हो , कभी अलग ।"*

*" तू तो बड़ी सिद्ध हो गई है री-जो इती बड़ी बड़ी बातें बोल रही। पर तेरो तिलक कछु ठीक नाहिं लागे मोहे ....... ठीक कर दूँ क्या ?"*

*बस मीरा उसी समय मूर्ति की तरह जड़ हो गई ।वह चित्तौड़ में अपने महल में, शरीर में वापिस तो लौट आई थी पर मन कहीं छूट गया था। कभी पागल सी हँसती , कभी रोती......। मीरा की यह दशा देख श्यामकुंवर बाईसा उदयकुंवर बाईसा से लिपट कर रोने लगीं - " मेरी बड़ी माँ को यह क्या हो गया?"*

*कुछ नहीं बेटा ! इनको जब जब भगवान् के दर्शन होते है, ये ऐसी ही हो जाती है।तुम धीरज रखो ! अभी भाभी म्हाँरा ठीक हो जायेंगी "उदयकुँवर ने बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।*

*श्यामकुँवर ने मीरा को ऐसी दशा में कभी देखा नहीं था - पुलकित देह ,सतत आसूओं की धारा से अधखुले नेत्र , मुख पर अनिर्वचनीय आनन्द ।वह दौड़ कर गिरधर गोपाल से बिलखते हुये प्रार्थना करने लगी - " ऐ रे म्हाँरा वीरा ! म्होटा माँ ही मेरी सब कुछ है। इन्हें मुझसे मत .....छीनो .....मत छीनो। "*

*चम्पा, चमेली आदि दासियाँ ने श्यामकुँवर को स्नेह से समझाया और सब मीरा के समीप बैठ संकीर्तन करने लगी* 

" मोहन मुकुन्द मुरारे कृष्ण वासुदेव हरे "

*दो घड़ी के पश्चात मीरा के पलक-पटल धीरेधीरे उघड़े किन्तु आनन्द के वेग से पुनः मुंद जाते ।कीर्तन के स्वरों के साथ साथ मीरा सामान्य हुई तो श्यामकुँवर ने भी प्रसन्न हो माँ की गोद में सिर रख दिया। मीरा ने भी बेटी को दुलारा ।*

*दासियाँ उठकर रंग के कुण्डे पिचकारियाँ साफ करने में लग गई ।मीरा ने अपनी ओढ़नी से कुछ निकाल कर स्नेह से श्यामकुँवर के हाथ में थमा दिया। उसने मुट्ठियाँ खोलकर देखा तो वन केतकी के दो पुष्प और एक पेड़ा ।उसने साभिप्राय माँ की तरफ़ देखा। " प्रभु ने दिये है ।प्रसाद खा लो और फूलों को संभाल कर रखना " मीरा ने उत्तर दिया।*

*सबके जाने के बाद मीरा ने जब अपनी साड़ी पर रंग देखा तो उसे वापस उसी दिव्य लीला का स्मरण हो आया - कितना हास - परिहास , कितना हँसी विनोद और सब सखियों की भीड़ ......। पर वह अपने वर्तमान में अपने को यूँ अकेला पा उदास हो गई और उसके मन की पीड़ा स्वर बन झंकृत हो उठे..........*

🌿किनु संग खेलूँ होली........
पिया तज गये हैं अकेली......🌿

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