"धोबी बोला हरिबोल"
प्रभु श्रीचैतन्यदेव नीलाचल चले जा रहे हैं, प्रेम में प्रमत्त हैं, शरीर को सुध नहीं है, प्रेममद में मतवाले हुए नाचते चले जा रहे हैं, भक्त-मण्डली साथ है। रास्ते में एक तरफ एक धोबी कपड़े धो रहा है। प्रभु को अकस्मात् चेत हो गया, वे धोबी की ओर चले ? भक्तगण भी पीछे-पीछे जाने लगे। धोबी ने एक बार आँख घुमाकर उनकी ओर देखा फिर चुपचाप अपने कपड़े धोने लगा। प्रभु एकदम उसके निकट चले गये। श्रीचैतन्य के मन का भाव भक्तगण नहीं समझ सके। धोबी भी सोचने लगा कि क्या बात है ? इतने में ही श्रीचैतन्यने धोबी से कहा-'भाई धोबी एक बार हरि बोलो।' धोबी ने सोचा, साधू भीख माँगने आये हैं। उसने ‘हरि बोलो' प्रभु की इस आज्ञा पर कुछ भी ख्याल न करके सरलता से कहा-'महाराज ! मैं बहुत ही गरीब आदमी हूँ। मैं कुछ भी भीख नहीं दे सकता।'
प्रभुने कहा-'धोबी ! तुमको कुछ भी भीख नहीं देनी पड़ेगी। सिर्फ एक बार ‘हरि बोलो' धोबी ने मन में सोचा, साधुओं का जरूर ही इसमें कोई मतलब है, नहीं तो मुझे 'हरि' बोलने को क्यों कहते ? इसलिये हरि न बोलना ही ठीक है। उसने नीचा मुँह किये कपड़े धोते-धोते ही कहा–'महाराज ! मेरे बाल-बच्चे हैं, मजूरी करके उनका पेट भरता हूँ। मैं हरिबोला बन जाऊँगा तो मेरे बाल-बच्चे अन्न बिना मर जायँगे।'
प्रभुने कहा-'भाई ! तुझे हमलोगों को कुछ देना नहीं पड़ेगा, सिर्फ एक बार मुँह से हरि बोलो। हरिनाम लेने में न तो कोई खर्च लगता है और न किसी काम में बाधा आती है। फिर हरि क्यों नहीं बोलते, एक बार हरि बोलो भाई।'
धोबीने सोचा अच्छी आफत आयी, यह साधु क्या चाहते हैं ? न मालूम क्या हो जाय ? मेरे लिये हरिनाम न लेना ही अच्छा है। यह निश्चय करके उसने कहा-'महाराज ! तुम लोगों को कुछ काम-काज तो है नहीं, इससे सभी कुछ कर सकते हो। हम गरीब आदमी मेहनत करके पेट भरते हैं। बताइये, मैं कपड़े धोऊँ या हरिनाम लँ।'
प्रभुने कहा-'धोबी ! यदि तुम दोनों काम एक साथ न कर सको तो तुम्हारे कपड़े मुझे दो। मैं कपड़े धोता हूँ। तुम हरि बोलो।'
इस बात को सुनकर भक्तों को और धोबी को बड़ा आश्चर्य हुआ। अब धोबी ने देखा इस साधु से तो पिण्ड छूटना बड़ा ही कठिन है। क्या किया जाय, जो भाग्य में होगा वही होगा-यह सोचकर प्रभु की ओर देखकर धोबी कहने लगा- ‘साधु महाराज ! तुम्हें कपड़े तो नहीं धोने पड़ेंगे। जल्दी बतलाओ, मुझे क्या बोलना पड़ेगा, मैं वही बोलता हूँ।' अब तक धोबी ने मुख ऊपर की ओर नहीं किया था। अब की बार उसने कपड़े धोने छोड़कर प्रभु की ओर देखते हुए उपर्युक्त शब्द कहे। धोबी ने देखा साधु करुणाभरी दृष्टि से उसकी ओर देख रहे हैं और उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही है। यह देखकर धोबी मुग्ध-सा होकर बोला, 'कहो महाराज ! मैं क्या बोलूँ।' प्रभु ने कहा-'भाई ! बोलो ‘हरि बोल।'
धोबी बोला। प्रभु ने कहा-धोबी! फिर ‘हरि बोल' बोलो, धोबी ने फिर कहा-हरि बोल। इस प्रकार धोबी ने प्रभु के अनुरोध से दो बार ‘हरि बोल', 'हरि बोल' कहा। तदनन्तर वह अपने आपे में नहीं रहा और विह्वल हो उठा। बिलकुल इच्छा न होने पर भी वह ग्रहग्रस्त की तरह अपने आप ही 'हरि बोल’, ‘हरि बोल' पुकारने लगा। ज्यों-ज्यों हरि बोल पुकारता है, त्यों-त्यों विह्वलता बढ़ रही है। पुकारते-पुकारते अन्त में वह बिलकुल बेहोश हो गया। आँखों से हजारों-लाखों धाराएँ बहने लगीं। वह दोनों भुजाएँ ऊपर को उठाकर 'हरि बोल', 'हरि बोल' पुकारता हुआ नाचने लगा। भक्तगण आश्चर्यचकित होकर देखने लगे। अब प्रभु नहीं ठहरे। उनका कार्य हो गया। इसलिये वे वहाँ से जल्दी से चले। भक्तगण भी साथ हो लिये। थोड़ी-सी दूर जाकर प्रभु बैठ गये। भक्तगण दूर से धोबी का तमाशा देखने लगे। धोबी भाव बता-बताकर नाच रहा है। प्रभु के चले जाने का उसे पता नहीं है। उसकी बाह्य दृष्टि लुप्त हो चुकी है। भाग्यवान् धोबी अपने हृदय में गौर-रूप का दर्शन कर रहा है।
भक्तों ने समझा धोबी मानो एक यन्त्र है। प्रभु उसकी कल दबाकर आये हैं और वह उसी कल से 'हरि बोल' पुकारता हुआ नाच रहा है। भक्त चुपचाप देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद धोबिन घर से रोटी लायी। कुछ देर तक तो उसने दूर से खड़े-खड़े पति का रंग देखा, पर फिर कुछ भी न समझकर हँसी में उड़ाने के भाव से उसने कहा-'यह क्या हो रहा है ? यह नाचना कब से सीख लिया ?' धोबी ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह उसी तरह दोनों हाथों को उठाये हुए घूम-घूमकर भाव दिखाता हुआ ‘हरि बोल' पुकारने और नाचने लगा। धोबिन ने समझा पति को होश नहीं है। उसको कुछ-न-कुछ हो गया है। वह डर गयी और चिल्लाती हुई गाँव की तरफ दौड़ी तथा लोगों को बुलाने और पुकारने लगी। धोबिन का रोना और पुकारना सुनकर गाँव के लोग इकट्टे हो गये। धोबिन ने डरते-डरते उनसे कहा कि 'मेरे मालिक को भूत लग गया है। दिन में भूत का डर नहीं लगा करता, इसलिये लोग धोबिन को साथ लेकर धोबी के पास आये। उन्होंने देखा धोबी बेहोशी में घूम-घूमकर इधर-उधर नाच रहा है। उसके मुख से लार टपक रही है। उसको इस अवस्था में देखकर पहले तो किसी का भी उसके पास जाने का साहस नहीं हुआ। शेष में एक भाग्यवान् पुरुष ने जाकर उसको पकड़ा। धोबी को कुछ होश हुआ और उसने बड़े आनन्द से उस पुरुष को छाती से लगा लिया। बस, छाती से लगने की देर थी कि वह भी उसी तरह ‘हरि बोल' कहकर नाचने लगा। अब वहाँ दोनों ने नाचना शुरू कर दिया। एक तीसरा गया, उसकी भी यही दशा हुई। इसी प्रकार चौथे और पाँचवें क्रम-क्रम से सभी पर यह भूत सवार हो गया। यहाँ तक कि धोबिन भी इसी प्रेममद में मतवाली हो गयी। प्रेम की मन्दाकिनी बह चली, हरिनाम की पवित्र ध्वनि से आकाश गूंज उठा, समूचा गाँव पवित्र हो गया ।।
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- श्रीजी मंजरीदास (बरसाना)
'सरस प्रसंग
"जय जय श्री राधे"