श्री चैतन्य चरित्रामृतम

Monday 27 July 2020

श्री राधा चरितावली खण्ड 1 भूमिका

आज  के  विचार भाव संख्या 1 

( "श्रीराधाचरितामृतम्" की भूमिका )


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कल कल  करती हुयी   कालिन्दी बह रही थीं ........घना कुञ्ज था ...फूल खिले थे ,   उसमें से निकलती  मादक सुगन्ध  सम्पूर्ण वन प्रदेश को  अपनें आगोश में ले रही थी......चन्द्रमा की किरणें  छिटक रहीं थीं ....यमुना की बालुका   ऐसी लग रही - जैसे रजत को पीस कर  बिखेर दिया गया  हो......हाँ   बीच बीच में पवन देव भी चल देते थे .....कभी कभी  तो  तेज हो जाते......तब  यमुना के बालू का कण  जब आँखों में जाता,  तो ऐसा लगता  जैसे ये बालुका न हो    कपूर को पीस कर बिखेर दिया  गया हो ।

कमल खिले हैं .............कुमुदनी  प्रसन्न है .......उसमें  भौरों का झुण्ड ऐसे गुनगुना रहा है..........जैसे   अपनें प्रियतम के लिये ये भी गीत गा रहे हों.......बेला,  मोगरा , गुलाब   इनकी तो भरमार ही थी .....।

ऐसी  दिव्य  प्रेमस्थली में,     मैं  कैसे पहुँचा था  मुझे पता नही ।

मेरी आँखें बन्द हो गयीं ..........जब खुलीं   तब मेरे सामनें एक महात्मा थे ......बड़े प्रसन्न मुखमण्डल वाले महात्मा ।

मैने उठते ही उनके चरणों में प्रणाम किया  ।

उनके रोम रोम से श्रीराधा .....श्रीराधा ...श्री राधा  ये प्रकट हो रहा था ।

उनकी आँखें चढ़ी हुयी थीं .......जैसे  कोई पीकर  मत्त हो  .........हाँ ये मत्त ही तो थे .........तभी  तो कदम्ब  और  तमाल वृक्ष से लिपट कर  रोये जा रहे थे .......रोनें में  दुःख या  विषाद  नही था .......आल्हाद था   ....आनन्द था   ।

मैने उनकी  गुप्त बातें सुननी चाहीं ...........मैं  अपनें  ध्यानासन से उठा .........और उनकी बातों में  अपनें कान लगानें शुरू किये ।

विचित्र बात  बोल रहे थे  ये महात्मा जी तो  ।

कह रहे थे .........नही,  मुझे तुम्हारा मिलन नही चाहिये .....प्यारे !  मुझे ये बताओ  कि तुम्हारे वियोग का  दर्द कब मिलेगा ।

तुम्हारे मिलन में कहाँ सुख है ...........सुख तो  तेरे लिए रोने में है .....तेरे लिए तड़फनें में है ..........तू मत मिल  अब ............तू जा !    मैं तेरे लिये  अब रोना चाहता हूँ ..........मैं  तेरे विरह की  टीस  अपनें सीने में  सहेजना  चाहता हूँ ......तू जा !   जा  तू   ।

ये क्या !    महात्मा जी के  इतना कहते ही ....................

तू गया  ?       तू गया  ?     कहाँ गया  ?    हे  प्यारे !    कहाँ  ? 

वो महात्मा  दहाड़ मार कर  धड़ाम से गिर गए   उस भूमि पर ..........

मैं गया .......मैने देखा ...............उनके पसीनें निकल रहे थे ........पर उन पसीनों से   भी गुलाब की सुगन्ध आरही थी   ।

मैं उन्हें देखता रहा ...............फिर  जल्दी गया ........अपनें  चादर को गीला किया  यमुना जल से .............उस   चादर से   महात्मा जी के मुखारविन्द को पोंछा  ........."श्रीराधा श्रीराधा  श्रीराधा"........यही नाम  उनके रोम रोम से फिर प्रकट होनें लगा था  ।

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वत्स !     साधना की सनातन दो ही धाराएं हैं ..............और ये अनादिकाल से चली आरही  धाराएं हैं ................

वो उठकर बैठ गए थे ........उन्हें मैं ही ले आया था  देह भाव में ....।

उठते ही उन्होंने इधर उधर देखा ........फिर मेरी ओर उनकी कृपा दृष्टि  पड़ी .........मैं हाथ जोड़े खड़ा था  ।

वो मुस्कुराये.....उनका कण्ठ सूख गया था......मैं  तुरन्त दौड़ा ....यमुना जी गया .......एक बड़ा सा कमल खिला था,  उसके ही  पत्ते  में  मैने  जमुना  जल भरा  और  ला कर  उन महात्मा जी को पिला दिया   ।

वो  जानें लगे ........तो मैं भी उनके पीछे पीछे चल दिया  ।

तुम कहाँ आरहे हो वत्स ! 

     उनकी वाणी  अत्यन्त ओजपूर्ण,  पर प्रेम से पगी हुयी थी  ।

मुझे  कुछ तो  प्रसाद मिले  !

मैनें  अपनी झोली फैला दी    ।

वो हँसे ............मैं पढ़ा लिखा तो हूँ नही  ?  

न पण्डित हूँ ........न  शास्त्र का ज्ञाता ............मैं क्या प्रसाद दूँ ? 

उनकी वाणी  कितनी आत्मीयता से भरी थी  ।

आप नें जो पाया है....उसे ही बता दीजिये ........मैने प्रार्थना की ।

उन्होंने लम्बी साँस ली ..........फिर   कुछ देर शून्य में तांकते रहे  ।

वत्स !  साधना की सनातन दो ही धाराएं हैं .............

एक धारा है ........अहम् की ......यानि  "मैं"   की .....और दूसरी धारा है .......उस "मैं" को  समर्पित करनें की ................

........मेरा मंगल हो ....मेरा कल्याण हो ...........मेरा शुभ हो .........इसी धारा में  जो साधना चलती है ....वो अहंम को साधना है  ।

पर एक  दूसरी धारा है  साधना की ...........वो बड़ी गुप्त है .......उसे सब लोग नही जान पाते  .............

क्यों  नही  जान पाते  महात्मन् ?   मैने प्रश्न किया  ।

क्यों की उसे जाननें के लिये  अपना "अहम्" ही  विसर्जित करना पड़ता है........."मैं"  को समाप्त करना पड़ता है .......महाकाल  भगवान शंकर  ......जो विश्व् गुरु हैं.......जगद्गुरु हैं......वो भी इस रहस्य को नही जान पाये ........तो उन्हें  भी  सबसे पहले  अपना "अहम्" ही विसर्जित करना पड़ा .........यानि  वो  गोपी बने........पुरुष का चोला उतार फेंका ......तब जाकर उस  रहस्य को उन्होंने समझा  ।

ये प्रेम की अद्भुत धारा है.......पर......वो महात्मा जी हँसे......ये  ऐसी धारा है    जो   जहाँ से  निकलती है उसी ओर ही बहनें लग जाती है ।

तभी तो इस धारा का नाम   धारा न होकर ............राधा है  ।

जहाँ पूर्ण अहम् का विसर्जन है .............जहाँ  " मैं" नामक कोई वस्तु है ही नही ......है तो बस ....तू ही तू  ।

त्याग,  समर्पण ,  प्रेम  करुणा की  एक निरन्तर चिर बहनें वाली  सनातन धारा का नाम है  ......राधा !   राधा !  राधा !  राधा !   

वो इससे आगे कुछ बोल नही पा रहे  थे  ।

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काहे टिटिया रहे हो ?      

मैं  चौंक गया ...............ये मुझे कह रहे हैं  ।

हाँ हाँ .........सीधे सीधे  "श्रीराधा रानी" पर कुछ क्यों नही लिखते ? 

ये आज्ञा थी उनकी ...............मैने उनकी  आँखों में देखा ।

मैं लिख लूंगा  ?     मेरे जैसा प्रेमशून्य व्यक्ति  उन "आल्हादिनी श्रीराधा रानी"  के ऊपर लिख लेगा ?         जिनका नाम लेते ही  भागवतकार श्रीशुकदेव जी  की  वाणी रुक जाती है...........ऐसी  "श्रीकृष्णप्रेममयी  श्रीराधा"   पर  मैं लिख लूंगा ?          मैं कहाँ   कामी, क्रोधी , कपटी  लोभी  क्या दुर्गुण नही हैं मुझ में ...........ऐसा व्यक्ति  लिख लेगा  उन   "श्रीकृष्ण प्रिया  श्रीराधा"   के ऊपर ......?

वो महात्मा जी उठे .............मेरे पास में आये ...............

और बिना कुछ बोले ............मेरे  नेत्रों के मध्य भाग को  अपनें अंगूठे से छू दिया ..............ओह !  ये क्या  !   

दिव्य निकुञ्ज ..........दिव्याति दिव्य नित्य निकुञ्ज ......मेरे नेत्रों के सामनें प्रकट हो गया था  ।

जहाँ चारों ओर   सुख और आनन्द की वर्षा हो रही थी .......प्रेम निमग्ना  सहस्त्र सखी संसेव्य  श्रीराधा माधव    उस दिव्य सिंहासन में विराजमान थे..........उन  श्रीराधा रानी की  चरण छटा से  सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रकाशित हो रहा था...........उनकी घुंघरू की आवाज से  ऊँ प्रणव का  प्राकट्य है .......वो पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण    अपनी आल्हादिनी के रूप में राधा को अपनें वाम भाग में विराजमान करके   प्रेम सिन्धु में  अवगाहन कर रहे थे  । ......................

मैने दर्शन किये  नित्य निकुञ्ज के .......................

अब तुम लिखो .................."श्रीराधाचरितामृतम्".............

वो  महात्मा जी   खो गए थे   उसी निकुञ्ज में  ।

"यमुना जी जाना नही है '...............पाँच बज गए  हैं  ।

सुबह पाँच बजे  मुझे  उठा दिया मेरे घर वालों नें  ।

ओह !     ये सब सपना था  ?       

मुझे आज्ञा मिली है.............कि मैं "श्रीराधाचरितामृतम्"    लिखूँ .....मुझे ये नाम भी उन्हीं  दिव्य महात्मा जी नें  सपनें में   ही दिया है ।

पर कैसे ?     कैसे लिखूँ  ?     "श्रीराधारानी" के चरित्र पर  लिखना साधारण कार्य नही है ...........मैनें अपना सिर पकड़ लिया ।

फिर एकाएक  मन  में  विचार आया .............कन्हैया की इच्छा है .......वो  अपनी प्रिया के बारें में  सुनना चाहता है ..........

ओह !  तो मैं सुनाऊंगा .........प्रमाण मत माँगना ........क्यों की  "श्रीराधा"   पर  लिखना ही अपनें आप में धन्यता है .......और  लेखनी की सार्थकता भी इसी में है ...............।

प्रेम  की  साक्षात् मूर्ति  श्री राधा रानी   के चरणों में प्रणाम करते हुए ।

! !  कृष्ण प्रेममयी राधा,  राधा प्रेममयो हरिः ! ! 

कल से  "श्रीराधाचरितामृतम्"  ,  आनंद आएगा  साधकों !

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 In urdu 
Part 1 

آج کے خیالات حوالہ نمبر 1


 ("سریرداچارتامریٹم" کا کردار)



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 کل کلندی کا دور بہہ رہا تھا… .یہ گھنا تھا… پھول کھل رہے تھے ، نشہ آور خوشبو جنگل کے سارے علاقے کو اپنی لپیٹ میں لے رہی تھی… چاند کی کرنیں۔  وہ خراب ہورہی تھی .... یمن کی ریت نے یوں لگا جیسے چاندی کو کچل کر بکھر گیا ہو ... ہاں ، پون دیو وسط میں چلتا تھا ... کبھی کبھی تیز ہوتا  ...... پھر ، جب یمن کی ریت کا ذرہ آنکھوں میں گیا تو ایسا لگا جیسے یہ ریت نہیں ہے اور کپور بکھر گیا ہے۔


 کمل کھلتا ہے ............. للی خوش ہوتی ہے ....... اس میں صبح کا ایک گچھا اس طرح ہوتا ہے ......... اپنے محبوب کے لئے  آپ بھی گانے گارہے ہیں… بیلا ، موگرا ، گلاب ان سے بھرا ہوا تھا….


 مجھے نہیں معلوم کہ میں ایسی محبت کے مقام پر کیسے پہنچا۔


 میری آنکھیں بند تھیں… جب میں کھلی تو میرے سامنے ایک مہاتما تھا… مہاتما بہت خوش چہرے کے ساتھ۔


 میں نے اٹھتے ہی اس کے پاؤں کو جھکا لیا۔


 روم سے سریادھا ، شریادھا… روم سے شری رادھا ، یہ ظاہر کررہا تھا۔


 اس کی آنکھیں آنکھیں بند ہو گئیں ....... جیسے کوئی شراب پی کر پی گیا ہو ..... ہاں وہ میٹ تھے ....... تب ہی کدامب اور تمل کے درخت سے لپٹ گئے  وہ رو رہے تھے… فریاد میں کوئی غم یا افسردگی نہیں تھا… خوشی تھی… خوشی تھی۔


 میں ان کی خفیہ باتیں نہیں سننا چاہتا تھا ……… میں اپنے مراقبے سے اٹھ کر ان کے الفاظ میں کان لگانے لگا۔


 یہ مہاتما جی عجیب و غریب باتیں کہہ رہے تھے۔


 وہ کہہ رہے تھے ……… نہیں ، میں تمہاری یونین نہیں چاہتا… پیارے!  مجھے بتائیں جب آپ کو علیحدگی کا درد ہو گا۔


 آپ کے اتحاد میں خوشی کہاں ہے ……… خوشی آپ کے لئے رونے میں ہے….  .......... تم جاؤ!  میں اب آپ کے ل cry رونا چاہتا ہوں .......... میں آپ کو اپنے سینے میں بچانا چاہتا ہوں… .تم جاؤ!  تم جاؤ


 یہ کیا ہے !  جیسا کہ مہاتما جی کہتے ہیں …….


 کیا آپ جا چکے ہیں؟  کیا آپ جا چکے ہیں؟  وہ کہاں چلا گیا  ؟  ارے پیارے  کہاں  ؟


 وہ مہاتما گرج اٹھا اور اس زمین پر گر پڑا …… ..


 میں چلا گیا …… میں نے دیکھا …………… ان کا پسینہ نکل رہا تھا …… .. لیکن وہ پسینے گلاب کی خوشبو آرہے ہیں۔


 میں ان کی طرف دیکھتا رہا …………… پھر جلدی ........ یامونا کے پانی سے اپنی چادر گیلا کردے …………  .... اس چادر سے مہاتما جی کے سر کا صفایا ...... "سریردھا سریردھا سریردھا" ........ روم سے اسی نام کو دوبارہ ظاہر کیا گیا۔


 ************************************************  *****


 بچہ !  سادھنا کے صرف دو دھارے ہیں .............. اور یہ موجودہ زمانے کے قدیم زمانے سے جاری ................


 وہ اٹھ کر بیٹھ گیا ........ میں اسے جسم میں لایا تھا ....


 جیسے ہی وہ اٹھ کھڑا ہوا ، اس نے ادھر ادھر ادھر دیکھا ........ پھر اس کا کرم میری طرف دیکھا گیا ......... میں ہاتھ جوڑ کر کھڑا ہوا۔


 وہ مسکرایا… اس کا گھاٹا سوکھ گیا تھا… میں فورا. بھاگ گیا… یمنہ جی… .ایک بڑا کمل کھلا رہا تھا ، میں نے اس کے پتے میں جمنا کا پانی بھر دیا۔  اور مہاتما کو پینے لائے۔


 انہیں معلوم ہونا شروع ہوا …… تو میں بھی ان کے پیچھے آگیا۔


 تم کہاں ہو واٹس!


 اس کی آواز بہت زوردار تھی ، لیکن محبت سے بیدار ہوئی تھی۔


 مجھے کچھ پرسادم ملا!


 میں نے اپنا بیگ پھیلادیا۔


 وہ ہنس پڑا ………… کیا میں پڑھا یا نہیں لکھتا ہوں؟


 میں نہ تو عالم ہوں …… نہ عالم… ..میں کیا پیش کروں؟


 اس کی آواز اتنے مباشرت سے بھری ہوئی تھی۔


 مجھے بتائیں کہ آپ نے کیا پایا ہے… .. میں نے دعا کی۔


 اس نے لمبی سانس لی… .. پھر اس نے کچھ دیر کے لئے باطل کو گھور لیا۔


 بچہ !  روحانی مشق کے صرف دو دھارے ہیں …………


 ایک ندی ہے …… .. انا کا ....... یعنی "میں"… اور دوسرا ہے… .. کہ "I" کو سرشار کرو ..  ..............


 ........ میرے پاس مریخ ہے .... میری فلاح ہو ... .... مجھے خوشیاں ملیں ....... اس کاشت میں جو اس دھارے میں جاری ہے ..  .. روح پر عمل کرنا ہے۔


 لیکن کاشت کا ایک اور حصہ بھی ہے ........... یہ بہت خفیہ ہے ....... ہر کوئی اسے نہیں جانتا .............


 مہاتما کیوں نہیں جان سکے۔  میں نے پوچھ گچھ کی


 کیونکہ اسے جاننے کے لئے اپنی "انا" کو ڈوبنا پڑتا ہے ......... "میں" کو ختم ہونا ہے ....... مہاکال لارڈ شنکر ...  وہ ایک گرو ہے…. جگدگورو …… وہ بھی اس راز کو نہیں جان سکتا تھا …… .چنانچہ اسے پہلے اپنی "انا" کو بھی غرق کرنا پڑا۔  ...... یعنی وہ گوپی بن گیا… .اس نے اس آدمی کا لباس اتار پھینکا …… پھر اس راز کو سمجھ گیا۔


 یہ عشق کا ایک حیرت انگیز دھارا ہے …… لیکن… .. مہاتما ہنس پڑے …… یہ ایسا ندی ہے کہ بہنیں جہاں بھی جاتی ہیں وہاں سے آتی ہیں۔


 اسی وجہ سے اس دھارے کا نام ہے اور نہ کہ ندی ………… رادھا ہے۔


 جہاں مکمل انا کا وسرجن ہے ............. جہاں "میں" نامی کوئی چیز نہیں ہے ... بس بات ہے ... آپ ہو۔


 قربانی ، لگن ، محبت اور شفقت کا ایک مستقل دھارہ لازوال بہنوں کا نام ہے ...... رادھا!  رادھا!  رادھا!  رادھا!


 وہ مزید کچھ نہیں بول سکتا تھا۔


 ************************************************  ****


 تم کیا کر رہے ہو؟


 میں حیران ہوں ............... یہ مجھے بتا رہے ہیں۔


 ہاں ہاں ......... "سریردھا رانی" پر براہ راست کچھ کیوں نہیں لکھتے؟


 یہ حکم اس کا تھا …………… میں نے اس کی آنکھوں میں دیکھا۔


 میں لکھوں گا  کیا مجھ جیسا پیار کرنے والا شخص ان "الہدینی سریردھا رانی" کے اوپر لکھے گا؟  بھگوتکر شری شکیو جی کا نام آتے ہی میں اس کا نام آتے ہی رک جاتا ہے ……… میں ایسے "سری کرشنا پریمی شریادھا" پر لکھوں گا؟  جہاں میں بدبخت ، غیظ و غضب ، لالچی بدمزگی نہیں ہوں؟


 وہ مہاتما جی اٹھے ............. میرے پاس آئے ...............


 اور کچھ کہے بغیر ............ اپنی انگوٹھے سے میری آنکھوں کے درمیانی حصے کو چھوئے .............. اوہ!  یہ کیا ہے  !


 Divya Nikunj .......... Divya Divya Nikunj …… میری آنکھوں کے سامنے نمودار ہوا۔


 جہاں چاروں طرف خوشی اور مسرت کی بارش تھی….  یہ منور تھا ........... اس کا پرناو گھونگرو کی آواز سے انکشاف ہوا ہے ....... پورن برہم سری کرشنا کو بطور الادھینی۔  میں شریک تھا  ......................


 میں نے نکنج کا معمول دیکھا …………………


 اب آپ لکھتے ہو .................. "سریرداچارتامریٹم" .............


 کہ مہاتما جی اسی نکنج میں کھو گئے تھے۔


 "یامنا جی جان نہیں ہے '............... پانچ بج چکے ہیں۔


 پانچ لوگوں نے صبح پانچ بجے مجھے اٹھایا۔


 اوہ ، ایسا ہی ہے!  کیا یہ سب خواب تھا؟


 مجھے آرڈر مل گیا ہے ............. کہ مجھے "سریرھاچارٹامریٹم" لکھنا چاہئے ..... میں نے خواب میں یہ نام اسی الہی مہاتما کو دیا ہے۔


 لیکن کس طرح ؟  کیسے لکھتے ہیں  "سری رھارارانی" کے کردار پر لکھنا کوئی آسان کام نہیں ہے ........... میں نے اپنا سر پکڑ لیا۔


 تب ذہن میں اچانک خیال آیا ……… .. کنہیا نے خواہش کی… وہ اپنے محبوب کے بارے میں سننا چاہتا ہے …….


 اوہ ، ایسا ہی ہے!  تو میں آپ سے کہوں گا ....... ثبوت طلب نہ کریں ........ آپ "سریردھا" پر کیوں لکھیں آپ کو مبارک ہے ....... اور تحریر کی اہمیت بھی اسی میں ہے  ہے ................


 محبت کی مورتی شری رادھا رانی کے قدموں پر سلام۔


 !  !  کرشنا پریمامائی رادھا ، رادھا پریمامیو ہریہ!  !


 کل سے "سریرداچارتامریٹم" ، متلاشی لطف اٹھائیں گے!



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Saturday 11 July 2020

भागवत कथा गोकर्ण एवम अजामिल जीवन सार

भागवत कथा🌿🌿🌿🌿

स्रंखला :- 1
गोकर्ण-धुंधुकारी और आत्मदेव की कहानी/कथा.......

एक ब्राह्मण थे आत्मदेव। जो तुंगभद्रा नदी के तट पर रहते थे। ये बड़े ज्ञानी थे। ये समस्त वेदों के विशेषज्ञ और श्रौत-स्मार्त कर्मों में निपुण थे। इनकी एक पत्नी थी जिसका नाम था
धुन्धुली । वैसे तो ये कुलीन और सुंदर थी लेकिन अपनी बात मनवाने वाली, क्रूर और झगड़ालू थी। आत्मदेव जी के जीवन में धन, वैभव सब कुछ था लेकिन सिर्फ एक चीज की कमी थी। इनके जीवन में कोई संतान नहीं थी। जिस बात का इन्हे दुःख था।
जब अवस्था बहुत ढल गयी, तब उन्होंने सन्तान के लिये तरह-तरह के पुण्यकर्म आरम्भ किये और वे दीन-दुःखियों को गौ, पृथ्वी, सुवर्ण और वस्त्रादि दान करने लगे। लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। इतना दुःखी हो गए कि अपने प्राण त्यागने के लिए वन में चल दिए। जब अपने जीवन का अंत करने जा रहे थे तो रास्ते में एक संत महात्मा बैठे हुए थे।

संत ने पूछा-अरे! तुम कौन हो और कहाँ जा रहे हो?
आत्मदेव जी कहते हैं- सन्तान के लिये मैं इतना दुःखी हो गया हूँ कि मुझे अब सूना-ही-सूना दिखायी देता है। मैं प्राण त्यागने के लिये यहाँ आया हूँ। सन्तानहीन जीवन को धिक्कार है, सन्तानहीन गृह को धिक्कार है! सन्तानहीन धन को धिक्कार है और सन्तानहीन कुल को धिक्कार है

महात्मा जी मैं अपने बारे में कहाँ तक कहूं? मैंने सोचा कि एक गाय पाल लूँ, गाय के बछड़ा/बछड़ी जन्म लेगा तो उससे मन बहला लूंगा लेकिन वो गाय भी बाँझ निकली। जो पेड़ लगाया उस पर कोई फल नहीं लगा वो भी सुख गया। मेरे घर में जो फल आता है, वह भी बहुत जल्दी सड़ जाता है। जब मैं ऐसा अभागा और पुत्रहीन हूँ, तब फिर इस जीवन को ही रखकर मुझे क्या करना है। 

 ऐसाकहकर आत्मदेव फुट फुटकर रोने लगा।
संन्यासी ने कहा—ब्राम्हणदेवता! संन्यासी ने कहा—ब्राम्हणदेवता! इस प्रजा प्राप्ति का मोह त्याग दो। विवेक का आश्रय लेकर संसार की वासना छोड़ दो। विप्रवर! सुनो; मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देख लिया है। तुम इस जन्म के लिए रोते हो लेकिन तुम्हारे तो सात जन्म तक कोई संतान का योग ही नहीं है। तुम्हारे माथे कि रेखा ये बता रही है। पूर्वकाल में राजा सगर एवं अंग को सन्तान के कारण दुःख भोगना पड़ा था। ब्राम्हण! अब तुम घर-परिवार की आशा छोड़ दो। संन्यास में ही सब प्रकार का सुख है।

ब्राम्हण ने कहा—महात्मा जी! विवेक से मेरा क्या होगा। मेरे भाग्य में संतान नहीं लेकिन आप मुझे तो बलपूर्वक पुत्र दीजिये। क्योंकि आपके आशीर्वाद में तो संतान है। यदि आप मुझे संतान का सुख नहीं देंगे तो मैं आपके सामने ही शोकमुर्च्छित होकर अपने प्राण त्यागता हूँ।
संत जी ने आत्मदेव का आग्रह और हठ देखकर कहा- ये फल लेकर जाओ और अपनी पत्नी को खिला देना। इससे उसके एक पुत्र होगा। तुम्हारी स्त्री को एक साल तक सत्य, शौच, दया, दान और एक समय एक ही अन्न खाने का नियम रखना चाहिये। ऐसा कहकर योगिराज चले गये और ब्राम्हण अपने घर लौट आया।
घर आकर आत्मदेव ने फल अपनी पत्नी धुंधली को दे दिया और कहा कि ये संत का प्रशादी तुम इस फल को खाकर एक साल तक नियमपूर्वक रहो। तुम्हे सुंदर पुत्र प्राप्त होगा। ऐसा कहकर आत्मदेव वहां से चले गए।
धुंधली ने सोचा- मैं तो यह फल नहीं खाऊँगी। फल खाने से गर्भ रहेगा और गर्भ से पेट बढ़ जायगा। फिर कुछ खाया-पीया जायगा नहीं, इससे मेरी शक्ति क्षीण हो जायगी; तब बता, घर का धंधा कैसे होगा ? और—दैववश—यदि कहीं गाँव में डाकुओं का आक्रमण हो गया तो गर्भिणी स्त्री कैसे भागेगी। प्रसव के समय बड़ी भयंकर पीड़ा होती है; मैं सुकुमारी भला, यह सब कैसे सह सकूँगी ?
जो स्त्री बच्चा जनती है, उसे उस बच्चे के लालन-पालन में भी बड़ा कष्ट होता है। मेरे विचार से तो वन्ध्या या विधवा स्त्रियाँ ही सुखी हैं’।
मन में ऐसे ही तरह-तरह के कुतर्क उठने से उसने वह फल नहीं खाया और जब उसके पति ने पूछा—‘फल खा लिया ?’ तब उसने कह दिया—‘हाँ, खा लिया’। और वह फल उस बाँझ गाय को खिला दिया।
एक दिन धुन्धुली की बहिन धुन्धुली से मिलने आई; तब उसने अपनी बहिन को सारा वृतान्त सुनाकर कहा कि ‘मेरे मन में इसकी बड़ी चिन्ता है। मैं इस दुःख के कारण दिनों दिन दुबली हो रही हूँ। बहिन! मैं क्या करूँ ?’
बहिन ने कहा, तेरे पास धन की कोई कमी नहीं है और मेरे पास बच्चे की कोई कमी नहीं है। ‘मेरे पेट में बच्चा है, प्रसव होने पर वह बालक मैं तुझे दे दूँगी। तब तक तू गर्भवती के समान घर में गुप्त-रूप से सुख से रह। तू मेरे पति को कुछ धन दे देगी तो वे तुझे अपना बालक दे देंगे। और तू इस फल की जाँच करने के लिये यह फल गौ को खिला दे।’

आज धुंधली से दो बड़े अपराध हो गए। संत के प्रशाद फल का अपमान कर दिया और संत फल की परीक्षा भी ले ली की अगर संत फल में इतनी ही शक्ति है तो गाय के बच्चा होगा।
कुछ समय के बाद जब इसकी बहन के पुत्र हुआ तो उसके पिता ने चुपचाप लाकर उसे धुन्धुली को दे दिया। और उसने आत्मदेव को सूचना दे दी कि मेरे सुखपूर्वक बालक हो गया है। आत्मदेव के पुत्र हुआ सुनकर सब लोगों को बड़ा आनन्द हुआ। ब्राम्हण ने उसका जातकर्म-संस्कार करके ब्राम्हणों को दान दिया और उसके द्वार पर गाना-बजाना तथा अनेक प्रकार के मांगलिक कृत्य होने लगे।

धुन्धुली ने कहा- आप खुशी मना रहे है लेकिन ‘मेरे स्तनों में तो दूध ही नहीं है; अब मैं इस बच्चे का पालन कैसे करुँगी?
मेरी बहन के अभी एक बालक ने जन्म लिया था लेकिन वह मर गया। उसे यहाँ बुलाकर रख लेते हैं तो वह आपके इस बच्चे का पालन-पोषण कर लेगी।
आत्मदेव ने पुत्र रक्षा के लिए हाँ कर दी और धुन्धुली ने उस बालक का नाम धुन्धुकारी रखा।
तीन महीने बीत जाने पर आत्मदेव जी गऊ को चारा डालने के लिए गए। आत्मदेव ने देखा की एक सुंदर बालक को गाय ने जन्म दिया है। जिसका पूरा शरीर तो मनुष्य जैसा है लेकिन कान गऊ की तरह हैं। इसलिए इसका नाम रखा

गोकर्ण। वह सर्वांगसुन्दर, दिव्य, निर्मल तथा सुवर्ण की-सी कान्ति वाला था। उसे देखकर ब्राम्हणदेवता को बड़ा आनन्द हुआ और उसने स्वयं ही उसके सब संस्कार किये। इस समाचार से और सब लोगों को भी बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बालक को देखने के लिये आये।
कुछ समय बीत जाने पर दोनों बालक जवान हुए। उनमें गोकर्ण तो बड़ा पण्डित और ज्ञानी हुआ, किन्तु धुन्धुकारी बड़ा ही दुष्ट निकला।
स्नान-शौचादि ब्राम्हणोचित आचारों का उसमें नाम भी न था और न खान-पान का ही कोई परहेज था। क्रोध उसमें बहुत बढ़ा-चढ़ा था। वह बुरी-बुरी वस्तुओं का संग्रह किया करता था। मुर्दे के हाथ से छुआया हुआ अन्न भी खा लेता था।

दूसरों की चोरी करना और सब लोगों से द्वेष बढ़ाना उसका स्वभाव बन गया था। छिपे-छिपे वह दूसरों के घरों में आग लगा देता था। दूसरों के बालकों को खेलाने के लिये गोद में लेता और उन्हें चट कुएँ में डाल देता। हिंसा का उसे व्यसन-सा हो गया था। हर समय वह अस्त्र-शस्त्र धारण किये रहता और बेचारे अंधे और दीन-दुःखियों को व्यर्थ तंग करता। चाण्डालों से उसका विशेष प्रेम था; बस, हाथ में फंदा लिये कुत्तों की टोली के साथ शिकार की टोह में घूमता रहता।

अंत में यह वैश्यों के जाल में फंस गया। उसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति नष्ट कर दी। एक दिन माता-पिता को मार-पीटकर घर के सब बर्तन-भाँड़े उठा ले गया।
जब आत्मदेव की सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई तो आत्मदेव फूट-फूटकर रोने लगा और बोला—‘इससे तो इसकी माँ का बाँझ रहना ही अच्छा था; कुपुत्र तो बड़ा ही दुःखदायी होता है। 

अब मैं कहाँ रहूँ ? कहाँ जाऊँ ? मेरे इस संकट को कौन काटेगा ? हाय! मेरे ऊपर तो बड़ी विपत्ति आ पड़ी है, इस दुःख के कारण अवश्य मुझे एक दिन प्राण छोड़ने पड़ेंगे।

इस के आगे की कथा कल आयेगी 

जय श्री राधे कृष्ण जी की 🙏🙏

भागवत कथा स्रंखला :- 2
भागवत कथा.....

गोकर्ण का आत्मदेव को उपदेश

उसी समय परम ज्ञानी गोकर्ण जी वहां आ गए। गोकर्ण जी कहते हैं- , ‘पिताजी! यह संसार असार है। यह अत्यन्त दुःख रूप और मोह में डालने वाला है। पुत्र किसका ? धन किसका ? स्नेहवान् पुरुष रात-दिन दीपक के समान जलता रहता है। सुख न तो इन्द्र को है और न चक्रवर्ती राजा को ही; सुख है तो केवल विरक्त, एकान्तजीवी मुनि को। ‘यह मेरा पुत्र है’ इस अज्ञान को छोड़ दीजिये। मोह से नरक की प्राप्ति होती है। यह शरीर तो नष्ट होगा ही। इसलिये सब कुछ छोड़कर वन में चले जाइये।

गोकर्ण के वचन सुनकर आत्मदेव के मन में वैराग्य जाग्रत हुआ और वन में जाने के लिये तैयार हो गया और उनसे कहने लगा, ‘बेटा! वन में रहकर मुझे क्या करना चाहिये, यह मुझसे विस्तारपूर्वक कहो।
गोकर्ण ने कहा—पिताजी! यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिर का पिण्ड है; इसे आप ‘मैं’ मानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादि को ‘अपना’ कभी न मानें। इस संसार को रात-दिन क्षणभंगुर देखें, इसकी किसी भी वस्तु को स्थायी समझकर उसमें राग न करें। बस, एकमात्र वैराग्य रस के रसिक होकर भगवान् की भक्ति में लगे रहें।
भगवद्भजन ही सबसे बड़ा धर्म है, निरन्तर उसी का आश्रय लिये रहें। अन्य सब प्रकार के लौकिक धर्मों से मुख मोड़ लें। सदा साधुजनों की सेवा करें। भोगों की लालसा को पास न फटकने दें तथा जल्दी-से-जल्दी दूसरों के गुण-दोषों का विचार करना छोड़कर एकमात्र भगवत्सेवा और भगवान् की कथाओं के रस का ही पान करें।

आत्मदेव ने गोकर्ण की बात सुनकर साठ वर्ष की आयु में घर का त्याग कर दिया। आत्मदेव ने वन में रहकर दिन रात भगवन का भजन किया और नियमपूर्वक भागवत के दशमस्कन्ध का पाठ किया जिससे उसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र को प्राप्त कर लिया।
पिता वन में चले गए लेकिन माँ की आशक्ति अभी परिवार में थी। एक दिन धुन्धुकारी ने अपनी माता को बहुत पीटा और कहा—‘बता, धन कहाँ रखा है ? नहीं तो अभी तेरी लुआठी (जलती लकड़ी)-से खबर लूँगा।

धुंधुकारी की इस बात से डरकर धुन्धुली कुएँ में गिर पड़ी और उसकी मौत हो गई। योगनिष्ठ गोकर्णजी तीर्थयात्रा के लिये निकले गये। क्योंकि उन्हें किसी प्रकार का सुख दुःख नहीं होता था।
माँ की मृत्यु के बाद धुन्धकारी पाँच वेश्याओं के साथ घर में रहने लगा। दिन रात उन वैश्याओं की सेवा में लगा रहता और सरे गलत काम करता। एक दिन ये चोरी करके बहुत सारा धन लाया। चोरी का बहुत माल देखकर रात्रि के समय स्त्रियों ने विचार किया कि ‘यह नित्य ही चोरी करता है, इसलिये इसे किसी दिन अवश्य राजा पकड़ लेगा। राजा यह सारा धन छीनकर इसे निश्चय ही प्राणदण्ड देगा। तो क्यों ना हम ही इसे मार डालें।

ऐसा निश्चय कर उन्होंने सोये हुए धुन्धुकारी को रस्सियों से कस दिया और उसके गले में फाँसी लगाकर उसे मारने का प्रयत्न किया। इससे जब वह जल्दी न मरा तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। तब उन्होंने उसके मुख पर बहुत-से दहकते अँगारे डाले; इससे वह अग्नि की लपटों से बहुत छटपटाकर मर गया। उन्होंने उसके शरीर को एक गड्ढ़े में डालकर गाड़ दिया।
वे कुलटाएँ धुन्धकारी की सारी सम्पत्ति समेटकर वहाँ से चंपत हो गयीं; उनके ऐसे न जाने कितने पति थे। और धुन्धकारी अपने कुकर्मों के कारण भयंकर प्रेत बन गया।

जब गोकर्ण ने लोगों के मुख से धुन्धकारी की मृत्यु का समाचार सूना। तब उन्होंने उसका गयाजी में श्राद्ध किया; और भी जहाँ-जहाँ वे जाते थे, उसका श्राद्ध अवश्य करते थे। इस प्रकार घूमते-घूमते गोकर्णजी अपने नगर में आये और रात्रि के समय दूसरों की दृष्टि से बचकर सीधे अपने घर के आँगन में सोने के लिये पहुँचे।

वहाँ अपने भाई को सोया देख आधी रात के समय धुन्धकारी ने अपना बड़ा विकट रूप दिखाया। वह कभी भेड़ा, कभी हाथी, कभी भैंसा, कभी इन्द्र और कभी अग्नि का रूप धारण करता। अन्त में वह मनुष्य के आकार में प्रकट हुआ।

गोकर्ण ने कहा—तू कौन है ? रात्रि के समय ऐसे भयानक रूप क्यों दिखा रहा है ?
गोकर्ण के इस प्रकार पूछने पर वह बार-बार जोर-जोर से रोने लगा। उसमें बोलने की शक्ति नहीं थी, इसलिये उसने केवल संकेतमात्र किया। तब गोकर्ण ने अंजलि में जल लेकर उसे अभिमन्त्रित करके उस पर छिड़का।

 इससे उसके पापों का कुछ शमन हुआ और वह इस प्रकार कहने लगा- ‘मैं तुम्हारा भाई हूँ। मेरा नाम है धुन्धकारी। मैंने अपने ही दोष से अपना ब्राम्हणत्व नष्ट कर दिया। मेरे कुकर्मों की गिनती नहीं की जा सकती। मैं तो महान् अज्ञान में चक्कर काट रहा था। इसी से मैंने लोगों की बड़ी हिंसा की। अन्त में कुलटा स्त्रियों ने मुझे तडपा-तडपा कर मार डाला। इसी से अब प्रेतयोनि में पड़कर यह दुर्दशा भोग रहा हूँ। भाई! तुम दया के समुद्र हो; अब किसी प्रकार जल्दी ही मुझे इस योनि से छुड़ाओ।’

गोकर्ण ने धुन्धकारी की सारी बातें सुनीं और कहा- भाई! मुझे इस बात का बड़ा आश्चर्य है—मैंने तुम्हारे लिये विधिपूर्वक गयाजी में पिण्डदान किया, फिर भी तुम प्रेतयोनि से मुक्त कैसे नहीं हुए?
प्रेत ने कहा—मेरी मुक्ति सैकड़ों गया-श्राद्ध करने से भी नहीं हो सकती। अब तो तुम इसका कोई और उपाय सोचो।

गोकर्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे कहने लगे—‘यदि सैकड़ों गया-श्राद्धों से भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती, तब तो तुम्हारी मुक्ति असम्भव ही है। अच्छा, अभी तो तुम निर्भय होकर अपने स्थान पर रहो; मैं विचार करके तुम्हारी मुक्ति के लिये कोई दूसरा उपाय करूँगा’।
गोकर्ण ने रात भर विचार किया, तब भी उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा।

तब भगवान सूर्य की सलाह पर गोकर्ण ने धुन्धुकारी को प्रेतयोनि से मुक्त करने के लिये श्रीमद्भागवत की सप्ताह-कथा प्रारम्भ की। श्रीमद्भागवतकथा का समाचार सुनकर आस-पास के गाँवों के लोग भी कथा सुनने के लिये एकत्र हो गये।

 जब व्यास के आसन पर बैठकर गोकर्ण ने कथा कहनी प्रारम्भ की, तब धुन्धुकारी भी प्रेतरूप में सात गाँठों के एक बाँस के छिद्र में बैठकर कथा सुनने लगा। सात दिनों की कथा में  उस बाँस की सातों गाठें फट गयीं और धुन्धुकारी प्रेतयोनि से मुक्त होकर भगवान के धाम को चला गया।

 श्रावण के महीने में गोकर्ण ने एक बार फिर उसी प्रकार श्रीमद्भागवत की कथा कही और उसके प्रभाव से कथा-समाप्ति के दिन वे अपने श्रोताओं के सहित भगवान विष्णु के परमधाम को पधारे।

जय जय श्रीहरि

जब धोवी बोला हरि बोल हरि बोल।। (When the washerman said Hari bol hari bol)

"धोबी बोला हरिबोल"

प्रभु श्रीचैतन्यदेव नीलाचल चले जा रहे हैं, प्रेम में प्रमत्त हैं, शरीर को सुध नहीं है, प्रेममद में मतवाले हुए नाचते चले जा रहे हैं, भक्त-मण्डली साथ है। रास्ते में एक तरफ एक धोबी कपड़े धो रहा है। प्रभु को अकस्मात् चेत हो गया, वे धोबी की ओर चले ? भक्तगण भी पीछे-पीछे जाने लगे। धोबी ने एक बार आँख घुमाकर उनकी ओर देखा फिर चुपचाप अपने कपड़े धोने लगा। प्रभु एकदम उसके निकट चले गये। श्रीचैतन्य के मन का भाव भक्तगण नहीं समझ सके। धोबी भी सोचने लगा कि क्या बात है ? इतने में ही श्रीचैतन्यने धोबी से कहा-'भाई धोबी एक बार हरि बोलो।' धोबी ने सोचा, साधू भीख माँगने आये हैं। उसने ‘हरि बोलो' प्रभु की इस आज्ञा पर कुछ भी ख्याल न करके सरलता से कहा-'महाराज ! मैं बहुत ही गरीब आदमी हूँ। मैं कुछ भी भीख नहीं दे सकता।'
प्रभुने कहा-'धोबी ! तुमको कुछ भी भीख नहीं देनी पड़ेगी। सिर्फ एक बार ‘हरि बोलो' धोबी ने मन में सोचा, साधुओं का जरूर ही इसमें कोई मतलब है, नहीं तो मुझे 'हरि' बोलने को क्यों कहते ? इसलिये हरि न बोलना ही ठीक है। उसने नीचा मुँह किये कपड़े धोते-धोते ही कहा–'महाराज ! मेरे बाल-बच्चे हैं, मजूरी करके उनका पेट भरता हूँ। मैं हरिबोला बन जाऊँगा तो मेरे बाल-बच्चे अन्न बिना मर जायँगे।'
प्रभुने कहा-'भाई ! तुझे हमलोगों को कुछ देना नहीं पड़ेगा, सिर्फ एक बार मुँह से हरि बोलो। हरिनाम लेने में न तो कोई खर्च लगता है और न किसी काम में बाधा आती है। फिर हरि क्यों नहीं बोलते, एक बार हरि बोलो भाई।'
 धोबीने सोचा अच्छी आफत आयी, यह साधु क्या चाहते हैं ? न मालूम क्या हो जाय ? मेरे लिये हरिनाम न लेना ही अच्छा है। यह निश्चय करके उसने कहा-'महाराज ! तुम लोगों को कुछ काम-काज तो है नहीं, इससे सभी कुछ कर सकते हो। हम गरीब आदमी मेहनत करके पेट भरते हैं। बताइये, मैं कपड़े धोऊँ या हरिनाम लँ।'
प्रभुने कहा-'धोबी ! यदि तुम दोनों काम एक साथ न कर सको तो तुम्हारे कपड़े मुझे दो। मैं कपड़े धोता हूँ। तुम हरि बोलो।'
इस बात को सुनकर भक्तों को और धोबी को बड़ा आश्चर्य हुआ। अब धोबी ने देखा इस साधु से तो पिण्ड छूटना बड़ा ही कठिन है। क्या किया जाय, जो भाग्य में होगा वही होगा-यह सोचकर प्रभु की ओर देखकर धोबी कहने लगा- ‘साधु महाराज ! तुम्हें कपड़े तो नहीं धोने पड़ेंगे। जल्दी बतलाओ, मुझे क्या बोलना पड़ेगा, मैं वही बोलता हूँ।' अब तक धोबी ने मुख ऊपर की ओर नहीं किया था। अब की बार उसने कपड़े धोने छोड़कर प्रभु की ओर देखते हुए उपर्युक्त शब्द कहे। धोबी ने देखा साधु करुणाभरी दृष्टि से उसकी ओर देख रहे हैं और उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही है। यह देखकर धोबी मुग्ध-सा होकर बोला, 'कहो महाराज ! मैं क्या बोलूँ।' प्रभु ने कहा-'भाई ! बोलो ‘हरि बोल।'
धोबी बोला। प्रभु ने कहा-धोबी! फिर ‘हरि बोल' बोलो, धोबी ने फिर कहा-हरि बोल। इस प्रकार धोबी ने प्रभु के अनुरोध से दो बार ‘हरि बोल', 'हरि बोल' कहा। तदनन्तर वह अपने आपे में नहीं रहा और विह्वल हो उठा। बिलकुल इच्छा न होने पर भी वह ग्रहग्रस्त की तरह अपने आप ही 'हरि बोल’, ‘हरि बोल' पुकारने लगा। ज्यों-ज्यों हरि बोल पुकारता है, त्यों-त्यों विह्वलता बढ़ रही है। पुकारते-पुकारते अन्त में वह बिलकुल बेहोश हो गया। आँखों से हजारों-लाखों धाराएँ बहने लगीं। वह दोनों भुजाएँ ऊपर को उठाकर 'हरि बोल', 'हरि बोल' पुकारता हुआ नाचने लगा। भक्तगण आश्चर्यचकित होकर देखने लगे। अब प्रभु नहीं ठहरे। उनका कार्य हो गया। इसलिये वे वहाँ से जल्दी से चले। भक्तगण भी साथ हो लिये। थोड़ी-सी दूर जाकर प्रभु बैठ गये। भक्तगण दूर से धोबी का तमाशा देखने लगे। धोबी भाव बता-बताकर नाच रहा है। प्रभु के चले जाने का उसे पता नहीं है। उसकी बाह्य दृष्टि लुप्त हो चुकी है। भाग्यवान् धोबी अपने हृदय में गौर-रूप का दर्शन कर रहा है।
भक्तों ने समझा धोबी मानो एक यन्त्र है। प्रभु उसकी कल दबाकर आये हैं और वह उसी कल से 'हरि बोल' पुकारता हुआ नाच रहा है। भक्त चुपचाप देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद धोबिन घर से रोटी लायी। कुछ देर तक तो उसने दूर से खड़े-खड़े पति का रंग देखा, पर फिर कुछ भी न समझकर हँसी में उड़ाने के भाव से उसने कहा-'यह क्या हो रहा है ? यह नाचना कब से सीख लिया ?' धोबी ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह उसी तरह दोनों हाथों को उठाये हुए घूम-घूमकर भाव दिखाता हुआ ‘हरि बोल' पुकारने और नाचने लगा। धोबिन ने समझा पति को होश नहीं है। उसको कुछ-न-कुछ हो गया है। वह डर गयी और चिल्लाती हुई गाँव की तरफ दौड़ी तथा लोगों को बुलाने और पुकारने लगी। धोबिन का रोना और पुकारना सुनकर गाँव के लोग इकट्टे हो गये। धोबिन ने डरते-डरते उनसे कहा कि 'मेरे मालिक को भूत लग गया है। दिन में भूत का डर नहीं लगा करता, इसलिये लोग धोबिन को साथ लेकर धोबी के पास आये। उन्होंने देखा धोबी बेहोशी में घूम-घूमकर इधर-उधर नाच रहा है। उसके मुख से लार टपक रही है। उसको इस अवस्था में देखकर पहले तो किसी का भी उसके पास जाने का साहस नहीं हुआ। शेष में एक भाग्यवान् पुरुष ने जाकर उसको पकड़ा। धोबी को कुछ होश हुआ और उसने बड़े आनन्द से उस पुरुष को छाती से लगा लिया। बस, छाती से लगने की देर थी कि वह भी उसी तरह ‘हरि बोल' कहकर नाचने लगा। अब वहाँ दोनों ने नाचना शुरू कर दिया। एक तीसरा गया, उसकी भी यही दशा हुई। इसी प्रकार चौथे और पाँचवें क्रम-क्रम से सभी पर यह भूत सवार हो गया। यहाँ तक कि धोबिन भी इसी प्रेममद में मतवाली हो गयी। प्रेम की मन्दाकिनी बह चली, हरिनाम की पवित्र ध्वनि से आकाश गूंज उठा, समूचा गाँव पवित्र हो गया ।।
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- श्रीजी मंजरीदास (बरसाना)
'सरस प्रसंग
"जय जय श्री राधे"